शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

खामोश !अदालत जारी है


अगर आपको सच कहने की आदत है तो फिलहाल अपने होंठ सी लीजिये , राजसत्ता के दांव-पेंचों में उलझ कर कराह रही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस बार कानून का हथौडा पड़ा है | देश की सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ब्लॉग की सामग्री को लेकर किसी की खिलाफ भी कानूनी कार्यवाही की जा सकती है |न्यायालय का ये आदेश केरल के युवा अजित डी द्वारा शिवसेना के खिलाफ बनायीं गयी एक कम्युनिटी और उसमे की गयी टिप्पणियों के अनुक्रम में दिया गया है ,अजित ने सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र न्यायालय द्वारा लगातार भेजे जा रहे सम्मन के खिलाफ याचिका दायर की थी |उसके खिलाफ ठाणे में सेक्शन ५०६ एवं ५०६ -अ के तहत मुकदमा पंजीकृत किया गया है ,आरोप ये है कि उसने अपनी पोस्टिंग में ,शिवसेना पर धर्म की आड़ में देश को विभाजित करने का आरोप लगाया था |न्यायालय के इस आदेश के उपरांत उन लोगों का मार्ग प्रशस्त हो गया है जो ब्लोगिंग की ताक़तसे खौफजदा थे और उसे शिकंजे में कसने की हर सम्भव कोशिश कर रहे थे | यह पोस्ट लिखने की वजह सिर्फ ब्लोगिंग पर अंकुश लगाने की कवायद नहीं है बल्कि वह कानून भी है जिसकी आलोचना तो दूर विवेचना करने का भी साहस नहीं किया जाता|,हम कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का न सिर्फ पोस्टमार्टम करते हैं बल्कि न्यायपालिका के द्वारा इन दोनों अंगो पर लगायी गयी फटकारों का भी गुणगान करते हैं ,लेकिन हद तो तब हो जाती है जब अनवरत असहमति और संविधान संशोधन की पुरजोर वकालत करने के बावजूद हम कानून के कड़वे और अव्यवहारिक परिणामों का विश्लेषण भी नहीं कर पाते |
ब्लोगिंग पर अंकुश लगाने की कोई भी कोशिश न सिर्फ इन्टरनेट की माध्यम से किये जा रहे विचारों की साझेदारी पर अतिक्रमण है ,बल्कि ये आम आदमी की बौद्धिकता पर अपनी सार्वभौमिकता साबित करने की कोशिश है | एक ऐसे देश में जहाँ मुक़दमे किसी परजीवी की तरह आम आदमी से चिपक जाते हैं एक ऐसे देश में जहाँ अदालतों की चौखट पर ही तमाम जिंदगियां दम तोड़ देती हैं एक ऐसे देश में जहाँ न्याय पाना उतना ही कठिन है जितना मृत्यु शय्या पर दो साँसे पाना ,एक ऐसे देश में जहाँ आतंकवाद,भ्रष्टाचार और राजनैतिक मूल्यों का अवमूल्यन चरम सीमा पर है |उस देश में व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को बंधक बनाने की कवायद किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र में वैचारिक स्वतंत्रता पर किया गया अब तक का सबसे घोर अतिक्रमण साबित होगा ,जिसे कानून के उन गणितीय समीकरणों जैसे तर्कों से सही नहीं ठहराया जा सकता जिनमे सब कुछ पूर्वनिर्धारित होता है | |ये पोस्टिंग लिखते वक़्त मुझे मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की ६ फ़रवरी को एक जनहित याचिका कि सुनवाई के दौरान की गयी वो टिप्पणी याद आ रही है जिसमे उन्होंने स्वीकार किया था कि देश की जनता का एक बड़ा वर्ग आज भी न्याय पाने के लिए अपनी आवाज नहीं उठा पाता ,और न ही खुद को अभिव्यक्त कर पाता है |उन्होंने इस दौरान देश में १०,००० अतिरिक्त न्यायालयों की स्थापना की आवश्यकता जताई थी ,आश्चर्य है कि एक तरफ हमारा न्यायालय अभिव्यक्ति की पराधीनता को लेकर बेहद चिंतित नजर आता है दूसरी तरफ मौजूदा कानून उसे कैदखाने में ड़ाल रहे हैं |हमें न्यायालय के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में तमाम भविष्यगत चिंताएँ हैं साथ ही उस मीडिया के लिए अफ़सोस है जो कि इलेक्ट्रानिक्स चैनल्स पर लगाम कसने की राजनैतिक कोशिशों के लिए तो काफी हो हल्ला मचाता है ,लेकिन ब्लागिंग को लेकर उसकी जुबान नहीं खुलती |इसकी वजह साफ़ है मीडिया भी जानती है की आने वाले कल में ब्लोगिंग का अस्त्र उसकी आर्थिक और उपनिवेशवादी सोच पर भारी पड़ने जा रहा है |

जहाँ तक ब्लागिंग कि सामग्री का प्रश्न है हम ये दावे के साथ कह सकते हैं कि सीमित संख्याओं के बावजूद हिन्दुस्तानी ब्लॉगर सर्वश्रेस्ठ कर रहे हैं ,उन तमाम मुद्दों पर खुली चर्चाएँ हो रही हैं जो कि समानांतर मीडिया के लिए वर्जित रहे हैं |लेकिन ये सच है कि हमने न्यायालय के किसी आदेश कि प्रतीक्षा किये बिना खुद के लिए सीमायें बना ली हैं विचारों के आत्मनियंत्रण का इससे अच्छा उदहारण बहुत कम देखने को मिलेगा |,यहाँ दिल्ली के एक बड़े मुस्लिम अखबार नवीस कि चर्चा करना जरुरी है जो कि मेरा मित्र भी है ,बटाला हाउस के इन्कोउन्टर के बाद वहीँ के रहने वाले मेरे मित्र ने इस पूरे इनकाउन्टर की एक तफ्तीश रिपोर्ट अपने ब्लॉग पर डालने की सोची ,लेकिन उसने नहीं डाला ,जानते हैं क्यूँ ?क्यूंकि उसे डर था कि पोस्टिंग आने के बाद पुलिस उसके खिलाफ कार्यवाही कर देगी |वो भी सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो मुसलमान है |अभी कुछ दिनों पहले मशहूर ब्लॉगर और गासिप अड्डा
डॉट कॉम के सुशील सिंह के खिलाफ इसलिए मुकदमा दर्ज कर दिया गया क्यूंकि उनहोंने अपनी पोस्टिंग में हिन्दुस्तान अखबार के लखनऊ संस्करण के उस अंक की चर्चा कर दी थी जिसमे खुद अखबार के मालिक बिरला जी के निधन के उपरांत उनकी गलत तस्वीर प्रकाशित कर दी गयी थी |अब वो दिन दूर नहीं जब आपकी कवितायेँ ,आपकी टिप्पणियां ,आपके व्यक्तिगत विचार आपको जेल की सलाखों में कस देंगे |

ब्लागिंग को हम व्यक्तिगत कुंठाओं के परिमार्जन का जरिया कह सकते हैं ,निश्चित तौर पर इसके माध्यम से न हम खुद को अभिव्यक्त करते हैं बल्कि खुद को पूरी तरह से उडेल देते हैं ,शायद इसलिए ये अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम बनते जा रहा है ,हाँ ये जरुर है कि हर इंसान कि तरह अभिव्यक्ति और उसको प्रर्दशित करने के तरीके भी अलग अलग होते हैं ,ऐसे में अगर न्यायालय ब्लागरों से अमृत वर्षा की उम्मीद करता है तो नहीं करना चाहिए |हाँ ये जरुर है कि अभिव्यक्ति ,निजी तौर पर किसी को आह़त करने वाली नहीं होनी चाहिए|,हम इससे इनकार भी नहीं करते कि ब्लोग्स के माध्यम से न सिर्फ भड़ास निकली जा रही है इसे दूसरो के मान-मर्दन के अस्त्र के रूप में भी इस्तेमाल किया जा रहा है ,लेकिन ये बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है ,और इसको नियंत्रित करने के लिए कानून का इस्तेमाल करने के बजाय,परम्पराओं का निर्माण करना ज्यादा जरुरी है |दुनिया के सबसे बड़े हिंदी ब्लॉग भड़ास को चला रहे मेरे मित्र यशवंत सिंह को इन्ही परम्पराओं को स्थापित करने के लिए तमाम झंझावातों से जूझना पड़ रहा है ,उनकी समस्या तब शुरू हुई जब उनहोंने अपने ब्लॉग पर खुलेआम गाली गलौज और अर्थं टिप्पणियों को रोकने के लिए कुछ लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया अब वही लोग अलग -अलग फोरम से यशवंत के खिलाफ अभियान चला रहे हैं|


इस पोस्ट को लिखने की वजह न्यायालय की अवमानना करना कदापि नहीं है ,हम सिर्फ ये कहना चाहते हैं की हमें कहने दीजिये ,हमारे होठों को मत सिलिये हमारी अँगुलियों में जुम्बिश होने दीजिये ,हमारे पास सिर्फ शब्द हैं उन शब्दों को हथियार बनाकर लड़ाई करना हमेशा कठिन होता है ,अगर हम चुप रहे तो हमारे लोकतान्त्रिक अधिकारों की आत्मा का तिरस्कार होगा |हमें चुप करना उनके हाथों हमारी वैचारिक हत्या कराने की वजह बनेगा ,जो हर पल संघर्ष कर रही जनता की चुप्पी की बदौलत ही उसके सीने पर चढ़कर राज कर रहे हैं |हमें चुप करना हमारी आदमियत को ख़त्म करने जैसा होगा |हमने कभी लिखा था-
कौन पूछेगा हवाओं से सन्नाटों का सबब ,शहर तो यूँही हर रोज मरा करते हैं
कभी दीवारों में कान लगाकर तो सुनो ,कलम के हाँथ भी स्याही से डरा करते हैं
अगर ब्लॉग पर अंकुश लगाने की कोशिश की गयी तो इस बार शहर हमेशा के लिए मर जायेंगे ,और निसंदेह ये एक लोकतान्त्रिक देश में किया गया हालोकोस्ट होगा |

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

एक औरत की मौत!


'अगर यह मृत्यु है तो मुझे इसके बारे में अब नही सोचना है ',ये शब्द प्रख्यात अंग्रेजी साहित्यकार लिटन की जुबान से निकले आखिरी शब्द थे ,लिटन के ये शब्द मुझे कभी नही भूलते आपने कभी अपनी मौत के बारे में सोचा है ?कैसी होनी चाहिए मौत ?क्या मृत्यु नितांत व्यक्तिगत चीज है ?क्या इसमे रंग भर के इसे उत्सव की चीज नही बनाया जा सकता ?क्या मौत भी मनोरंजन का विषय बन सकती है? अगर आपको मेरा ये सवाल परेशान कर रहा है तो आप जेड़ से मिलें .बिग ब्रदर नामक रियलिटी शो,और उसमे की गई अपनी रंगभेदी टिप्पणियों को लेकर चर्चित गुडी का मैं कभी फैन नही रहा ,हाँ शिल्पा पर उसकी टिप्पणियों से मैं आम हिन्दुस्तानियों की तरह आहत जरुर हुआ .लेकिन उसकी एक बात ने मुझे मजबूर कर दिया की मैं उसे विश्व इतिहास के महानतम लोगों की सूची में शामिल करूँ .सर्वाइकल कैंसर से दिन रात जूझ रही जेड़ की जिजीविषा को मेरा प्रणाम है .अब पूरी दुनिया उसकी मौत का अनूठा रियलिटी शो देखेगी ,जेड़ ने अपनी मृत्यु के लाइव टेलीकास्ट के लिए LIVING TV को मीडिया राईट दे रखा हैं,LIVING TV की चीफ क्लौडिया कहती है 'उसने ऐसा अपने बच्चों के लिए किया है वो इससे मिलने वाले पैसे का अपने बच्चों के लिए सुरक्षित रखना चाहती है ,साथ ही दुनिया को ये दिखाना चाहती है की कैंसर से कैसे लड़ा जाए 'जेड की जिन्दादिली तो देखिये ,कैंसर क्लीनिक से बाहर निकलने के बाद उसने अपने प्रेमी जैक ट्वीड के साथ शादी करने का ऐलान किया और अपने छोटे बच्चों के साथ खरीददारी करने निकल गई जेड़ के producers को इस बात की चिंता है की वो अपने हैल्थ पर ध्यान देने केबजाय अपनी शूटिंग पर ज्यादा ध्यान दे रही है.

जेड एक महिला है .वो उतनी ही औरत है जितनी कोई आम हिन्दुस्तानी औरत वो उतना ही बिलबिला कर रोती है जितना कोई और औरत,वो उतना ही हंसती है जितनी कोई जिंदगी से लबरेज नवयोवना हंसती है ,वो उतने ही प्यार से अपने बच्चों का माथा सहलाती है जितना हमारी माएं ,लेकिन वो मौत से उतना नही डरती जितना एक आम पुरूष डरता है ,भौतिक सुख सुविधाओं की बदौलत १०० फीसदी जीने का दावा करने वाले हम सब मौत की दस्तक सुनते ही अक्सर लाचार हो जाते हैं या फ़िर वैचारिक कोमा में चले जाते हैं .नतीजा ये होता है न तो हम बचे हुए दिनों को जी पाते हैं न होठों पर मुस्कान लिए मर पाते हैं ,मानवीय जीवन का सबसे बड़ा कौतहुल मृत्यु ,और उस मृत्यु को मनोरंजन का हिस्सा बनाती जेड ऐसे में हमें बहुत कुछ सिखा जाती है ,जेड़ की मित्र मेक्स कहती हैं की वो ख़ुद को व्यस्त रख कर मृत्यु की सत्यता से पैदा हुए आघात और दर्द को अनवरत झुटला रही है ,और वो इसमे सफल हुई है .


जेड की मौत सिर्फ़ रियलिटी शो का हिस्सा नही होगी ,वो हाइपररियलिटी मौत होगी जो हमें सिखलाएगी की रियलिटी और फंतासी में क्या अन्तर होता है न उसमे बिग बॉस की तरह बनाया गया घर होगा और नही कैमरे को देखकर एवं पब्लिसिटी पाने के लिए बोले जाने वाले संवाद ,वहां एक सच्ची मौत होगी ,क्या करेंगे आप और हम ?उसकी मौत को चाय के प्याले के साथ आँख आँख गडाये देखेंगे या आँख मूँद लेंगे ?अगर आप इस सवाल का जवाब गुडी से लेंगे तो वो कहेगी ,नही आइये आप देखिये ,मेरे बच्चों के लिए देखिये ,उन लोगों के लिए देखिये जिनकी मौत बेहद कष्टकर होती है और साथ में अपने लिए देखिये .मुझे ये पोस्ट लिखते वक्त जिम कैर्री की अवार्ड प्राप्त फ़िल्म 'THE TRUMAN SHOW' का अन्तिम दृश्य याद आ रहा है ,जिसमे कैरी अपने लाखों दर्शकों के सामने कहता है कि'मान लीजिये मैं आपको दुबारा न देख पाऊं तो इसलिए अभी से आप सबको सुप्रभात,शुभरात्रि ' शायद जेड भी यही कह रही है .


अपने एक हालिया साक्षात्कार में गुडी ने कहा कि 'मैंने अपनी सारी युवावस्था अपनी जिंदगी के बारे में सोचते हुए बिता दी अब अन्तर सिर्फ़ इतना है कि में अपनी मौत के बारे में सोच रही हूँ मैंने अपनी सारी जिंदगी कैमरे के सामने बीता दी और मरना भी कैमरे के सामने तय कर लिया है ,में जानती हूँ कि कुछ लोगों को मेरे निर्णय से नाराजगी होगी लेकिन मुझे इसकी परवाह नही है '!आज इस वक्त जब आप मेरी ये पोस्टिंग पढ़ रहे होंगे living tv पर 'jade's progress' नामक उस रियलिटी शो का सीधा प्रसारण हो रहा होगा जिसमे ये दिखाया जाएगा कि जेड का प्रेमी वापस उसके पास लौट आया है ,और कैमरे के सामने जेड कीमोथेरेपी कराते हुए ख़ुद को और मजबूत बनाने की कोशिश कर रही है .आपको शायद ये जानकर आश्चर्य होगा कि उसके प्रेमी जैक ट्वीड ने उसके सामने उस वक्त विवाह का प्रस्ताव रखा था जब उसे पता चला गुडी का कैंसर लाइलाज है.


बिग बॉस से जाते वक्त गुडी कि आंखों से बहते हुए आंसू हममे से बहुतों को याद होंगे ,उस वक्त भी उसकी आंखों में कैंसर का भय कम अपने हिन्दुस्तानी मित्रों से बिछड़ जाने का दर्द अधिक नजर आया था ,वो शिल्पा के प्रति अपनी टिप्पणियोंका पश्चाताप करने आई थी ,और यहाँ से ढेर सारा प्यार लेकर वापस लौट गई .डाक्टरों ने साफ़ तौर पर कहा है की गुडी कुछ ही महीनो की मेहमान है हो सकता है उसके बच्चों और उसके प्रशंसकों की दुआएं फलीभूत हो,ये भी हो सकता है हम उसे खो दे अगर उसकी मौत होती है तो भी एक बेहद शक्तिशाली ,और आत्मविश्वास से भरी असाधारण महिला के रूप में वो हमें हमेशा याद रहेगी , उसकी मौत जिंदगी का फलसफा बयां करने वाला अब तक का सबसे विश्वस्त दस्तावेज होगा ,सलाम गुडी ......

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

प्यार, मोहब्बत और कोका कोला के बीच


मानवीय संबंधों की कल्पना प्यार के बगैर नही की जा सकती ,आज के दौर में विकास की कीमत सिर्फ़ प्रकृति ही नही ,मानवीय रिश्ते भी चुका रहे हैं स्त्री पुरूष संबंधों के सन्दर्भ में माना जा रहा है की जीवन की सफलता (?)में प्यार -व्यार की दरकार ज्यादा नही ये क्या कम आश्चर्यजनक है की वैलेंटाइन डे में प्यार को ढूंढने और भजाने वाले तबके और साथ में समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने सेक्स को निजी अधिकार घोषित कर दिया है ,वे इसे मनचाहे ढंग से भोगने के हिमायती हैं ,यहाँ तक कि देह कि सौदेबाजी भी वैश्वीकरण का पर्याय बन गई है यही हालात रहे तो सेक्स में भी प्यार कि उष्णता नही बचेगी ,प्रेम तब केवल वैलेंटाइन डे जैसे निर्जीव उत्सवों में ,फाइलों और किताबों में मिलेगा,विलुप्त वन्य जीव प्राणियों के भांति ,चाँद और फिजा के भांति ऐसे में देश में प्रेमी युगलों का ,संवेदनाओं का और मानवता की हत्याओं का दौर अन्दर ही अन्दर चलता रहेगा ,और टूटन बदस्तूर जारी रहेगी ,चाहे हम प्रेम में कितना भी आधुनिक होने का दावा क्यूँ न करें आज हम उनकी बात करेंगे जिसने सभ्यता का विकास ,संस्कृति और परम्पराओं को रौंद कर नही किया ,उसने प्रकृति के अनुकूल अपनी लघुता और असहायता को विनम्रता से स्वीकार करते हुए प्रेम करना जारी रखा जी हाँ हम बात कर रहे देश के आदिवासी समाज कीयदि आज की शहरी सभ्यता के पास सच्चे प्यार की पूंजी दस फीसदी शेष है तो वनवासी सभ्यता के पास आज भी प्यार की पूंजी ५० फीसदी से ज्यादा है प्रेम के अलावा उनके पास कुछ भी न तो स्थायी है और न ही सुरक्षित सुख सुविधा नही है तो क्या हुआ प्यार तो है अंग्रेजी के कुछ शब्द जैसे लाइव इन रिलेशनशिप हम अपने खुलेपन के लिए प्रयोग करते हैं लेकिन खुलापन जब तक संवेदनाओं पर आधारित हो तब तक गनीमत हैआदिवासी सभ्यता में खुलापन पूरी संवेदना के साथ मौजूद है ,प्रेम की अपनी कोई भाषा नही होती यदि होती है तो वे मीठी बोली ही होती है वनवासी समाज में बोली का असर भी गोली की तरह होता है वे प्रेम में सब तकलीफ उठा सकते हैं कठोर बातें बर्दाश्त कर पाते नही भारत के गोंड वनवासी युवक से उसकी प्रेमिका कहती है - कच्चे सूत की लई लगी है धका लगे टूट जाई रे बालकपन से प्रीत जुटी है बात कहे टूटी जाई रे कच्चे धागे का बंधन जिस तरह खींचते लगते ही टूट जाता है उसी तरह बचपन की प्रीत एक ही कठोर बात से टूटकर बिखर जायेगी वनवासी समाज में जीवन का मतलब है 'उत्सव;उनके पास पहाड़ है ,पेड़ है ,पशु प्राणी हैं ऊँची नीची ,पथरीली ,कंकरीली असिंजित जमीं है प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और अनुकूल प्रकृति की ,कामना इसलिए की जाती है क्यूंकि हम आपस में प्यार कर सकें संपूर्ण झारखण्ड,छतीसगढ़,सोनभद्र ,मध्यप्रदेश के वनांचल में वनवासी या तो आपनी के लिए तड़पते हैं या प्यार के लिए प्रेम को वहां सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है ,क्यूंकि वह मात्र दैहिक स्वतंत्रता नही,न तो किसी तिथि को आयोजित भौड़ा प्रदर्शन है एक करमा गीत में एक युवक कहता है तोर चेहरा मैं ओ ,हाय हो रानी तोर चेहरा आर मोरो दिल बस गे रानी तोर चेहरा प्रिये,मेरा दिल तुम्हारी सूरत में बस गया है ,तुमने मुझे बुलाया ,मैं निश्चित स्थान पर पहुँच तुम्हारी राह जोतता रहातुम अपने साथी के साथ पलंग में झूलती रही ,मैं घर के पीछे खडा रहा ,आओ चलो घास के छोटे छोटे गट्ठे काट लेंगे और जंगल में झोपडी बनाकर अपनी प्यास बुझाएंगे आदिवासी समाज में 'घोटुल' की परम्परा टूट गई जहाँ युवक युवतियां प्रेम विवाह कर लेते थे ,वनवासी समाज ने तिलक ,दहेज़ तलाक को कभी मान्यता नही दी,वनवासी परिवारों में आज भी स्त्री ही केंद्रीय शक्ति है ,ज्यादातर काम भी वही करती है ,पत्थर के साथ पत्थर ,मिटटी के साथ मिटटी बन जाती है ,फ़िर भी उसके मन में प्रेम का सोता झिरता रहता है वनवासी समाज में प्यार का मतलब है समर्पण ,तनिक सा स्वार्थ रिश्ते को तोड़ देगा अगर पहाड़ से गिरोगे तो बचोगे नही ,टूटे रिश्ते और पत्ते कभी नही जुड़ते ,विपरीत परिस्थितियों में भी प्रेम की ताक़त से जीने की कला जीवन संघर्ष की प्रेरणा,दुःख सुख को बाटने की मानवीय तकनीक हमें वनवासी ही सिखाते हैं वे हमें ये भी सिखाते हैं की वैलेंटाइन डे जैसे उत्सव हमारे स्वभाव,संस्कार और जीवन के अनुकूल नही हो सकते प्यार ,मोहब्बत कोकाकोला नही है की प्यास बुझाओ ,बोत्तल फेंको और चल दो ,ये पानी की तरह है ,जीवनदायक है निर्मल है,शीतल है ,हाँ और शाश्वत है

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

सेक्स, बाजार और समाचार

हिन्दी समाचार पत्रिका आउटलुक का ताजा अंक बिक्री के लिए उपलब्ध है |इस अंक में ''भाग दौड़ में सेक्स 'नामक ' कवर पेज स्टोरी के रूप में आउट लुक एवं मूड्स का शहरी लोगों के बीच किया गया यौन सर्वेक्षण प्रकाशित किया गया है |आम तौर पर समाज के एलीट क्लास और ड्राइंग रूम ट्रेन के रिज़र्वेशन कम्पार्टमेंट्स में पढ़ी जाने वाली इंडिया टुडे एवं आउट लुक सरीखी पत्रिकाओं के लिए ये सर्वक्षण नया नही है ,पिछले एक दशक से इन पत्रिकाओं ने अलग अलग तरह से लगभग सर्वे कराये है |आउट लुक के इस सर्वे में ख़बर कितनी है इसका अंदाजा तो आप पत्रिका को पढने के बाद ही लगा सकेंगे ,लेकिन बात पुरी तरह से साफ़ है की अस्तित्व के संकट से जूझ रही ये पत्रिकाएं अब कुछ भी परोसने में गुरेज नही करेंगी |एक ऐसे देश में जहाँ पबों में नवयोवनाओं के प्रवेश को लेकर राष्ट्रीय बहस शुरू हो जाती है ,एक ऐसे देश में जहाँ आज भी बेटा बाप और आस पड़ोस के लोगों से छुपकर सिगरेट पिता है ,एक ऐसे देश में जहाँ तमाम कोशिशों के बावजूद एक व्यस्क कंडोम खरीदने में संकोच करता है ,एक ऐसे देश जहाँ घर की वधु अपने पति के कमरे में जाने से पहले सब बड़ों के सोने का इन्तजार करती है ,सेक्स को विषयवस्तु बनाकर उत्तेजक ढंग से प्रस्तुत करना खुले बाजार में ब्लू फ़िल्म बेचने जैसा है |ये उन यौन वर्जनाओं को तोड़ने की शर्मनाक कोशिश है जिन वर्जनाओं से हमारी संस्कृति और संस्कार जीवित हैं |सेक्स को निजी बातचीत में शामिल किया जा सकता है उसकी शिक्षा हर हाल में जरुरी है ,लेकीन क्या किसी व्यक्ति या समाज की सेक्स जरूरतों ,उसके तरीकों का खुलेआम विश्लेषण किया जाना चाहिए ?शायद नही | अपने ब्लॉग पर उक्त सर्वक्षण की विषय वस्तु का जिक्र करना मेरे लिए सम्भव नही होगा ,यकीन मानिये आप भी इसे अपने घर में अपनीटेबल पर खुलेआम रखना पसंद नही करेंगे |
छोटे परदे की ब्रेकिंग न्यूज़ एवं समाचार पत्रों के नए तेवरों के बीच मंदी और पठनीयता के संकट से से जूझ रही लेकिन संख्या में फ़ैल रही पत्रिकाओं की अपनी अनोखी दुनिया है ,हाल के दिनों में जो विषय वस्तु टेलीविजन और अखबारों में वर्जित मानी जाती थी ,पत्रिकाओं ने उन्हें प्रमुखता से प्रकाशित किया ,इंडिया टुडे और आउटलुक की शुरु से ही अपनी शैली रही है,इन पत्रिकाओं ने आम आदमी को विषय वस्तु बनने से हमेशा गुरेज किया ,चाहे वो खबरे हों चाहे फीचर्स ,कभी देश के २० टॉप धनवान कवर स्टोरी बने ,तो कभी डिस्को में नशे में झूमती युवा पीढी की कहानी छापी गई |आउटलुक का ताजा अंक भी उसी परम्परा का हिस्सा तो है ही आम आदमी की अभिव्यक्ति को खामोश कर उस पर वैचारिक उपभोग से अर्जित की गई बौद्धिक राजशाही को थोपने की शर्मनाक कोशिश भी है |कहने का मतलब ये की हम तुम्हे वही पढायेंगे जो तुम पढ़ना चाहते हो ,अगर तुम नही पढ़ते हो तो इसका मतलब तुम भी उन्ही लोगों के बीच के हो ,जिनके लिए कोई कुछ भी नही कहेगा |ऐसा नही है कि इन सबके लिए सम्पादन जिम्मेदार है ,इस तरह कि कहानियाँ मुख्य रूप से धन कमाने कि नीयत से की जाती है ,और सब कुछ प्रबंधन ही निर्धारित करता है |भास्कर ग्रुप ने इस कवर स्टोरी के लिए कंडोम बनने वाली मूड कंपनी से बतौर विज्ञापन निश्चित तौर पर लाखों रुपए कमाए होंगे |
अब आपको एक और मजेदार बात बताएं आउटलुक ने साहित्यिक सन्दर्भों में सेक्स के वर्णन को लेकर भी इसी अंक में मृदुला गर्ग का एक साक्षात्कार प्रकाशित किया गया है जिसका जिक्र करना यहाँ आवश्यक है वो कहती हैं की' हमारी लोक कथाओं और लोक गीतों में उन्मुक्त यौन् संबंधों का भरपूर वर्णन मिलता है ,लेकिन ब्रितानी शासन में नैतिकता बोध की वजह से सेक्स के प्रति जो निषेध भाव था,वह हम पर हावी हो गया'| अब आप ही निर्णय करिए की अंग्रजियत की वजह से निषेध पैदा हुआ या ख़त्म हुआ ?,मृदुला ख़ुद कहती हैं कि आज हिन्दी साहित्य में सेक्स को नैतिकता से अलग करके देखा जा रहा है | जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी ,साहित्य में सेक्स को हर जगह से परिमार्जित और ,परिष्कृत बना कर प्रस्तुत किया गया ,ये कुछ ऐसा था की इस पर कभी चर्चा करने की जरुरत नही महसूस की गई |लेकिन ये जरुर है की मृदुला गर्ग के छपने के बाद इस विषय पर साहित्यकारों की महफिलों में हड़कंप जरुर मच गया है |मेरे एक मित्र कहते हैं कि आउटलुक ने मृदुला गर्ग के मध्यम से अपने पूरे परिशिष्ट के लिए अनापति प्रमाणपत्र लेने कि कोशिश की है | इस विशेषांक में छपी एक और रिपोर्ट का जिक्र करना जरुरी है ,'नपुंसकों कि राजधानी है भारत '!जी हाँ यही शीर्षक है ENDROLOGY SPECIALIST डॉ सुधाकर कृष्णमूर्ति के साक्षात्कार पर आधारित इस रिपोर्ट का |इस रिपोर्ट में प्रकाशित तथ्यों का वैज्ञानिक आधार क्या है ?फिलहाल इसका कोई जिक्र नही है |
कुल मिलकर ये कहा जा सकता है कि अगर इंडिया टुडे ने बढे हुए दामों में एक के साथ पत्रिकाएं देकर पाठकों को पकड़ना चाहा ,तो आउटलुक ने सेक्स को अस्त्र की तरह इस्तेमाल कर बाजार में अपनी बादशाहत साबित करने की कोशिश की है | किसी भी प्रकाशन समूह का अपना चरित्र होता है वो वही पढ़ते हैं ,वही छापते है जो उनकी मनमर्जी के अनुरूप हो,|इसी पत्रिका के अंग्रेजी संस्करण में 'कर्नाटक का तालिबानीकरण' शीर्षक से कवर पेज स्टोरी छपी गई है ,सारी भडास मंगलोर की घटना को लेकर | मंगलौर में पबों से निकल रही लड़कियों को सरेआम पीटा जाना पुरी तरह से अनुचित था ,लेकिन क्या ये सच नही है कि इन पबों और डिस्को कि वजह से पैदा हो रही अपसंस्कृति ,और स्वक्षन्द्ता ही शहरों मैं बढ़ रहे अपराध कि मूल वजह है ,लेकिन इस अपसंस्कृति का विरोध करना सम्भव कैसे होगा ?जब आपको उन्ही कि कहानी छापनी है उन्ही को विषयवस्तु बनाना है,उन्ही को पढाना है |यौन् रुझानों पर इस तरह के सर्वेक्षण किए जाने के मूल में भी यही है |ये सर्वेक्षण भी उन्ही लोगों के लिए है ,जिनके लिए सेक्स भी केवल मनोरंजन है ,और उस पर बात करना एवं उसको बाजार की चीज बना देना ख़ुद को प्रगतिशील साबित करने का सिम्बल |