शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

चूल्हा ,चक्कड़ और चौथी दुनिया की कवितायें -२



चौथी दुनिया का मौसम आजकल बेहद खुशगवार है ,हो भी क्यों न ,शेफाली पाण्डेय ,जेनी शबनम ,आशा प्रकाश ,पारुल , शिखा वार्ष्णेय ,प्रीति टेलर ,कुसुम ठाकुर ,संगीता , सरीखे नामों ने समूची समकालीन कविता के उबाऊ स्वरुप को बदल कर रख दिया है यहाँ इन्टरनेट पर ये महिलायें जो कुछ भी लिख रही हैं ,वो हिंदी कविता के परम्परागत चेहरे को बदलने की अभिनव कोशिश है ,उनकी ये कोशिश रंग ला रही है वो पढ़ी जा रही हैं और खूब पढ़ी जा रही हैं ,ये सच है की खुद को हिंदी कविता का प्रतीक मानने वाली कलम अभी फिलहाल इन्हें और इनकी रचनाओं को स्वीकार नहीं कर पा रहा है या कहें उन्हें साथ लेकर चलने में उन्हें गुरेज है मगर ये कहना गलत नहीं होगा की जब कभी आधुनिक कविता की चर्चा होगी तो रसोईघर में बर्तनों के साथ लड़ाई कर रही ,या फिर दफ्तरों की दम तोड़ती कुर्सियों पर अपनी गृहस्थी को संजोने की महान कोशिश में जुटी इन महिलाओं की कविताओं को जगह न देना ,हिंदी और हिंदी कविता के साथ सबसे बड़ी बेईमानी होगी हमने कुछ समय पहले चंद कवियत्रियों के रचना संसार की चर्चा की थी ,आज हम फिर कुछ एक की कविताओं पर बात करेंगे ,जिनका हम जिक्र नहीं कर पा रहे हैं ,संभव है हमने उन्हें न पढ़ा हो ,लेकिन उनकी रचनाधर्मिता पर हमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ,क्यूंकि हम जानते हैं की चौथी दुनिया के दरवाजे में घुसने के बाद घुटन ,पुरुषवादी समाज से उपजी कुंठाएं और संत्रास ख़त्म हो जाते हैं ,यहाँ हम उनको पढ़ रहे हैं जिन्होंने सिर्फ कविता लिखना नहीं ,१०० फीसदी जीना सीख लिया है


एक ऐसे वक़्त में जब हिंदी कविता से हास्य और व्यंग्य पूरी तरह से गायब हो चुका है ,ठेठ मंच हो या साहित्यिक पत्रिकाएं व्यंग्य के नाम पर सिर्फ पहचान बनाने और भीड़ जुटाने की जैसे तैसे कोशिशें की जा रही हो ,शेफाली पाण्डेय को पढना निस्संदेह बेहद सकून देने वाला होता है ,बच्चों को इंग्लिश पढ़ने वाली शेफाली के लिए कविता सिर्फ विचारों के उत्सर्जन का माध्यम नहीं है बल्कि खुद के और औरों के जिन्दा रहने के पक्ष में दिया गया हलफनामा है उनकी कविता सबकी कविता है वो सब्जियों के मोल भाव कर रही किसी आम महिला की कविता हो सकती है या महंगाई से सर पिट रहे दो जवान बेटियों के बाप की कविता उनकी खुद को बयां करती इस व्यंग्य की गंभीरता पर निगाह डालें -

सूनेपन से त्रस्त हूँ
वैसे बेहद मस्त हूँ
करीने से सजा है मकां मेरा
मैं इसमें बेहद अस्त-व्यस्त हूँ

जेनी शबनम जी की ग़जलें ,बादलों और हवाओं का रंग हैं ,धूप और साए की जुबान है जेनी की ग़जलों की सबसे बड़ी खासियत उनकी सरल भाषा है उन्होंने ग़जल को पारंपरिक क्लिष्टता और अपरिचित भाषा से मुक्त करके हर किसी तक पहुँचने का काम किया है उनकी बिम्ब रचना और प्रतीक चयन में अभिव्यक्ति की व्यापकता देखते ही बनती है , पति और बच्चों के साथ जिंदगी के हर पल को संजीदगी से जी रही जेनी जी की दो लाइनें ,उनकी ग़जलों के वजन को बयां करती हैं -

ख्यालों के बुत ने, अरमानों के होठों को चूम लिया
काले लिबास सी वो रात,तमन्नाओं की रौशनी में नहा गई

दिल्ली की सुनीता शानू एक स्थापित स्वतंत्र पत्रकार हैं , आप में से बहुत लोगों ने उन्हें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में पढ़ा होगा,मगर ये सब कुछ चौथी दुनिया में आकर ही संभव हुआ एक व्यंगकार के रूप में उनकी रचनाएँ ,मानवीय जीवन की कठोरता पर भरपूर प्रहार करती हैं ,जहाँ हम आप मौन हो जाते हैं और एक तरह की मानसिक ब्लोकिंग हो जाती है ,वहां से सुनीता की कविता शुरू होती है


उम्मीदों और खुशियों से भरी
एक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथो को सटासट...

कभी टेबिल तो कभी कुर्सी चमकाते
छलकती कुछ मासूम बूँदें
सुखे होंठों को दिलासा देती उसकी जीभ
खेंच रही थी चेहरे पर

हर दिशा में दौड़ता
भूल जाता था कि
कल रात से उसने भी
नही खाया था कुछ भी...

झारखण्ड की पारुल रहने वाली पारुल की कविताओं का जिक्र किये बिना चौथी दुनिया का रचना संसार अधुरा है ,उनको पढ़ते हुए कभी निराला की याद आती है तो कभी दुश्याँ सामने आ खड़े हो जाते हैं सुश्री पारुल पुखराज के बारे में ताऊ रामपुरिया कहते हैं 'सुश्री पारुल जी यानि पारूल…चाँद पुखराज का से. वैसे तो उनके व्यक्तित्व के बारे मे उनका ब्लाग ही सब कुछ कह जाता है. उनके ब्लाग पर जाते ही एक शीतलता और संगीत की माधुर्यता का एहसास होता है. उनसे मुलाकात मे भी वैसी ही एक शांत, सौम्य और निश्छलता का एहसास हुआ.

प्राणप्रन से हो निछावर
बंदिनी जब कर लिया,
अंकुशों के श्राप से फिर
प्रीत को बनबास क्यों

मौन हो जाये समर्पण
शेष सब अधिकार हों,
नेह का बंधन डगर की
बेड़ियाँ बन जाये क्यों
-आशा प्रकाश को हमने कुछ दिनों पहले ही पढ़ा है लेकिन यकीन मानिये उनको पढने के बाद समकालीन कविता को लेकर मेरे मन का क्षोभ पूरी तरह से ख़त्म हो गयावो जो जीती हैं ,वो लिखती हैं ,उनके लिए कवितायेँ खुद को अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है ,वो कहती हैं अगर कवितायेँ न हो तो मैं जिन्दा न रहूँ अपनी बिटिया को लिखी उनकी एक कविता के कुछ अंश --

समय उड़ गया पंख लगा
अब कंधे तक मेरे आती है
जब उलझ कहीं मै जाती हूँ
वो मुझ को अब समझाती है
माँ मै हूँ उसकी लेकिन
वो मेरी माँ बन जाती है..


जमशेदपुर की कुसुम ठाकुर के लिए कवितायेँ जिंदगी को पूरी तरीके से जीने का सलीका है ,वो जब कवितायेँ नहीं लिखती हैं तो अपनी सहेलियों के साथ दीन -दुखियों की सेवा में खुद को लीन कर देती हैं ,उनकी कविता का भाषा पक्ष इतना स्वाभाविक है की उनकी हर कविता बेहद आसानी से पाठकों का अपना हिस्सा बन जाती है -

मैं ने भी तो किया प्रयास ,
शायद मेरा कुछ दोष ही हो
अब जो छूटा तो हताश हूँ मैं ,
पर मैं कैसे स्मरण करूँ ?
माना वह अब करे विचलित ,
जिसको मैं याद करूँ हर पल
पर यह तो एक सच्चाई है ,
जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ?

शिखा वार्ष्णेय लन्दन से हैं ,वो उतनी ही अधिक घरेलू हैं जितनी हिंदुस्तान के किसी छोटे से कस्बे में रहने वाली कोई महिला ,शिखा के रचना संसार में सब कुछ मौजूद है इसे ग़जल ,मुक्तक या फ़िर कोई नाम देना बेईमानी होगा अगर आप सिर्फ़ कविता को महसूस करना चाहते हैं तो यहाँ आयें ,उन्हें पढ़ते वक्त ऐसा लगता है जैसे कविता के लिए कुछ भी असंभव नही है |उनकी ये पंक्तियाँ पढ़ें-


ताल तलैये सूख चले थे
कली कली कुम्हलाई थी
धरती माँ के सीने में एक दरार सी छाई थी
कब गीली मिटटी की खुशबु बिखरेगी सर्द
में कब बरसेगा झूम के सावन
ऋतू प्रीत सुधा बरसायेगी

प्रीति टेलर चौथी दुनिया का एक ऐसा नाम है ,जिसे पढना सभी को पसंद है वो कहती हैं ' .... शायरी ,कविता ,लघुकथाएं , कुछ जिन्दगी के स्पर्श करते लेख मेरे सपनों को व्यक्त करने का माध्यम बनते है जिन्हें मैं कलमबंद करके कागज़ पर बिखेर देती हूँ उसमे अपने विचारों के रंग भर देती हूँ ..'सच कहती हैं वो उनकी खुद के प्रति इमानदारी उनकी अपनी कविता में भी प्रतिबिंबित होती है -
दर्द तो बिकता है-

यहाँ हर गली हर मोड़ पर ,
खुशियोंकी फुहारें तो बहुत कम को नसीब होती है ,
अपने होठोंकी मुस्कुराहटोंको बांटते रहो हरदम ,
निगाहों को जो नम होती है ......

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

बुर्का बैन और बवाल


आयशा आस्मिन अपने कॉलेज इसलिए नहीं जा रही हैं क्यूंकि उनके बुर्का पहनने पर प्रबंधन को ऐतराज है |'सच का सामना' में जारा अपनी अम्मी ,अब्बा और अपने मंगेतर के सामने अपने पूर्व प्रेमी के साथ शारीरिक संबंधों का सच हँसते हुए बयां कर रही हैं|शाहरुख़ नाराज हैं क्यूंकि अमेरिका को ' खान 'नाम आतंकवादियों के नाम जैसा लगता है , |ये तीन स्थितियां प्रतीक हैं हिंदुस्तान में आज के मुसलमान के सामाजिक ,मानसिक और धार्मिक मनःस्थिति की ,वो धर्म के प्रति कट्टर है भी और नहीं भी है ,कहीं कहीं उसमे हिन्दुओं से अधिक भीरुता है तो कहीं-कहीं तालिबानियों जैसी धार्मिक रुग्णता से वो अब भी बाहर नहीं आ पाया है ,देश में लगातार बदल रहे हालात ने आज मुसलमानों और गैर मुसलमानों के बीच की दूरी को तो कम किया है ,लेकिन ये भी सच है मुसलमानों का ही एक हिस्सा इस दूरी के कम होने के खिलाफ है ,वो इस निकटता के खिलाफ खुद से भी लड़ रहा है और शेष हिन्दुतान से भी लड़ रहा है |आयशा का बुर्का पहन कर विद्यालय जाने की जिद्द एक मामूली बात नहीं है ,बल्कि ये जिद्द बतलाती है की आज भी देश के मुसलामनों की एक बड़ी तादात अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकारों को धर्म के साथ ,और बेहद कट्टरता के साथ ही पूरा करना चाहती है ,यहाँ तक की अपने मौलिक अधिकारों को भी वो धर्म की चाशनी के साथ ही लेना चाहती है |यही धार्मिक अतिवादिता मौजूदा दौर में उसकी मुश्किलें बढा रही हैं |
अगर कभी आप बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत विश्विद्यालय परिसर में जायेंगे ,तो ज्यादातर अध्यापक आपको धोती कुरता और चन्दन लगाये मिलेंगे ,वहां के छात्रों ने परिसर से भगवा प्रतीकों को बाहर खदेड़ने की कोशिश की मगर वो असफल रहे ,नतीजा ये पूरा विश्वविद्यालय हिन्दुओं के मदरसे में तब्दील होता चला गया , संस्कृत की पढाई में भगवा रंग कुछ इस तरह पड़ा कि परिसर से विद्वानों की पैदावार पूरी तौर से ख़त्म हो गयी |ऐसा ही कुछ देश के तमाम विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में हो रहा है वहां धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल खुलेआम किया जा रहा है | यहाँ सवाल न तो बुर्के का है न ही चन्दन टीके का ,बात सिर्फ ये है कि सार्वजनिक स्थानों पर धर्म के प्रतीकों का किस हद तक इस्तेमाल किया जाना चाहिए |कर्नाटका की घटना के सम्बंध में आयशा ने कहा है कि पहले कॉलिज स्टूडंट यूनियन के प्रेजिडंट ने उसके हेडस्कार्फ पहनने का विरोध किया। प्रेजिडंट ने कहा कि 'अगर तुम हेडस्कार्फ पहनना बंद नहीं करोगी तो हम लोग भी भगवा स्कार्फ बांध कर आएंगे।'और उसके बाद प्रिंसिपल ने लिखित रूप से उन्हें बुरका पहन कर विद्यालय न आने का फरमान सुना दिया |एक और मामला दक्षिण कन्नड़ जिले के उप्पिनांगडी के एक सरकारी कॉलिज का है। यहां के प्रिंसिपल ने सोमवार को 50 मुस्लिम छात्राओं को क्लास में महज इसलिए नहीं जाने दिया कि उन्होंने बुर्का पहन रखा था। प्रिंसिपल ने सभी स्टूडंट्स से एक कागज पर दस्तखत करवा लिए थे जिसमें कहा गया था कि वे यूनिफॉर्म पहनेंगे।अगर प्रबंधन द्वारा बुर्के पर प्रतिबन्ध महज विद्यालय से धार्मिक प्रतीकों को दूर करने के लिए की गयी है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए ,लेकिन अगर इस बात में कहीं से भी प्रबंधन का धर्म से जुड़ा पूर्वाग्रह है तो हम उसका पुरजोर विरोध करते हैं |ये बेहद खेदपूर्ण है कि परिसर में जींस टॉप पर प्रतिबन्ध लगने पर हो-हल्ला मचाने वाले तमाम संगठन आश्चर्यजनक तौर से इस असहज बुर्कानाशिनी पर अपने होंठ सी लेते हैं ,उन्हें बुर्के के पीछे छिपी आँखों की नाउम्मीदी नजर नहीं आती ,वहीँ नारी अधिकारों पर बात करने वाली तमाम एजेंसियों के लिए सवालों और जवाबों का दायरा सिर्फ हिन्दू स्त्रियों के इर्द गिर्द ही मौजूद है ,उनके पास न तो ऐसे सवालों के साथ खड़े होने का साहस है और न ही समय |हाँ ,शाहरुख खान के अपमान और जरा की सच्चाई पर जेरे बहस में सभी शामिल होना चाहते हैं |
मेरी एक इरानी मित्र हैं अजीन घहेरी शर्गेही ,वो तेहरान के एक प्रौद्योगिकी संस्थान से इंजीनियरिंग में पोस्ट ग्रैजुएशन कर रही हैं ,वो बताती हैं कि हमारे कॉलेज प्रबंधन ने हम लड़कियों के लिए स्कूल में स्कार्फ पहनकर आना अनिवार्य कर दिया तो विद्यालय के सभी छात्र -छात्रों ने एक साथ कक्षाओं का बहिष्कार कर दिया,वो कहती हैं 'जब हम इस कट्टरपंथी देश में घर और बाहर जींस पहनते हैं और वो हमारे लिए आरामदेह है तो कॉलेज में क्यूँ न पहने '?|हिंदुस्तान में मुस्लिम अविवाहित लड़कियों पर अलग से बातचीत बहुत कम की जाती है ,मेरे एक मुस्लिम मित्र अनवर ने कुछ दिनों पहले अल्पसंख्यक महिलाओं में शिक्षा की स्थिति पर एक लेख लिखा था ,और उसने इसके लिए मुस्लिम समुदाय में धर्म के नाम पर जबरन थोपी जा रही दुश्वारियों को जिम्मेदार बताया था ,ये सही भी है भारी तादात में मुस्लिम लड़कियां ऊँची तालीम हासिल सिर्फ इसलिए नहीं कर पाती क्यूंकि उन्हें बचपन से ही ताउम्र पर्दादारी के लिए तैयार किया जाता है और इस पर्दादारी के लिए पुरुषों के अपने तर्क होते हैं उन तर्कों पर की जाने वाली टिप्पणियों को वो कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते |तालिबानियों ने भी पिछले दिनों जब स्वात घाटी पर अपना कब्जा जमाया तो सबसे पहले लड़कियों के विद्यालयों को बारूद से उडा दिया ,कम उम्र की छात्रों को बुर्कानशीं बनाना कहीं न कहीं से उसी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है |आयशा के कालेज के प्राचार्य एस. माया का कहना है कि उसे स्पष्ट तौर पर कह दिया गया है कि कक्षा में बुर्का पहनने की इजाजत नहीं दी जाएगी। हमारे कालेज में 23 और मुस्लिम छात्राएं हैं, लेकिन कोई बुर्का नहीं पहनती। हम किसी छात्र को उसके धर्म के प्रतीक वाली पोशाक पहनने की इजाजत नहीं दे सकते। मंगलूर विश्वविद्यालय के कुलपति का कहना है कि कालेज से इस प्रकरण पर जवाब मांगा गया है। जवाब मिलने के बाद ही वह कोई कार्रवाई करेंगे। कुलपति ने यह भी कहा कि आयशा चाहे तो वह दूसरे कालेज में दाखिला दिलवाने में उसकी मदद कर सकते हैं। जानकारी मिली है की आयशा के अभिभावकों ने ने ऐसे कालेज में दाखिला कराने की कोशिश शुरू कर दी है, जहां बुर्का पहनने पर कोई आपत्ति न उठे।
अभी कुछ ही दिन हुए जब फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने अपने देश में बुर्के पर प्रतिबन्ध लगाये जाने का ऐलान करते हुए अपने देश की संसद में कहा था की 'हम अपने देश में ऐसी महिलाओं को नहीं देख सकते जो पर्दे में कैद हों, सभी सामाजिक गतिविधियों से कटी हों और पहचान से वंचित हों। यह महिलाओं की गरिमा के हमारे विचार से मेल नहीं खाता।मगर, साथ ही, सारकोजी ने यह भी कहा कि 'हमें गलत लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए। हमें हर हाल में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि फ्रांस में इस्लाम धर्म को मानने वाले लोगों का भी उसी प्रकार सम्मान हो जैसा किसी भी दूसरे धर्म के लोगों का होता है।हमारे यहाँ हिंदुस्तान में स्थिति फ्रांस से बिलकुल अलग है वहां के राष्ट्रपति को इस्लाम के सम्मान को सुनश्चित करने का वक्तव्य संसद में देना पड़ता है ,हिंदुस्तान का चरित्र ही सर्व धर्म समभाव वाला है ,मगर अफ़सोस, वहां पर कडाई से बुर्के पर प्रतिबन्ध लगा दिए जाते हैं और हमारे यहाँ अगर कहीं इस पर आपति की जाती है ,तो अपने नंबर बढाने में लगे राजनैतिक दल ,खुद को मसीहा साबित करने में जी जान से जुटे धार्मिक संगठन और खुद को निरपेक्ष साबित करने का घटिया खेल - खेल रहे चैनल्स अलग अलग तरीके से इसका विरोध करने लगते हैं |ये अति है हमें कुछ भी पहनने -ओढ़ने और अपने धर्र्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल की स्वतंत्रता होनी चाहिए ,लेकिन हमें स्वतंत्रता की व्यक्तिगत और सार्वजानिक किस्मों को भी समझना होगा ,देश की महिलाओं का ,और हम सभी का भला इसी में है |

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

ब्लागर्स पार्क में रिसते रिश्ते

वो डरते हैं कि रिश्तों के रिसाव से जुडा सच, उनकी निजता को भंग कर देगा |वो डरते हैं अपनी पहचान बताने में !उन्हें डर हैं अभिव्यक्ति पर रिश्तों के गहराते असर से !उन्हें लगता है सच के सामने आने से उनकी बेबाकी ,बेईमानी में तब्दील होकर सबके सामने आ जायेगी !मुझे आज ब्लोगिंग करते करीब ६ महीने हो गए ,.पिछले ३-४ दिनों से पहले मित्र सुरेश चिपलूनकर के अपने ब्लॉग और फिर विवेक भाई की चिटठा चर्चा में की गयी पोस्टिंग प्रकाशित होने के बाद ,यहाँ इन्टरनेट पर और इन्टरनेट के बाहर मेरी अपनी दुनिया में जो जो मैंने सुना ,समझा और पढ़ा ,यकीं मानिए मुझे बेहद हताश करता है |हमने कभी कहा नहीं लेकिन ये सच है कि यहाँ हिंदी ब्लाग्स की दुनिया में भी ,समय के साथ साथ नए नए किस्म के रिश्ते ,समुदाय और ग्रुप पनप रहे हैं ,ये रिश्ते उन रिश्तों से अलग हैं जिनकी चर्चा विवेक सिंह ने की है | ये सिर्फ दुनिया से अलग गांव बसाने वाली जैसी बात नहीं है बल्कि उन गांवों में कई टोले बनाने जैसा है ,इसके बावजूद टुकडों टुकडों में बटें टोलों के लोग जो आज लिख रहे हैं वो हिंदुस्तान के इतिहास में अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावशाली अध्याय है ,यहाँ न सिर्फ बेहद साफगोई से निजता बांटी जा रही है ,बल्कि खुद को १०० फीसदी उडेला जा रहा है |मगर ये भी सच है कि इन रिश्तों ने समय के साथ साथ संगठित होकर दूसरे टोलों पर वार करने का शर्मनाक तरीका सीख लिया है,पहले समानांतर मीडिया में और हिंदी साहित्यकारों के बीच ही ऐसा होता था |

अगर आज किसी को निजता के सामने आने से डर है तो उसकी वजह भी सिर्फ यही प्रतिघात है |ऐसे में होता ये है कि बहुत कुछ ऐसा पढ़ा नहीं जा पाता जिनको पढना और न सिर्फ पढना बल्कि उन ब्लाग्स के कंटेंट में खुद को शामिल करना ,हमारी नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए थी |मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा अभी पिछले दिनों एक ब्लॉगर साथी की एक अश्लील पोस्टिंग पर को लेकर जबरदस्त अभियान छेड़ दिया गया ,हुआ यहाँ तक कि पहले काउंटर पोस्टिंग छपी गयी फिर फ़ोन कर करके उस ब्लॉगर के खिलाफ कमेन्ट मांगे गए ,मैं भी वैसी पोस्टिंग से दुखी हुआ था ,पर क्या ये ठीक नहीं होता कि उन्हें एक मेल करके उनसे पोस्टिंग हटा लेने को कहा जाता न कि तथाकथित तौर पर खुद को नारीवादी साबित करने के लिए उसे बहिष्कृत करने की साजिश की जाती |अगर चिटठा चर्चा में छपी विवेक सिंह की चर्चा निजी है तो उस ब्लोगर के खिलाफ छेडा गया अभियान उसकी निजता के साथ किया गया बलात्कार था |
मैं अपने एक ब्लोगर साथी को कभी भूल नहीं पाता जिसने मुझे मेरी पहली पोस्टिंग के वक़्त कहा था कि 'अगर तलवार न हो मुनासिब तो ब्लॉग निकालो '|मुझे याद है मेरा वो मुस्लिम दोस्त बटाला हाउस काण्ड के बाद निर्दोषों के खिलाफ की गयी कार्यवाही को लेकर अपने ब्लॉग पर की गयी पोस्टिंग का जिक्र करते वक़्त रो पड़ा था ,उसने कहा था कि हमने अपने ब्लॉग में कुछ भी निजी नहीं रखा ,मेरा सब कुछ सबके लिए है ,लेकिन शायद अब ये संभव न होसके ,ऐसे में अब ब्लॉग लिखना इमानदारी नहीं होगी ,आज उसने पिछले ६ महीने से एक भी पोस्टिंग नहीं की |मेरा मानना है कि अगर आप अपनी निजता के खोने के खतरे से इनते चिंतित हो तो घर बैठकर विभिन्न विषयों पर अपने मित्रों और रिश्तेदारों से चचाएँ कर लो ,ब्लॉग लिखने की आखिर क्या जरुरत ?वैसे ये भी बड़ा आश्चर्य है कि मित्र को मित्र ,पति को पति भाई को भाई और प्रेमी को प्रेमी मानना तमाम खतरे खडा कर देता है |अब ये तो मुनासिब नहीं है कि आप रिश्तों को बदल दोगे ,क्या फर्क पड़ जाता है अगर कविता वाचक्नवी की जगह रचना सिंह नारी को अपना ब्लाग कहती हैं या फिर रवि रतलामी ब्लागर्स के भीष्म पितामह हैं यहाँ समस्या सिर्फ निजता की नहीं है बल्कि ब्लागवाणी में खुद की टी.आर.पी और ब्लागरों के बीच मची घुड़दौड़ से भी जुडी हुई है |जिन में सभी खुद को और अपने टोलों को विजयी देखना चाह्ते हैं |आत्मप्रशंसा और अपने टोलों की प्रशंसा में अभिव्यक्ति ,अधूरी रह जाती है ,अगर मसला सिर्फ यहीं तक रहता तो ठीक था लेकिन उसके बाद शुरू होने वाला मल्लयुद्ध हमेशा निराशाजनक रहता है |

सच तो ये है सभी ब्लॉगर जानते हैं किसकी रीढ़ कितनी सीधी है ,जब कभी आप निजता को बचाने की कोशिश करते हैं तो वो कभी उदय प्रकाश ,कभी पिंक चड्ढी तो कभी आपकी टिप्पणियों के बहाने उघड जाती है और ऐसे किसी बहाने से निजता पर से पर्दा हटता रहता है |सभी अपनों और अपने जैसों को जानते हैं ,जो नहीं जानते हैं उन्हें जाने की कोशिश करनी चाहिए ,स्वतंत्रता और निजता दोनों साथ साथ नहीं रह सकते |और हाँ सुरेश जी इलेक्ट्रोनिक मीडिया के जिन नामचीन चेहरों के रिश्तों का अपने ब्लॉग में खुलासा किया है वो हिन्दू विरोधी हैं कि नहीं मैं ये नहीं जानता ,लेकिन हाँ उनके चेहरों से रिसती हुई पिब देख सकता हूँ ,जिस वक़्त महाराष्ट्र का सिरफिरा नेता हिंदी भाषियों को लाठी ,जूतों से पिटवाता है ठीक उस वक़्त राजदीप सरदेसाई मराठी भाषा में 'लोकमत 'चैनल शुरू कर देते हैं |खुद को निरपेक्ष और लिक से अलग दिखाने की निरंतर कोशिश में लगे प्रणब राय हिंदी ,हिन्दीभाषी पत्रकारों , हिंदी पढने वालों और हिंदी के कार्यक्रमों को देखने वालों पर अपनी अंग्रेजी सोच जबरन थोपकर और उन्हें दूसरे दर्जे पर रखकर ,अब तक की सबसे बड़ी सांस्कृतिक हत्या करते हैं |ये सब इसलिए है कि मीडिया का हिस्सा होकर भी इन लोगों ने खुद को भीड़ का हिस्सा नहीं बनाया |आज अगर वो हिस्सा होते तो शायद उनके रिश्तों से उनकी पहचान नहीं होती |ब्लॉगर साथियों ,हिंदी भाषियों की एक भारी भीड़ हमारे पीछे खड़ी है ,वो जरुरी नहीं कोई साहित्यकार ,कवि ,पत्रकार या लेखक हों ,उनमे वो लोग भी शामिल हैं ,जिनके होंठ अब तक सिले हुए थे और खुद को अभिव्यक्त न कर पाना उन्हें तिल तिल कर मार रहा था ,आइये उनको भी साथ लेकर चलें ,अपना सब कुछ बांटते हुए |जिनमे आपकी निजता भी शामिल है |

सोमवार, 3 अगस्त 2009

हत्याओं के बीच तुम्हारी हत्या


प्रमिला के पेट पर पुलिस की लाठियों की चोट अब एक बड़ा घाव बन गयी है ,डॉक्टर कहते हैं कि अब वो जीवन में कभी दुबारा माँ नहीं बन सकेगी,पुलिस ने प्रमिला के साथ साथ उसके पांच साल के बेटे के हाथों को भी पीट-पीट कर लहू लुहान कर दिया था |रामसकल अब सपने देखने से डरता है,उसे डर है कि अब अगर उसने सपने में भी वो वाकया देखा तो वो मर जायेगा लगभग ५ साल पहले अरबपति आदित्य बिडला के अतिथिगृह में आलोक सिंह नाम के उत्तर प्रदेश के एक नामचीन आई.पी,एस ने उसे छत से उल्टा लटकाकर पहले ४ घंटे तक बेरहमी से पीटा फिर उसके कनपटी पर रिवाल्वर लगाकर उससे फर्जी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवाए गए,सिर्फ इतना ही नहीं बन्दूक की नोक पर उन लाशों की शिनाख्त करवा दी गयी जिनकी हत्या का आरोप उसके सर पर मढा जाना था ,उसका कसूर सिर्फ और सिर्फ इतना था कि उसने पुलिस कि मुखबिरी करने से साफ़ इनकार कर दिया था | आप यकीं करें न करें छत्तीसगढ़,उत्तर प्रदेश ,बिहार और झारखण्ड समेत देश के सभी नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सली उन्मूलन की कवायद बेकसूरों की हत्याओं का जरिया बन गया है। माओवादियों द्वारा मुखबिरों की हत्या का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। वहीं मुखबिरी से इंकार करने वालों के खिलाफ पुलिसिया दमन चक्र सारी हदें तोड़ रहा है। उत्तर प्रदेश ,जहाँ नक्सलवाद कि पैदावार पिछले एक दशक के दौरान तेजी से बढ़ी है वहां स्थिति और भी गंभीर है शिवजी व उसके बेटे को नक्सलियों ने गोली मार दी तो वहीं नौगढ़ की गर्भवती फुलझड़ी व प्रमिला को पुलिस ने लाठियों से पीट बेदम कर दिया। हाल यह है कि नक्सलवाद के खात्मे के लिए हर वर्ष करोड़ों रूपए खर्च किए जाने के बावजूद नतीजा सिफर है।

  • नक्सली संगठनों की मुखबिरी के लिए ग्रामीणों पर पुलिस का आपराधिक दबाव


  • 4 साल में 14 हत्याएं और खर्च 140 करोड़ रूपए। यह है पूर्वी उ.प्र. में नक्सली उन्मूलन का लेखा-जोखा। अफसोस, ये हत्याएं हुई हैं जिन्हें कभी धमकी तो कभी पैसे का लालच देकर माओवादियों की मुखबिरी में इस्तेमाल किया गया। तथाकथित नक्सलियों की गिरफ्तारी का दावा कर खुद अपनी पीठ ठोक रही पुलिस, निरीह ग्रामीणों की बलि चढ़ा रही है।
    हाल यह है कि चन्दौली, सोनभद्र व मीरजापुर के घोर नक्सल प्रभा
    वित इलाकों में आदिवासी गिरिजनों के सिर पर हर वक्त मौत का साया मंडरा रहा है। अगर मुखबिरी से इंकार करते हैं तो पुलिस उन्हें नक्सली घोषित कर देती है और अगर नक्सलियों की मुखालफत की तो किसी भी वक्त उन्हें छह इंच छोटा कर दिया जाता है। इस मामले का अमानवीय पहलू यह है कि पुलिस द्वारा इस खतरनाक काम में न सिर्फ युवाओं का बल्कि छोटे बच्चों व महिलाओं का भी इस्तेमाल किया जा रहा है।

    बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि पूर्व में उत्तर प्रदेश पुलिस ने मुखबिरों की बकायदा मोबाइल गैंग बना रखी थी जिसमें 100 से अधिक लोग शामिल थे। उन निरक्षर आदि
    वासियों को जासूसी के लिए मोबाइल देने का कितना फायदा हुआ यह तो पता नही, पर उनमें से कुछ को तो नक्सलियों ने बेदर्दी से जरूर मार डाला, वहीं ज्यादातर ने दहशत में खुद ही जिला बदर कर लिया। पूर्वी उ.प्र. में नक्सली उन्मूलन के नाम पर बेगुनाहों की बलि चढ़ाई जा रही है। शिवजी सिंह, भोला नरेश अगरिया, राधेश्याम, देवेन्द्र, लल्लन कुशवाहा इत्यादि वो नाम है जिन्हें मुखबिरी के शक में नक्सलियों ने बेरहमी से मार डाला।

    सोनभद्र के पन्नूगंज स्थित केतारगांव के ग्रामीण बताते हैं कि पुलिस ने हमारे गांव के शिवजी को जबरन मुखबिर बनाया था। जयराम बेहद डरा हुआ था आखिर वही हुआ जि
    सका भय था। संजय कोल के गिरोह ने न सिर्फ शिवजी बल्कि उसके बेटे का भी बेरहमी से कत्ल कर दिया। गांव वाले कहते हैं कि अब फिर पुलिस वाले हमसे मुखबिरी करने को कह रहे हैं। शाम ढलने के बाद कोई भी पुलिस टीम जंगल में नहीं रहती लेकिन हमें माओवादियों की टोह लेने जंगल में ढकेल दिया जाता है। चिचलिया के राम बदन कहते हैं कि माओवादियों ने पूरे कैमूर के इलाके में मोबाइल रखने पर प्रतिबंध लगा दिया है। परन्तु पुलिस हम पर मोबाइल देकर जासूसी करने का दबाव डाल रही है, साहब पार्टी वाले हमें मार डालेंगे।’

    मुखबिरी के इस खेल में पुलिस का अमानवीय रवैया सारी हदें तोड़ रहा है, जो भी ग्रामीण सहयोग से इंकार करता है उसे या तो झूठे मुकदमे में फंसा दिया जाता है या फिर उसका शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न प्रारम्भ हो जाता है। नौगढ़ की लक्ष्मी बताती है कि पुलिस द्वारा हमसे लगातार नक्सलियों के लोकेशन के बारे में जानकारी मांगी जा रही थी। जब हमने इनका किया तो उन्होंने न सिर्फ लाठी से दौड़ा-दौड़ा कर पीटा बल्कि मेरे बेटे को भी नक्सली बताकर गिरफ्तार कर लिया। वो कहती है, 'मैं कहां से पता लगाऊं नक्सलियों का? अब ईश्वर भी हमारी नहीं सुनता।’नौगढ़ की ही विमला की कहानी और भी दिल दहला देने वाली है वो बताती है कि मुखबिरी से इंकार करने पर मेरी गर्दन और बाल पकड़ कर पुलिस के जवान मुझे घर से बाहर निकाल लाए। मुझे तब तक पीटा गया जब तक लाठी टूट नहीं गई। विमला की साथी फुलझड़ी जो कि गर्भवती थी के पेट पर लाठियां बरसाई गईं वहीं उसे बचाने पहुंचे उसके पांच साल के बेटे के हाथों को लहुलूहान कर दिया गया। कसूर सिर्फ इतना कि इन महिलाओं ने मुखबिरी से इनकार कर दिया था।