बुधवार, 23 जून 2010
अभिशप्त एक और भोपाल! एंडरसन भागा नहीं है !!!!
ये देश में हर जगह पैदा हो रहे भोपाल का किस्सा है ,ये हिंदुस्तान के स्विट्जरलेंड की तबाही का किस्सा है ,ये रिहंद बाँध में अपने महल के साथ डूब गयी रानी रूपमती का किस्सा है ये मंजरी के डोले का किस्सा है और ये लोरिक की बलशाली भुजाओं को आज तक महसूस कर रहे चट्टानों का किस्सा है ,ये किस्सा इसलिए भी है क्यूंकि हम एक ऐसे देश में जी रहे हैं जहाँ मौजूद मीडिया को ये मुगालता है कि वो देश,समय,काल को बदलने का दमखम रखता है |हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की ! हम इसे देश की उर्जा राजधानी भी कहते हैं ये क्षेत्र देश का सबसे बड़ा एनर्जी पार्क है सोनभद्र सिंगरौली पट्टी के लगभग ४० वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग १८००० मेगावाट क्षमता के आधा दर्जन बिजलीघर मौजूद हैं जो देश के एक बड़े हिस्से को बिजली मुहैया करते हैं ,अगले पांच वर्षों में यहाँ रिलायंस और एस्सार समेत निजी व् सार्वजानिक कंपनियों के लगभग २० हजार मेगावाट के अतिरिक्त बिजलीघर लगाये जायेंगे ,बिरला जी का अल्युमिनियम और कार्बन ,जेपी का सीमेंट और कनोडिया का रसायन कारखाना यहाँ पहले से मौजूद है ,यह इलाका स्टोन माइनिंग के लिए भी पूरे देश में मशहूर है ,यहाँ पांच लाख आदिवासी भी मौजूद हैं जिन्हें दो जून की रोटी भी आसानी से मयस्सर नहीं होती |सोनभद्र की एक और पहचान भी है यहाँ आठ नदियाँ भी हैं जिनका पानी पूरी तरह से जहरीला हो चुका है . यह इलाका देश में कुल कार्बन डाई ओक्साइड के उत्स्सर्जन का १६ फीसदी अकेले उत्सर्जित करता है, |सीधे सीधे कहें तो यहाँ चप्पे चप्पे पर यूनियन कार्बाइड जैसे दानव मौजूद हैं इसके लिए सिर्फ सरकार और नौकरशाही तथा देश के उद्योगपतियों में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के लिए मची होड़ ही जिम्मेदार नहीं है ,सोनभद्र को जन्पदोध्वंस के कगार पर पहुँचाने के लिए बड़े अखबारी घरानों और अखबारनवीसों का एक पूरा कुनबा भी जिम्मेदार है ,कैसे पैदा होता है भोपाल ,क्यूँकर मरते हैं बेमौत लोग अब तक वारेन एंडरसन के भागे जाने पर हो हल्ला मचाने वाला मिडिया कैसे नए नए भोपाल पैदा कर रहा है ,आइये हम आपको इसकी एक बानगी दिखाते हैं |
कनोडिया केमिकल देश में खतरनाक रसायनों का सबसे बड़ा उत्पादक है ,कनोडिया के जहरीले कचड़े से प्रतिवर्ष औसतन ४० से ५० मौतें होती हैं ,वहीँ हजारों की संख्या में लोग आंशिक या पूर्णकालिक विकलांगता के शिकार होते हैं मगर खबर नहीं बनाती क्यूंकि कनोडिया अख़बारों की जुबान बंद करने का तरीका जनता है ,पिछले वर्ष दिसंबर माह में उत्तर प्रदेश -बिहार सीमा पर अवस्थित सोनभद्र के कमारी डांड गाँव में कनोडिया द्वारा रिहंद बाँध में छोड़ा गया जहरीला पानी पीकर २० जाने चली गयी उसके पहले विषैले पानी की वजह से हजारों पशुओं की मौत भी हुई थी ,मगर अफ़सोस जनसत्ता को छोड़कर किसी भी अखबार ने खबर प्रकाशित नहीं कि जबकि जांच में ये साबित हो चुका था मौतें प्रदूषित जल से हुई है ,हाँ ये जरुर हुआ कि इन मौतों के बाद सभी अख़बारों ने कनोडिया के बड़े बड़े विज्ञापन प्रकाशित किये थे ,ऐसा पहली बार नहीं हुआ था इसके पहले २००५ जनवरी में भी कनोडिया के अधिकारियों की लापरवाही से हुए जहरीली गैस के रिसाव से पांच मौतें हुई ,लेकिन मीडिया खामोश रहा |मीडिया अब भी ख़ामोश है जब सोनभद्र के गाँव गाँव फ्लोरोसिस की चपेट में आकर विकलांग हो रहे हैं यहाँ के पडवा कोद्वारी ,कुसुम्हा इत्यादि गाँवों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो फ्लोरोसिस का शिकार न हो ,जांच से ये बात साबित हो चुकी है कि फ्लोराइड का ये प्रदूषण कनोडिया और आदित्य बिरला की हिंडाल्को द्वारा गैरजिम्मेदाराना तरीके से बहाए जा रहे अपशिष्टों की वजह से है |बिरला जी के इस बरजोरी के खिलाफ लिखने का साहस शायद किसी भी अखबार ने कभी नहीं किया ,हाँ वाराणसी से प्रकाशित "गांडीव " ने एक बार हिंडाल्को द्वारा रिहंद बाँध में बहाए जा रहे कचड़े पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी |,आखिर करता भी कैसे? जब दैनिक जागरण समेत अन्य अख़बारों में नौकरी भी हिंडाल्को के अधिकारियों के रहमोकरम पर टिकी होती है |
शायद ये विश्वास करना कठिन हो मगर ये सच है कि आज तक हिंदी दैनिकों ने अपने सोनभद्र के कार्यालयों पर सालाना विज्ञापन का लक्ष्य एक से डेढ़ करोड़ निर्धारित कर रखा है ,इनमे वो विज्ञापन शामिल नहीं हैं जो जेपी और हिंडाल्को समेत राज्य या केंद्र सरकार की कमानियां सीधे या एजेंसियों के माध्यम से देती हैं ,अगर इन सबको शामिल कर लिया जाए तो सोनभद्र से प्रत्येक अखबार को सालाना ८ से १० करोड़ रूपए का विज्ञापन मिलता है,इन अतिरिक्त विज्ञापनों का लक्ष्य यहाँ के गिट्टी बालू के खनन क्षेत्रों से प्राप्त किया जाता है ,ये खनन क्षेत्र जिन्हें “डेथ वेळी “कहते हैं और जो सरकार प्रायोजित भ्रष्टाचार और वायु एवं मृदा प्रदुषण का पूरे देश में सबसे बड़ा उदाहरण बने हुए हैं पर कोई भी अखबार कलम चलने का साहस नहीं करता जबकि ये अकाल मौतों की सबसे बड़ी वजह है ,और तो और यहाँ की खदानों से निकलने वाली भस्सी ने हजारों एकड़ जमीन को बंजर बना डाला ख़बरें न छापने की वजह भी कम खौफनाक नहीं है ,ये आश्चर्यजनक लेकिन सच है कि सोनभद्र में ज्यादातर पत्रकारों की अपनी खदाने और क्रशर्स हैं जिनकी नहीं हैं उनकी भी रोजी रोटी इन्ही की वजह से चल रही हैं ,ख़बरें ना छापने की कीमत वसूलना अखबार भी जानते हैं ,पत्रकार भी |
सोनभद्र के बिजलीघरों से प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ टन पारा निकलता है ,हालत ये हैं कि यहाँ के लोगों के बालों ,रक्त और यहाँ की फसलों तक में पारे के अंश पाए गए हैं ,इसका असर भी आम जन मानस पर साफ़ दीखता हैं ,उड़न चिमनियों की धूल से सूरज की रोशनी छुप जाती है और शाम होते ही चारों और कोहरा छा जाता है ,इस भारी प्रदुषण से न सिर्फ आम इंसान मर रहे हैं बल्कि गर्भस्थ शिशुओं की मौत के मामले भी सामने आ रहे हैं |मगर ख़बरें नदारद हैं .|वजह साफ़ है सभी अखबारों के पन्ने दर पन्ने प्रदेश के उर्जा विभाग के विज्ञापनों से पटें रहते है ,सैकड़ों की संख्या में मझोले अखबार तो ऐसे हैं जो बिजली विभाग के विज्ञापनों की बदौलत चल रहे हैं ,ये एक कड़वा सच है कि उत्तर प्रदेश सरकार के ओबरा और अनपरा बिजलीघरों को पिछले एक दशक से केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के अन्नापत्ति प्रमाणपत्र के बिना चलाया जा रहा है जबकि बोर्ड ने इन्हें बेहद खतरनाक बताते हुए बंद करने के आदेश दिए हैं ,मगर खबर नदारद है |सिर्फ सोनभद्र में ही नहीं देश के कोने कोने में भोपाल पैदा हो रहे है ,अखबार के पन्नों पर वारेन एंडरसन सुर्ख़ियों में है ,और हम, खुश हैं कि मीडिया अपना काम कर रहा
गुरुवार, 13 मई 2010
बरखा दत्त ,जो एक पत्रकार भी हैं |
देश में अब चैनलों के साथ साथ पत्रकारों की टी आर पी भी तय होने लगी है निश्चित तौर पर ख़बरों का सनसनीखेज होना भी इसलिए अनिवार्य होता जा रहा है ख़बरों की सनसनी के पीछे छुपा सच हमेशा चौंका देने वाला होता है,इस वक़्त देश में बरखा दत्त की टी आर पी निस्संदेह बहुत ज्यादा है शायद ये बढ़ी हुई टी आर पी का ही नतीजा है कि वो कवरेज के अलावा अपने पत्रकारी दमखम का इस्तेमाल करना भी भली भांति जान गयी हैं ,कभी वो मंत्रालय में विभागों का बंटवारा कराती नजर आती हैं ,तो कभी खुद के खिलाफ लिखने वाले ब्लॉगर को मुक़दमे में खींचती हुई |नीरा राडिया मामले में बरखा दत्त ने कितना कुछ लेकर कितना कुछ किया होगा इसका तो सही सही लेखा जोखा शायद कभी सामने नहीं आये लेकिन ये बात साफ़ है कि बरखा ने राजनीति में अपने रसूख का इस्तेमाल बार बार किया है ,अगर ऐसा न होता तो पूर्व नौ सेना अध्यक्ष सुरेश मेहता द्वारा लगाये गए आरोप के बाद बरखा यूँ साफ़ नहीं बच जाती ,गौर तलब है कि एडमिरल सुरेश मेहता ने बरखा को कारगिल युद्ध के दौरान तीन जवानों की हत्या का दोषी माना था जिसमे बरखा की लाइव कवरेज के दौरान बताये गए लोकेशन को ट्रेस कर पाकिस्तान ने तीन भारतीय जवानों को मार गिराया था,जबकि उन्हें ऐसा करने से मोर्चे पर मौजूद सैनिकों ने बार बार रोका था ,हैरानी ये कि उस वक़्त रक्षा मंत्रालय के जबरदस्त विरोध के बावजूद बरखा के खिलाफ कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं की जा सकी थी |बहुत संभव है कि बरखा ने नीरा राडिया मामले में उसी रसूख का इस्तेमाल किया हो जिस रसूख का इस्तेमाल उन्होंने उस वक़्त किया था |लम्बे विवादों के बाद अपने पद से इस्तीफा देने वाले शशि थरूर समेत कांग्रेस के कई मंत्रियों और नेताओं से से जिनमे पी .चिदम्बरम और प्रियंका गाँधी तक शामिल हैं इनकी घनिष्ठता किसी से छुपी नहीं है ,बरखा खुद-बखुद कहती हैं कि मेरी पत्रकारिता को शशि थरूर बेहद पसंद करते हैं |एक पत्रकार मित्र कहते हैं “बरखा को पद्मश्री पुरस्कार यूँही नहीं मिल गया ,इन सबके पीछे उनका और एन डी टी वी का कांग्रेस के प्रति पोजिटिव अप्प्रोच रहा है जिसका इस्तेमाल वो कभी ए .राजा को मंत्रिमंडल में जगह दिलाने तो कभी अपने चैनल के हितों का पोषण करने में करती रही हैं |
बरखा दत्त के कई चेहरे हैं मै जब भी बरखा दत्त के बारे में सोचता हूँ मेरी आँखों के सामने २६/११ की बरखा घुमने लगती हैं है |लाइव कवरेज में बरखा एक बेहद फटेहाल व्यक्ति से पूछती हैं कहाँ है तुम्हारी पत्नी मार दी गयी तो क्या बंधक नहीं बना रखा है उसे ?जी नहीं वो वहां छुपी है उस जगह |दूसरा दृश्य लगभग ४ घंटे के आपरेशन के बाद जैसे ही सेना का एक जनरल बाहर निकल कर आता है और खबर देता है कि और कोई बंधक ओबेराय में नहीं है बरखा कि ओर से एक और ब्रेकिंग न्यूज फ्लेश होती है अभी भी ओबेराय में १०० से अधिक बंधक मौजूद है |निस्संदेह हमेशा की तरह बरखा उस वक़्त भी अपनी टी आर पी बढ़ने के लिए सनसनी बेच रही होती हैं |उस वक्त जल रहे ताज के बजाय बरखा के चेहरे पर पड़ रहा कैमरे का फ्लेश इस सच को पुख्ता करता है| जब नीदरलैंड के एक अप्रवासी भारतीय चैतन्य कुंटे ने २६/११ के दौरान अपने ब्लॉग बरखा की इस पत्रकारिता पर सवाल खड़े किये तो बरखा और एन डी टी वी इंडिया ने पहले तो चैतन्य से माफ़ी मांगने को कहा और फिर उसके खिलाफ मुक़दमे की कार्यवाही शुरू कर दी|अंततः कुंटे को वो पोस्ट हटानी पड़ी कोलंबिया में पढ़ी लिखी और लाइम लाइट में रहने की की शौक़ीन बरखा को चैतन्य जैसे आम ब्लॉगर की आलोचना भला क्यूँकर स्वीकार होती | अफ़सोस इस बात का रहा कि उस वक्त किसी भी वेबसाईट या ब्लॉग पर बरखा दत्त की इस कार्यवाही को लेकर एक शब्द भी नहीं छापा गया लेकिन हाँ, उस एक घटना से ये साबित हो गया कि उनके भीतर एक ऐसी दम्भी महिला पत्रकार बैठी हुई है जो खुद अभिव्यक्ति की स्वतंत्र मालूम के खिलाफ किसी भी हद तक जा सकती है |बरखा के सम्बन्ध में एक किस्सा शायद बहुत लोगों को नहीं मालूम हो ,बरखा दत्त नाम से एक इन्टरनेट डोमेन नेम हैदराबाद की एक फर्म ने ले रखा था ,बखा दत्त को जैसे ही इस बात का पता चला वो न्यायायल चली गयी और वाहन ये नजीर दी कि मेरा नाम हिंदुस्तान में बेहद मशहूर है अगर इस नाम से कोई वेबसाईट बनायीं जायेगी तो लोगों के दिमाग में मै ही आउंगी ,इसलिए ये डोमेन नेम निरस्त कर दिया जाए ,हालांकि बरखा ये मुकदमा हार गयी |ये बात कुछ ऐसी थी कि देश में बरखा दत्त नाम का कोई दूसरा हो ही नहीं सकता ,अगर हुआ तो उस पर बरखा मुकदमा कर देंगी |
बरखा द्वारा स्पेक्ट्रम घोटाले में अगर नीरा राडिया की मदद की गयी तो उसके पीछे सिर्फ व्यक्तिगत फायदा नहीं था बल्कि पूरे चैनल का हित भी उससे जुड़ा हुआ था ,इस बात की बहुतों को जानकारी नहीं होगी कि नीरा राडिया की ही फर्म वैष्णवी कारपोरेट कम्युनिकेशन के ही एक हिस्से विट्काम द्वारा एन डी टी वी इमेजिन का व्यवसाय देखा जा रहा है |ये नीरा राडिया और बरखा दत्त का ही कमाल था कि एन डी टी वी का व्यावसायिक घाट पिछले एक साल में ही बेहद कम हो गया ,इस घाटे को कम करने के लिए हाई प्रोफाइल इंटरव्यूज कवरेज किये गए वहीँ ,बेहद शर्मनाक तरीके से इन इंटरव्यूज के माध्यम से इमेज मकिंग का भी काम किया गया |अगर आप बतख दत्त द्वारा लिए गए साक्षात्कारों की सूची पर निगाह डालें तो ये सच अपने आप सामने आ जायेगा |बरखा दत्त की एन डीटी वी में जो पोजीशन है उसमे उनकी जवाबदेही खत्म हो जाती है ,वो चाहे ख़बरों का मामला हो चाहे अब ये घोटाला उनको लेकर एन डी टी वी कोई कार्यवाही करेगा ,नितांत असंभव है |फेसबुक में ‘Can you please take Barkha off air’ नामक ग्रुप चलने वाली निवेदिता दास कहती हैं “बरखा दत्त में,मे उस एक अति महत्वकांक्षी महिला को देखती हो जो खबरों की कवरेज के समय खुद को यूँ ब्लो उप करती है जैसे ये खबर ओस्कर के लिए चुनी जाने वाली है ,जब लोग डरे ,सहमे और मौत के बीच रहते हैं उस वक्त का वो अपने और पाने चैनल के लीये बखूबी इस्तेमाल करना जानती है ,जब वो ख़बरों की क्कोव्रेज नहीं कर रही होती है तब भी उसमे वही अति महत्वाकांक्षी महिला साँसे लेती रही थी ,जिसका सबूत इस एक घोटाले से सामने आया है |
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
जेड एडम्स का "सेक्स मेनियाक "गाँधी
किसी भी व्यक्ति की सेक्सुअल लाइफ को सार्वजानिक करना खुद को चर्चा में लाने का बेहद आसान तरीका है,लेकिन अगर वो व्यक्ति कोई नामचीन शख्शियत हो तो उन्हें एक्सपोज करने के नाम पर की गयी कोई भी कोशिश चर्चाओं के साथ साथ धन की चाशनी मिलने की भी वजह बन जाती है |गांधीजी के सेक्स जीवन पर ब्रिटिश इतिहासकार जेड एडम्स की नयी किताब GANDHI:NAKED AMBITION पिछले हफ्ते बाजार में आई है | जेड एडम्स का कहना है कि हिंदुस्तान ने गांधीजी की मृत्यु के बाद उन्हें राष्ट्रपिता के रूपमे स्थापित करने के लिए उन तमाम तथ्यों और सबूतों को नष्ट कर दिया जिनसे ये साबित हो सकता था कि वो एक सेक्स मेनियाक थे |जेड एडम्स का ये भी कहना है कि उनमे महात्मा जैसा कुछ नहीं था ,वो पूरी तरह से सेक्स को माध्यम बनाकर खुद को अध्यात्मिक रूप से परिष्कृत करने की कोशिशों में लगे थे ,देश को चलाने की उनमे कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी |एडम्स ने अपनी किताब में कहा है कि एक बेहद असामान्य यौन जीवन जीने वाले ,खुद नग्न महिलाओं के साथ सोकर ,नवविवाहित जोड़ों को अलग अलग सोकर ब्रह्मचर्य का उपदेश देने वाले गाँधी नेहरु के शब्दों में "अप्राकृतिक और असामान्य " थे ,वहीँ आजादी के पूर्व आखिरी ब्रिटिश प्रधानमंत्री के शब्दों में "एक बेहद खतरनाक ,अर्ध -दमित और असामान्य यौन व्यवहार "वाले व्यक्ति थे |सवाल सिर्फ ये नहीं है कि जेड एडम्स के द्वारा गाँधी जी के सेक्सुअल जीवन की मीमांसा में सच कितना है और झूठ कितना बल्कि सवाल ये भी है कि इस उपन्यास के द्वारा जेड एडम्स हिंदुस्तान को और गांधीजी को जानने वालों को क्या कहना चाहते हैं |ये बताना शायद आवश्यक है कि इस उपन्यास के प्रकाशन की सर्वप्रथम जानकारी मुझे लन्दन में रह रहे और विश्व हिन्दू परिषद् से जुड़े मोहन गुप्ता ने मेल के द्वारा दी |
गाँधी जी की मृत्यु के बाद उनकी नीतियों और विचारों को लेकर आलोचना प्रत्यालोचना हमेशा से होती रही है और ये आवश्यक भी था| लेकिन सेक्स और ब्रहमचर्य पर उनके विचारों को उसके मूल तत्व को जाने बिना बार बार गाँधी को कटघरे खड़ा किया गया उनके अपने विचार ,उनकी अपनी साफगोई जेड एडम्स जैसे लोगों के लिए उनके ही चरित्र के खिलाफ हमला करने के औजार बन गए |एक ऐसे वक़्त में जब समूचे विश्व में सेक्स संबंधों पर तमाम पूर्वाग्रहों को पीछे छोड़ न सिर्फ पश्चिम बल्कि हिंदुस्तान जैसा परम्परावादी देश भी अत्यधिक उदारता की और बढ़ रहा है क्या सिर्फ इसलिए गाँधी को कटघरे खड़ा किया जा सकता है क्यूंकि उन्होंने सेक्स को लेकर भी प्रयोग किया और उन प्रयोगों को इमानदारी से जग जाहिर भी कर दिया |जेड एडम्स अपने उपन्यास में गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल की बहन सुशीला नायर का भी जिक्र किया है ,एडम कहते हैं "वो गाँधी जी के साथ सोती और नहाती थी ,गांधीजी इस बारे में कहते थे कि जब मैं सुशीला के साथ नहाता हूँ तो मैं अपनी आँखें बंद कर लेता हूँ मुझे कूच भी नजर नहीं आता सिर्फ साबुन लगाने की ध्वनि सुनाई देती है ,मुझे ये भी नहीं पता होता की कब वो पूरी तरह से नग्न हो चुकी होती है और कब उसने सिर्फ पेंटी पहनी होती है "| |मुझे नहीं मालूम एडम्स द्वारा प्रस्तुत किये गए इस तथ्य में कितनी सत्यता थी लेकिन अगर वास्तव में ऐसा था, तो ये अपने आप में गाँधी जी के सेक्स को लेकर किये गए प्रयोगों में उनकी सफलता को इंगित करता है और ये बताता है कि ,एक ऐसे विश्व में जहाँ वेटिकन सिटी से लेकर वाराणसी तक सभी धर्मों के धर्माचार्यों के सेक्स से जुड़े किस्सों का रोज बरोज खुलासा हो रहा हो ,सही अर्थों में वो एक महात्मा थे|जेड एडम्स ने उस एक कथित घटना का जिक्र किया है जिसमे गाँधी जी कि और से कहा गया है कि जब मेरे पिता मृत्यु शय्या पर आखिरी साँसें गईं रहे थे मै कस्तूरबा के साथ बिस्तर पर था ,और जब वापस लौटा पिता की मृत्यु हो चुकी थी ,एडम कहते हैं गाँधी इस एक घटना की वजह से बेहद दुखी थे |मैं नहीं जनता इस घटना में कितना सच है लेकिन अगर ये सच है तो क्या कोई भी मनुष्य इस एक कटु को सच को जगजाहिर करने की हिम्मत करेगा ?शायद कभी नहीं ,गाँधी जी खुद की आलोचना करना और खुद को कटघरे में खड़ा करने के आनंद से वाकिफ थे ,यही एक बात गाँधी को युगपुरुष बनाती है|
एडम अपने ज्ञान के अनुसार बताते हैं कि एक वक़्त आचार्य कृपलानी और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने गाँधी जी से उनके सेक्स सम्बन्धी विचारों की वजह से दूरी बना ली थी ,यहाँ तक कि उनके परिवार के सदस्य और अन्य राजनैतिक साथी भी इससे खफा थे ,कई लोगों ने गाँधी जी के इन प्रयोगों की वजह से आश्रम छोड़ दिया था |गाँधी जी को अत्यधिक कामुक साबित करने को लेकर एडम के अपने तर्क हैं | एडम लिखते हैं कि "जब बंगाल में दंगे हो रहे थे गाँधी ने १८ साल की मनु को बुलाया और उससे कहा कि " अगर तुम हमारे पास नहीं होती तो हम मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा मार दिए जाते ,चलो आज से हम दोनों एक दूसरे के पास नग्न होकर सोयें और अपने शुद्ध होने और ब्रह्मचर्य का परीक्षण करें" |एडम कहते हैं कि जब लोगों ने सुशीला से खुद के अलावा मनु और आभा के साथ गाँधी के शारीरिक संबंधों के बारे में पूछताछ कि तब उन्होंने यहाँ कह कर कि वो गाँधी के ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों का हिस्सा था ,पूरी बात को घुमाने की कोशिश की |एडम की सोच के उदगम का पाता उनकी किताब में लिखे इन शब्दों में साफ़ झलकता है| वो कहते हैं कि"गाँधी की मृत्यु के बाद लम्बे समय तक सेक्स के प्रति उनके प्रयोगों पर लीपापोती की जाती रही ,उनके प्रयोगों और कथित तौर पर ब्रहमचर्य का पालन करके द्वारा लम्बे समय तक संरक्षित करके रखा गया वीर्य भी देश को विभाजन से नहीं बचा सका ,और वो कोंग्रेस पार्टी थी जो अपने स्वार्थों के लिए अब तक गाँधी और उनके सेक्सुअल बिहेविअर से जुड़े सच को छुपाने का काम करती रही ,अगर कुछ वर्ष पूर्व भारत में सत्ता परिवर्तन न होता तो ये सच भी सामने नहीं आता |क्यूंकि गाँधी जी की मौत के बाद मनु को मुंह बंद रखने को कह दिया गया ,वहीँ सुशीला हमेशा से चुप थी |
जेड एडम्स ने इस उपन्यास के पूर्व १९९५ में नेहरु -गाँधी संबंधों पर भी एक किताब THE DYSTANY लिखी थी ,अगर आप उस एक किताब को पढने के बाद एडम की ये किताब पढेंगे तो आपको साफ़ लगेगा कि खुद को सत्यता का अन्वेषी साबित करने में जुटा ये लेखक मूल रूप में घोर नस्लवाद का शिकार है ,साथ ही उसे सलमान रश्दी और तसलीमा की राह पर चलकर बाजार में बने रहने का मंत्र भी बखूबी आता है ,वो ये भी जानते हैं कि गाँधी को लेकर समय समय पर अपना मानसिक संतुलन खो रही विचारधारा सिर्फ भारत में ही नहीं समूचे विश्व बिरादरी का हिस्सा बंटी जा रही है |अपने साक्षात्कार में एडम खुद स्वीकार करते हैं कि "मै जानता हूँ इस एक उपन्यास को पढ़कर हिंदुस्तान की जनता मुझसे नाराज हो सकती है लेकिन जब मेरी किताब का लन्दन विश्विद्यालय में विमोचन हुआ तो तमाम हिन्दुस्तानी छात्रों ने मेरे इस साहस के लिए मुझे बधाई दी"|एडम के इस बयान के पीछे का सच भी हम जानते हैं ,अब तक जितने लोगों ने भी गाँधी की सेक्स से जुडी विचारधारा को लेकर उनको कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की है ,उनमे से कुछ एक जिनको मै जानता हूँ विवादित रहकर आगे बढ़ने का फार्मूला जानते हैं ,और एडम भी उनमे से एक हैं |किताब की बिक्री जोरों पर हैं ,गाँधी को बेचना और वो भी सेक्स के साथ निस्संदेह फायदे का सौदा है लेकिन ये भी सच है कि एडम या उन जैसे इतिहासकारों के द्वारा गाँधी के व्यक्तित्व को चोटिल करना नामुमकिन हैं ,हाँ गाँधी जी को जेरे बहस जरुर लाया जा सकता है |
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
तमगों के लिए हत्याएं
माफियाओं और गुंडों के आतंक से कराह रहे प्रदेश में पुलिस का एक नया और खौफनाक चेहरा सामने आया है ,आउट ऑफ़ टर्न प्रमोशन पाने और अपनी पीठ खुद ही थपथपाने की होड़ ने हत्या और फर्जी गिरफ्तारियों की नयी पुलिसिया संस्कृति को पैदा किया है ,नक्सल फ्रंट पर हालात और भी चौंका देने वाले हैं ,नक्सलियों की धर पकड़ में असफल उत्तर प्रदेश पुलिस या तो चोरी छिपे नक्सलियों का अपहरण कर रही है या फिर ऊँचे दामों में खरीद फरोख्त करके उनका फर्जी इनकाउन्टर कर रही है,डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट आज आपको ऐसी ही सच्चाई से रूबरू करा रहा है |सोनभद्र में विगत नौ नवम्बर को नक्सली कमांडर कमलेश चौधरी के साथ हुई मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी ,उत्तर प्रदेश पुलिस ने बुरी तरह से बीमार कमलेश को चंदौली जनपद स्थित नौबतपुर चेकपोस्ट से अपह्त किया और फिर गोली मार दी ,खबर ये भी है कि सोनभद्र पुलिस ने इस पूरे कारनामे को अंजाम देने के लिए अपहरण की सूत्रधार बकायदे चंदौली पुलिस से सवा लाख रूपए में कमलेश का सौदा किया था | नक्सली आतंक का पर्याय बन चुके कमलेश चौधरी की हत्या मात्र एक प्रतीक है जो बताती है की तमगों और आउट ऑफ़ टार्न प्रमोशन के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस क्या कुछ कर रही है ,और परदे के पीछे क्या प्रहसन चल रहा है |
चलिए पूरी कहानी को फिर से रिवर्स करके सुनते हैं ये पूरी कहानी बिहार पुलिस को इस घटना से जुड़े लोगों के द्वारा दिए गए कलमबंद बयानों और पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टी के सदस्यों की छानबीन पर आधारित है |ये किसी पिक्चर की स्टोरी नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश पुलिस के नक्सल फ्रंट पर की जा रही कारगुजारियों का बेहद संवेदनशील दस्तावेज है , |ताजा घटनाक्रम में और भी चौंका देना वाले तथ्य सामने आये हैं इस पूरे मामले में बेहद महत्वपूर्ण गवाह और इस अपहरण काण्ड का मुख्य गवाह धनबील खरवार पिछले ढाई महीनों से लापता है ,महत्वपूर्ण है कि धनबील फर्जी मुठभेड़ के इस मामले में बिहार पुलिस को अपना बयान देने वाला था |यहाँ ये बात भी काबिलेगौर है कि जिस गाडी से कमलेश चौधरी और अन्य चार को अपह्त किया गया था उस गाडी के लापता होने और अपहरण को लेकर रोहतास के पुलिस अधीक्षक द्वारा एस .पी चंदौली को प्राथमिकी दर्ज करने को लिखा गया था ,लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की ,जो इस पूरे मामले का सच बयां करने को काफी है |चंदौली के नवागत एस .पी का कहना है कि पिछले रिकार्ड्स की जांच के बाद ही कहा जा सकेगा कार्यवाही किन परिस्थितियों में नहीं की गयी |
पिछले ९ नवम्बर को बीमार कमलेश को बिहार के चेनारी थाना अंतर्गत करमा गाँव से मुनीर सिद्दीकी नामक एक ड्राइवर अपनी मार्शल गाडी से लेकर बनारस निकला था ,गाडी में उस वक़्त चार अन्य व्यक्ति सवार थे|चंदौली पुलिस ने नौबतपुर चेक पोस्ट के पास तो बोलेरो गाड़ियों से ओवर टेक करके मुनीर की मार्शल को रोक लिया ,वहां मुनीर को गाडी से से उतार कर दूसरी गाडी में बैठा लिया गया ,और अन्य पांच को भी अपह्त कर घनघोर जंगलों में ले जाया गया इन पांचों व्यक्तियों में कमलेश चौधरी के अलावा भुरकुरा निवासी मोतीलाल खरवार, धनवील खरवार, करमा गांव निवासी सुरेन्द्र शाह व भवनाथपुर निवासी कामेश्वर यादव भी थे | जिस पुलिस इन्स्पेक्टर ने कमलेश की गिरफ्तारी की थी उसने इसकी सूचना अपने उच्च अधिकारीयों को न देकर सोनभद्र पुलिस के अपने साथियों को दी ,आनन् फानन में सवा लाख रुपयों में मामला तय हुआ ,सोनभद्र पुलिस द्वारा थोड़ी भी देरी न करते हुए नौगढ़ मार्ग से कमलेश और अन्य चार को ले आया गया ,मुनीर ने अपने लिखित बयान में कहा है कि मुझे तो चौबीस घंटे के बाद छोड़ दिया गया वहीँ पुलिस ने बिना देरी किये हुए कमलेश को जंगल में ले जाकर गोली मार दी,वहीँ अन्य चार को बैठाये रखा ,कमलेश की मुठभेड़ में मौत की खबर जंगल में आग की तरह फैली और वही कमलेश के साथ अपह्त चार अन्य को लेकर उनके परिजनों और मानवाधिकार संगठनों के तेवर से सकते में आई पुलिस ने बिना देरी किये हुए अन्य चार को १४ नवम्बर को छोड़ दिया |
इस घटना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण गवाह धनविल खरवार कैसे और किन परिस्थितियों में गायब हुआ,ये भी बेहद चर्चा का विषय है ,धनबली ही एकमात्र वो गवाह था जिसने अपहत लोगों में कमलेश चौधरी के शामिल होने की शिनाख्त की थी ,एस पी रोहतास विकास वैभव से जब धनबली के गायब होने के सम्बन्ध में जानकारी मांगी गयी तो उन्होंने कहा कि वो जिस स्थान भुर्कुरा का रहने वाला था वो घोर नक्सल प्रभावित है पुलिस का वहां जाना संभव नहीं ,हम फिर भी उसका पता लगाने की यथासंभव कोशिश कर रहे हैं |ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा कमलेश चौधरी के फर्जी मुठभेड़ पर पर्दा डालने कि कोशिश नहीं की गयी,इलाहाबाद से सीमा आजाद की गिरफ्तारी को भी इसी मामले से जोड़ कर देखा जा सकता है ,गौरतलब है कि कमलेश चौधरी की हत्या के मामले में पी यु सी एल कि तरफ से बनाये गए पैनल में सीमा आजाद भी शामिल थी और उनके द्वारा मानवाधिकार आयोग को इस पूरे मामले की जांच के लिए लिखा गया था |खरीद फरोख्त की बात और उससे जुड़े प्रमोशन के लालच का सच इस बात से भी जाहिर होता है कि पिछले एक दशक के दौरान उत्तर प्रदेश में जितने भी नक्सली पकडे गए या मारे गए उनमे से ज्यादातर बिहार या अन्य पडोसी राज्यों में सक्रिय थे,खबर है कि जब नहीं तब उत्तर प्रदेश पुलिस ,बिहार पुलिस से भी नक्सलियों की खरीद फरोख्त करती रही है
सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
सत्ता,साजिश और सीमा आजाद
जब कभी लोकतंत्र में सत्ता के चरित्र पर से पर्दा उठता है उस वक़्त शर्मिंदगी नहीं साजिशें होती हैं ,उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से शनिवार शाम पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता सीमा आजाद एवं उनके पति विश्व विजय की गिरफ्तारी इसी साजिश का हिस्सा है ,उन्हें माओवादी बताकर गिरफ्तार किया गया है |ये दलितों के नाम पर चुनी गयी सरकार द्वारा उन्ही दलित आदिवासियों और किसानों के खिलाफ चलायी जा रही मुहिम को सफल बनाने का एक शर्मनाक तरीका है |ये घटना बताती है कि उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार आहत और लहुलुहान है |ये घटना ये भी बताती है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में भी एक लालगढ़ साँसे ले रहा है वो भी सरकार और उसके कारिंदों के जुल्मो सितम से उतना ही आहत है जितना वो लालगढ़,| जिस एक वजह से सीमा विश्वास और उनके पति की गिरफ्तारी की गयी ,उस एक वजह का यहाँ हम खुलासा करेंगे ,लेकिन उसके पहले ये बताना बेहद जरुरी है कि अगर अभिव्यक्ति को सलाखों में कसने के सरकार के मंसूबों को सफल होने दिया गया ,तो वो दिन दूर नहीं जब न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि समूचे देश में सत्ता खुद बखुद आतंक का पर्याय बन जाएगी|ऐसे में ये जरुरी है कि इस परतंत्रता के खिलाफ अभी और इसी वक़्त से हल्ला बोला जाए|
एक आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकार से इससे अधिक उम्मीद कि भी नहीं जा सकती थी ,जिस वक़्त सीमा आजाद को गिरफ्तार किया गया ठीक उसी वक़्त पूर्वी उत्तर प्रदेश के अति नक्सल सोनभद्र जनपद में सोन नदी के किनारे बालू के अवैध खनन को लेकर सरकार के विधायक विनीत सिंह और उदयभान सिंह उर्फ़ डॉक्टर के समर्थकों के बीच गोलीबारी हो रही थी ,इस गोलीबारी से डरकर तमाम आदिवासी अपने घरों से भाग खड़े हुए थे ,घटनास्थल पर पुलिस पहुंची ,गोली के खोखे भी बरामद किये लेकिन किसी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी|ये घटना कोई नयी नहीं है ,समूचे प्रदेश में खनन मंत्री बाबु सिंह कुशवाहा और उनके कारिंदों के द्वारा अवैध खनन का जाल बिछाकर अरबों रूपए की काली कमाई की जा रही है ,और इसको अंजाम तक पहुँचाने के लिए प्रदेश के तमाम माफियाओं ,हिस्ट्रीशीटरों को बेनामी ठेके दिए जा रहे हैं ,निस्संदेह ऐसी स्थिति में आम मजदूर ,आदिवासी और किसान का शोषण होना लाजिमी है ,सीमा आजाद इन्ही मजदूरों के हक़ की लड़ाई लड़ रही थी ,अकेले लड़ रही थी ,वो भी हम जैसी पत्रकार थी लेकिन उसने पैसों के लिए अपने जमीर को नहीं बेचा | इलाहाबाद-कौशाम्बी के कछारी क्षेत्र में अवैध वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर उन्होंने बार बार लिखा , जबकि किसी भी बड़े अखबार ने हिम्मत नहीं की , नंदा के पूरा गांव में पिछले ही माह जब पुलिस व पीएसी के जवान ग्रामीणों पर बर्बर लाठीचार्ज कर रहे थे ,सीमा अकेले उनसे इन बेकसूरों को बक्श देने के लिए हाँथ जोड़े खड़ी थी ,उस वक़्त भी किसी अखबार ने इस बर्बरता की एक लाइन खबर नहीं छापी |सीमा की यही जंगजू प्रवृति सरकार को नहीं भायी ,खनन माफियाओं को खुश करने और अपनी झोली भरने के लिए सीमा को रास्ते से हटाना जरुरी था इलाहाबाद के दी.आई जी ने ऊपर रिपोर्ट दी कि सीमा माओवादियों का जत्था तैयार कर रही है .और अब नतीजा हमारे सामने हैं |
ऐसा नहीं है कि सरकार समर्थित अवैध खनन के गोरखधंधे को अमली जामा पहनाने के लिए सीमा से पहले फर्जी गिरफ्तारी नहीं की गयी है ,कैमूर क्षेत्र मजदूर ,महिला किसान संघर्ष समिति की रोमा और शांता पर भी इसी तरह से पूर्व में रासुका लगा दिया गया था,क्यूंकि वो दोनों भी आदिवासियों की जमीन पर माफियाओं के कब्जे और पुलिस एवं वन विभाग के उत्पीडन के खिलाफ आवाज उठा रही थी हालाँकि काफी हो हल्ला मचने के बाद सरकार ने सारे मुक़दमे उठा लिए गए ,इन गिरफ्तारियों के बाद पुलिस ने सोनभद्र जनपद से ही गोडवाना संघर्ष समिति की शांति किन्नर को भी आदिवासियों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया ,शांति एक वर्ष बीतने के बाद जैसे तैसे जमानत पर रिहा हुई ,मायावती सरकार का जब कभी दलित आदिवासी विरोधी चेहरे पर से नकाब उठता है इस तरह की घटनाएँ सामने आती हैं |
हो सकता है कि सीमा की गिरफ्तारी पर भी मीडिया अपने चरित्र के अनुरूप अपने होठों को सिये रखी है , विभिन्न चैनलों पर चल रहे न्यूज फ्लैश जिसमे नक्सलियों की गिरफ्तारी की बात कही गयी थी को देखकर हमें लग गया था कि टी.आर.पी और नंबर की होड़ में पहलवानी कर रहे मीडिया के पास सच कहने का साहस नहीं है ,लेकिन मै व्यक्तिगत तौर पर मीडिया और मीडिया के लोगों को अलग करके देखता हूँ ,सीमा ,विश्व विजय और आशा की गिरफ्तारी का विरोध हम सबको व्यक्तिगत तौर पर करना ही होगा ,माध्यमों की नपुंसकता का रोना अब और नहीं सहा जायेगा ,वर्ना आइना भी हमें पहचानने से इनकार कर देगा |
शनिवार, 6 फ़रवरी 2010
हम अमेरिकी दलाल नहीं हैं भारत भूषण
पिछले दस वर्षों में हिंदी पत्रकारिता का स्वरुप तेजी से बदला है ,वेब पत्रकारिता के आने के साथ साथ पूरे परिदृश्य में आश्चर्यजनक ढंग से प्रगतिशील पत्रकारों का जमघट सा लग गया है ,कुछ ऐसी वेबसाइट्स , पत्रिकाएं और अखबार देखने को मिल रहे हैं जिनमे मौजूदा व्यवस्था और व्यवस्था को लागू करने वाले संसाधनों के प्रति विद्रोह के साथ -साथ इस विद्रोह को सफल बनाने के लिए गंभीर चितन भी है |मगर अफ़सोस प्रगतिशीलता के इस नए चेहरे के साथ सिगरेट जलाकर बगलियाँ झाँक रहे इन पत्रकारों के एक वर्ग ने समूची हिन्दुस्तानी मिडिया के खिलाफ भी विद्रोह शुरू कर दिया है| एक ऐसे दौर में जब समूचा मीडिया जगत खुद को कटघरे में खड़ा करके ,खुद के खिलाफ गवाही दे रहा है और खुद ही जिरह भी कर रहा है ,प्रगतिशीलता के ये नए प्रतीक, डेस्क पर बैठकर ,ख़बरों की एक एक लाइन के लिए जान जोखिम में डालने वाले कलम के सिपाहियों के खिलाफ हल्ला बोल रहे हैं | वैचारिक तौर पर खुद को महान समझने का मुगालता पाले हुए इन प्रगतिशील पत्रकारों की ये कोशिश उस एक सोची समझी साजिश का हिस्सा है ,जिसके अंतर्गत समूचे देश की मीडिया को नकारा साबित कर और मीडिया एवं आम आदमी के बीच के संवाद को ख़त्म कर, संसद के गलियारों से लेकर नुक्कड़ों पर मौजूद चाय की दूकानों तक केवल खुद को स्थापित करना है |
हिंदी भाषा की एक पत्रिका है "समकालीन तीसरी दुनिया ",मैंने अपने एक मित्र के घर में ये पत्रिका देखी ,पत्रिका में एक लेख प्रकाशित है "चीन के खिलाफ भारत का मीडिया युद्ध "जिसे किन्ही भारत भूषण जी ने लिखा है जो मेल टुडे के सम्पादक भी हैं ,ये लेख मेल टुडे से साभार प्रकाशित है |बेहद आपत्तिजनक शीर्षक वाले इस लेख में हिदुस्तानी मीडिया द्वारा हाल के दिनों में चीन द्वारा भारत के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान की कोव्रिज को पूरी तरह से प्रायोजित बताते हुए कहा गया है कि मीडिया युद्ध सरीखा माहौल बाना रहा है ,साथ ही इन प्रायोजित ख़बरों ने खुद भारत के सामने भी शर्मिंदगी की स्थिति पैदा कर डी है ,इस लेख में जानकारी डी गयी है कि गृह मंत्रालय ने ऐलान किया है कि "टाईम्स ऑफ़ इण्डिया "के उन दो पत्रकारों के खिलाफ एफ.आई.आर भी दर्ज किया जायेगा ,जिन्होंने खबर दी थी कि चीनी सैनिकों कि गोली से सीमा सुरक्षा बल के दो जवान घायल हुए हैं,गृह मंत्रालय ने ये आदेश कब दिया इसका संज्ञान न तो उन पत्रकारों को होगा न मुझे है ||पत्रिका के सम्पादक आननद स्वरुप वर्मा जी कि टिप्पणी के साथ लिखे गए इस लेख को पढ़कर यूँ लगता है कि भारत भूषण जी का बस चलें तो समूची हिन्दुस्तानी मीडिया को एक साथ खड़ा करके गोली मार दे |
एक ऐसे देश में जहाँ कहीं कभी भी बम विस्फोट होते हों ,एक ऐसे देश में जिसने गुलामी की एक बड़ी जिंदगी बसर की है ,एक ऐसे देश में जहाँ सत्ता ,समाधान के बजाय समीकरणों में उलझी रहती हो और पडोसी हमें हर पल नंगा करने की कोशिश कर रहा हो ,वहां मीडिया को क्या करना चाहिए ?अगर ताज पर हमले के दौरान या बाद में ,लालगढ़ या छत्तीसगढ़ में में सत्तासमर्थित गण हत्या के दौरान या फिर अब चीन द्वारा भारतीय भू भाग पर कब्जे की कोशिश के खिलाफ अगर कलम या फिर की -बोर्ड हथियार बन जाते हो और देश की मीडिया अपने इस अनूठे हथियार से सोयी हुई सत्ता को जगाने,और आम जनता को देश की आत्मा से जोड़ने की कोशिश करता हो तो इसमें गलत क्या है ?ऐसे में निरपेक्ष होकर रहा भी नहीं जा सकता ,और शायद रहना भी नहीं चाहिए |क्या ये इमानदारी होगी कि हम भी सरकार की तरह चीन के साथ संबंधों में मुलायमियत का तब तक ढिंढोरा पीटते रहें ,जब तक चीनी ड्रैगन हमारी जमीन पर कब्जे के साथ साथ हिन्दुस्तानी सेना को भी अपना निशाना न बना दे ? ये शायद उन तथाकथित प्रगतिशील पत्रकारों की जमात का ही कमाल था कि इतने वर्षों से एक चौथाई पश्चिम बंगाल निरंकुश सत्ता के जुल्मो सितम तले र कराहता रहा मगर पूरा देश अनजान रहा |ये वही लोग हैं जो झारखण्ड ,बिहार ,छत्तीसगढ़ ,पूर्वी उत्तर प्रदेश , के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आम आदिवासी गिरिजन की बुनियादी जरूरतों को लेकर हो रहे निरंतर संघर्ष से अनजान रहे या कहें आँख मूंदे रहे ,मगर अब रक्त क्रांति को सही ठहराते हैं |
बेशर्मी की हदें यही नहीं टूटती ,बेहद उच्च गुणवत्ता के पेपर पर प्रिंटेड समकालीन तीसरी दुनिया के सम्पादक की माने तो हिन्दुस्तानी मीडिया द्वारा चीन के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान ,अमरीकी साजिश का हिस्सा है ,सपाट कहें तो पत्रिका कहना चाहती है की ये खबर कवरेज करने वाले पत्रकार अमरीका के दलाल हैं |सम्पादक आनंद स्वरुप वर्मा इस लेख पर अपनी टिप्पणी में कहते हैं ""मीडिया को अपने अनुसार ढालने और "डिसइम्फोर्मेशन "अभियान चलने में अमरीका को महारत हासिल रही है क्या ये प्रायोजित ख़बरें भी दक्षिण एशिया के किसी भूभाग में किसी अमरीकी योजना का हिस्सा है "?सम्पादक जी आगे कहते हैं की इन प्रायोजित खबरों ने खुद भारत सरकार के सामने भी शर्मिंदगी की स्थिति पैदा कर दी है |सम्पादक महोदय अगर कल को यह कह दें कि ताज पर हमला भी हिन्दुस्तानी मीडिया ने करवाया तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए, |इसी रिपोर्ट में आगे आश्चर्यजनक ढंग से कहा गया है कि भारत चीन सीमा पर किसी भी समाचार चैनल/पत्र का कोई संवाददाता मौजूद नहीं है,इन ख़बरों के प्रस्तुतीकरण में छोटी छोटी बातों का जिस तरह उल्लेख है वह इनके गलत होने की पृष्टि करता है |हम नहीं जानते भारत भूषण ,आनंद स्वरुप वर्मा जैसे लोगों ने खबरनवीसों के चरित्र (खबर का चरित्र ही खबरनवीस का चरित्र होता है )का खुलासा किस आधार पर किया है लेकिन एक बात तो साफ़ दिखती है की खुद को प्रगतिशील कहलाने में सम्मान की अनुभूति करने वाले लोगों ने देश की मीडिया के खिलाफ इस तरह की रिपोर्टिंग कर अपना वास्तविक चेहरा सबके सामने ला खड़ा किया है |जहाँ तक मै जानता हूँ मेरे ही दर्ज़न भर मित्र पत्रकार आज भी भारत चीन सीमा पर तमाम झंझावातों को सहते हुए अपने काम को अंजाम दे रहे हैं,उनके लिए परिस्थितियां देश के किसी भी दूसरे हिस्से से ज्यादा प्रतिकूल हैं |दुनिया से अलग गाँव बसाना अच्छा है लेकिन एक ऐसे गाँव पर हल्ला बोलना जहाँ के लोग लड़ते हुए ,भिड़ते हुए झगड़ते हुए भी देश की आत्मा से सीधा सम्बन्ध रखते हों ,कभी भी सफल नहीं होने वाला ,समकालीन हिंदी पत्रकारिता एक गाँव हैं ,और इस गाँव में रहने वालों को पता है कि देश और देश के प्रति सरोकार कैसे होने चाहिए |और हाँ भारत भूषण हम अमरीकी दलाल नहीं हैं |
हिंदी भाषा की एक पत्रिका है "समकालीन तीसरी दुनिया ",मैंने अपने एक मित्र के घर में ये पत्रिका देखी ,पत्रिका में एक लेख प्रकाशित है "चीन के खिलाफ भारत का मीडिया युद्ध "जिसे किन्ही भारत भूषण जी ने लिखा है जो मेल टुडे के सम्पादक भी हैं ,ये लेख मेल टुडे से साभार प्रकाशित है |बेहद आपत्तिजनक शीर्षक वाले इस लेख में हिदुस्तानी मीडिया द्वारा हाल के दिनों में चीन द्वारा भारत के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान की कोव्रिज को पूरी तरह से प्रायोजित बताते हुए कहा गया है कि मीडिया युद्ध सरीखा माहौल बाना रहा है ,साथ ही इन प्रायोजित ख़बरों ने खुद भारत के सामने भी शर्मिंदगी की स्थिति पैदा कर डी है ,इस लेख में जानकारी डी गयी है कि गृह मंत्रालय ने ऐलान किया है कि "टाईम्स ऑफ़ इण्डिया "के उन दो पत्रकारों के खिलाफ एफ.आई.आर भी दर्ज किया जायेगा ,जिन्होंने खबर दी थी कि चीनी सैनिकों कि गोली से सीमा सुरक्षा बल के दो जवान घायल हुए हैं,गृह मंत्रालय ने ये आदेश कब दिया इसका संज्ञान न तो उन पत्रकारों को होगा न मुझे है ||पत्रिका के सम्पादक आननद स्वरुप वर्मा जी कि टिप्पणी के साथ लिखे गए इस लेख को पढ़कर यूँ लगता है कि भारत भूषण जी का बस चलें तो समूची हिन्दुस्तानी मीडिया को एक साथ खड़ा करके गोली मार दे |
एक ऐसे देश में जहाँ कहीं कभी भी बम विस्फोट होते हों ,एक ऐसे देश में जिसने गुलामी की एक बड़ी जिंदगी बसर की है ,एक ऐसे देश में जहाँ सत्ता ,समाधान के बजाय समीकरणों में उलझी रहती हो और पडोसी हमें हर पल नंगा करने की कोशिश कर रहा हो ,वहां मीडिया को क्या करना चाहिए ?अगर ताज पर हमले के दौरान या बाद में ,लालगढ़ या छत्तीसगढ़ में में सत्तासमर्थित गण हत्या के दौरान या फिर अब चीन द्वारा भारतीय भू भाग पर कब्जे की कोशिश के खिलाफ अगर कलम या फिर की -बोर्ड हथियार बन जाते हो और देश की मीडिया अपने इस अनूठे हथियार से सोयी हुई सत्ता को जगाने,और आम जनता को देश की आत्मा से जोड़ने की कोशिश करता हो तो इसमें गलत क्या है ?ऐसे में निरपेक्ष होकर रहा भी नहीं जा सकता ,और शायद रहना भी नहीं चाहिए |क्या ये इमानदारी होगी कि हम भी सरकार की तरह चीन के साथ संबंधों में मुलायमियत का तब तक ढिंढोरा पीटते रहें ,जब तक चीनी ड्रैगन हमारी जमीन पर कब्जे के साथ साथ हिन्दुस्तानी सेना को भी अपना निशाना न बना दे ? ये शायद उन तथाकथित प्रगतिशील पत्रकारों की जमात का ही कमाल था कि इतने वर्षों से एक चौथाई पश्चिम बंगाल निरंकुश सत्ता के जुल्मो सितम तले र कराहता रहा मगर पूरा देश अनजान रहा |ये वही लोग हैं जो झारखण्ड ,बिहार ,छत्तीसगढ़ ,पूर्वी उत्तर प्रदेश , के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आम आदिवासी गिरिजन की बुनियादी जरूरतों को लेकर हो रहे निरंतर संघर्ष से अनजान रहे या कहें आँख मूंदे रहे ,मगर अब रक्त क्रांति को सही ठहराते हैं |
बेशर्मी की हदें यही नहीं टूटती ,बेहद उच्च गुणवत्ता के पेपर पर प्रिंटेड समकालीन तीसरी दुनिया के सम्पादक की माने तो हिन्दुस्तानी मीडिया द्वारा चीन के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान ,अमरीकी साजिश का हिस्सा है ,सपाट कहें तो पत्रिका कहना चाहती है की ये खबर कवरेज करने वाले पत्रकार अमरीका के दलाल हैं |सम्पादक आनंद स्वरुप वर्मा इस लेख पर अपनी टिप्पणी में कहते हैं ""मीडिया को अपने अनुसार ढालने और "डिसइम्फोर्मेशन "अभियान चलने में अमरीका को महारत हासिल रही है क्या ये प्रायोजित ख़बरें भी दक्षिण एशिया के किसी भूभाग में किसी अमरीकी योजना का हिस्सा है "?सम्पादक जी आगे कहते हैं की इन प्रायोजित खबरों ने खुद भारत सरकार के सामने भी शर्मिंदगी की स्थिति पैदा कर दी है |सम्पादक महोदय अगर कल को यह कह दें कि ताज पर हमला भी हिन्दुस्तानी मीडिया ने करवाया तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए, |इसी रिपोर्ट में आगे आश्चर्यजनक ढंग से कहा गया है कि भारत चीन सीमा पर किसी भी समाचार चैनल/पत्र का कोई संवाददाता मौजूद नहीं है,इन ख़बरों के प्रस्तुतीकरण में छोटी छोटी बातों का जिस तरह उल्लेख है वह इनके गलत होने की पृष्टि करता है |हम नहीं जानते भारत भूषण ,आनंद स्वरुप वर्मा जैसे लोगों ने खबरनवीसों के चरित्र (खबर का चरित्र ही खबरनवीस का चरित्र होता है )का खुलासा किस आधार पर किया है लेकिन एक बात तो साफ़ दिखती है की खुद को प्रगतिशील कहलाने में सम्मान की अनुभूति करने वाले लोगों ने देश की मीडिया के खिलाफ इस तरह की रिपोर्टिंग कर अपना वास्तविक चेहरा सबके सामने ला खड़ा किया है |जहाँ तक मै जानता हूँ मेरे ही दर्ज़न भर मित्र पत्रकार आज भी भारत चीन सीमा पर तमाम झंझावातों को सहते हुए अपने काम को अंजाम दे रहे हैं,उनके लिए परिस्थितियां देश के किसी भी दूसरे हिस्से से ज्यादा प्रतिकूल हैं |दुनिया से अलग गाँव बसाना अच्छा है लेकिन एक ऐसे गाँव पर हल्ला बोलना जहाँ के लोग लड़ते हुए ,भिड़ते हुए झगड़ते हुए भी देश की आत्मा से सीधा सम्बन्ध रखते हों ,कभी भी सफल नहीं होने वाला ,समकालीन हिंदी पत्रकारिता एक गाँव हैं ,और इस गाँव में रहने वालों को पता है कि देश और देश के प्रति सरोकार कैसे होने चाहिए |और हाँ भारत भूषण हम अमरीकी दलाल नहीं हैं |
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