सोमवार, 26 जनवरी 2009

लोकप्रियता और लोकतंत्र



लखनऊ शहर की दीवारों पर आजकल एक पोस्टर हर जगह देखा जा सकता है जिसमे कहा गया है कि 'हमें ak-४७ नही विकास चाहिए 'निश्चित तौर पर ये समाजवादी पार्टी के भावी उम्मीदवार संजय दत्त के ख़िलाफ़ है जिन्होंने ख़ुद चुनाव न लड़ने कि स्थिति में अपनी पत्नी मान्यता के मैदान में उतरने की बात भी कही है फिल्मी सित्तारों की राजनीति में दिलचस्पी कोई नई बात नही है ग्लेमर के आदि बन चुके इन सितारों के लिए राजनीति ,उसी ग्लेमर का एक हिस्सा और सुर्खियों में बने रहने का कामयाब नुस्खा है ,वहीँ राजनैतिक पार्टियों के लिए ये सितारे विरोधियों के चुनावी मैदान में पैर उखाड़ने का अचूक अस्त्र है यहाँ बात संजय दत्त या फ़िर अन्य किसी सितारे की उम्मीदवारी की नही है ,और मैं व्यक्तिगत तौर पर यह कह सकता हूँ ,कि संजय घर के बिगडैल हो सकते हैं लेकिन किसी भी कीमत पर देशद्रोही नही हो सकते ,हाँ कानूनन उन पर अपराध जरुर सिद्ध होता है सवाल सिर्फ़ यह है की क्या किसी व्यक्ति की लोकप्रियता उसके राजनैतिक रूप से योग्य होने का परिमापक हो सकती है ?,क्या हर लोकप्रिय व्यक्ति को लोकतंत्र के रक्षक दल में शामिल कर लेना चाहिए ?मेरा मानना है कि भारत में लोकप्रिय कोई भी हो सकता है ,अगर लोकप्रिय होने का शोर्ट कट अपनाना चाहता हो ,तो ख़ुद को विवादित कर लो या विवाद में रहो जिस देश में अतीक अहमद,मुख्तार अंसारी,अरुण गवली ,पप्पू यादव ,शहाबुद्दीन और राज ठाकरे जैसे कुख्यात संसद व विधानसभाओं में हो ,वहां निश्चित तौर पर लोकप्रिय होना कोई बड़ी बात नही यह दुर्भाग्यपूर्ण है हर हिन्दुस्तानी एक एंग्रीमेन ढूंढ़ रहा है ,कभी वो एंग्रीमेनकानून के लिए सिरदर्द बन चुके माफिया डान बन जाते हैं तो कभी गुंडई के बल पर अधिकारों को दिलाने का दावा करने वाला कोई राज ठाकरे| फिल्मी सितारों में भी जनता उसी एंग्रीमेन को ढूंढ़ती है ,रुपहले परदे में विलेन के दांत खट्टे करता हुआ हीरो उसके वर्चुअल वर्ल्ड का हिस्सा बन जाता है निश्चित तौर पर ये खोज राजनैतिक प्रदुषण की उब से पैदा हुई कुंठा का नतीजा है समाज का लोकप्रिय तबका इस कुंठा को भली भाति इस्तेमाल करता है ,वे आसानी से आम जनता पर शासन करने का अधिकार हासिल करता है ,और ख़ुद को पुनः स्थापित कर लेता है
अगर भारतीय राजनीति में फिल्मी सितारों के सफर पर निगाह डाली जाए ,तो शायद जयललिता को छोड़कर कोई एक भी अभिनेता या अभिनेत्री होगा जिन्होंने अपनी राजनैतिक जीवन की यात्रा में जनकल्याण के दृष्टीकोण से कुछ ख़ास किया हो,कमोवेश यही हाल उन अपराधियों का है जो भीड़ को बरगलाकर सत्ता -प्रतिसत्ता का हिस्सा बने हुए हैं ये बात दीगर है कि अधिकाँश फिल्मी सितारों को राजनैतिक पार्टिया अपने मनचाहे अंदाज में जनता के सामने परोस देती हैं किसी को किसी प्रदेश की बहु बना दिया जाता है तो किसी को किसी क्षेत्र का बेटा बेटा रामपुर की सांसद जयाप्रदा के बारे में वहां के एक शिक्षक कहते हैं' वो समाजवादी पार्टी की सांसद हैं हमारी नही ,चुनाव के बाद हमने उन्हें नही देखा अब हम अपने हाथों से अपना मुँह पिट रहे हैं लेकिन यह भी सच है अगली बार भी वही चुनाव जीतेंगी ',यही हाल धर्मेन्द्र,गोविंदा और विनोद खन्ना का है ,सिनेमा के पर्दे पर दुश्मनों को ललकारने वाले ये हीरो वास्तविक जीवन में अपने होठों पर ताला लगा लेते हैं ,पूर्व सांसद अमिताभ बोलते हैं तो डरते हैं कि उनके शब्द कहीं राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय न बन जाएँ ,और कोई बखेडा न खड़ा हो जाए ,हाँ उन्हें समाजवादी पार्टी का खुलेआम प्रचार करने और पत्नी जया को सांसद के रूप में देखने पर कोई ऐतराज नही है ये अभिनेता जब अपनी लोकप्रियता को चुनावों के दौरान बड़ी बड़ी होडिंगो पर लिखे 'यु पी में हैं दम क्यूंकि जुर्म यहाँ हैं कम 'जैसे नारों के रूप में पिछले विधानसभा चुनावों में भजाता है तो ये भूखी नंगी और वैचारिक कोमा में जी रही जनता को जूता मारने जैसा होता है अब जबकि राखी सावंत,मल्लिका आदि भी राजनीति में आना चाहती हैं तो सोच लें की बुनियादी समस्याओं से हर पल जूझ रहे आदमी का क्या होगा ,संविधान बनने वालों ने भी लोकतंत्र को लोकप्रियता का गुलाम न बनने देने के लिए कुछ नही सोचा |
राजनीती के अपराधीकरण को लेकर चर्चाएँ लगातार हो रही हैं ,लेकिन राजनीति का अपराधियों की और एवं अपराधियों का राजनीति की और विसरण बदस्तूर जारी है मीडिया व समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इसके लिए राजनैतिक पार्टियों को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहरा देता है ,लेकिन कभी भी आम जनता को कटघरे मैं खड़ा करने का साहस नही करता ,जबकि सत्यता यह है की सबसे पहले हम ख़ुद जिम्मेदार हैं हम हर अपराधी में एक हीरो ढूंढ़ते है अबू सलेम और बृजेश सिंह जैसे इंटरनेशनल माफिया सरगनाओं की आगामी चुनाव में उम्मीदवारी लगभग तय है ,अगर न्यायालय ने अड़ंगा नही लगाया तो ये लोग कल को चुनाव जीतेंगे और लोकतंत्र का सीना कुचल कर रख देंगे ऐसा इसलिए भी है कि लोकतंत्र के लंबरदारों ने आजादी के बाद से ही आम भारतीय की सोच को पंगु बना दिया है ,हम आज भी शर्मनाक राजनैतिक pratikon के गुलाम हैं ,जिनके बिना हम ख़ुद को अभिव्यक्त भी नही कर पाते हम वहीँ सोचते हैं जो वे सोचने को कहते हैं हम वही देखते हैं जो वे दिखाते हैं ऐसे में अगर कोई बाहुबली ,बलात्कारी या फ़िर सिरफिरे किस्म का गुंडा ,संसद और विधान सभाओं में पहुँचा जाता है तो क्या ग़लत है ,वहां पहुँचा कर वो अपने अपराधों को सफ़ेद कपडों से ढक लेता है और देश में निति निर्धारण की प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है एक मित्र कहते हैं की इन लोकप्रिय चेहरों का केवल एक उपयोग हो सकता है की वो किसी भी आइडोलोजी को जन जन तक पहुंचाएं ,क्यूंकि जो वो कहेंगे लोग आसानी सा आत्मसात कर लेंगे ,लेकिन अफ़सोस वो इसमे भी असफल रहे हैं ,अभिनेताओं को फुरसत नही होती ,अपराधियों की अपनी आइडोलोजी है |

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी



शनिवार, 17 जनवरी 2009

ख़बर हर कीमत पर !

खबरिया चैनलों पर सेंसर की कैंची इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई है ,विभिन्न चैनलों के कर्ता धर्ता इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अतिक्रमण बता रहे हैं प्रधानमन्त्री कार्यालय से लेकर समाचार बुलेटिनों तक इस अतिक्रमण के ख़िलाफ़ संवाद किए जा रहे हैं लेकिन इन सबके बीच आत्म -मीमांसा की बात कोई नही कर रहा प्रश्न सेंसरशिप होने का या न होने का बाद में है ,पहले सवाल ये है की जिस अभिव्यक्ति पर अतिक्रमण की बात हो रही है,वो अभिव्यक्ति क्या है ?वो अभिव्यक्ति अगर राखी सावंत और उसके प्रेमी के मान -मनौवल के रूप में है तो शर्म है ,वो अभिव्यक्ति अगर देर रात प्रस्तुत किए जाने वाले अश्लील कॉमेडी शो के रूप में है तो भी शर्म है ,वो अभिव्यक्ति अगर दुनिया को ख़त्म कर देने वाले किसी फंतासी से जुड़ी है तो भी शर्म है अब आप अंदाजा लगायें बचता क्या है ?मुंबई हमले के बाद सरकार ने इस सेंसरशिप को लागू करने का मन बनाया,देश की जनता को आतंकवाद का चेहरा दिखाने वाले सारे चैनल साधुवाद के पात्र हैंलेकिन उस दौरान सिर्फ़ आतंक नही दिखाया गया ,कुछ चैनलों ने टी आर पी को लेकर घुड़दौड़ उस दौरान भी जारी रखी इंडिया टीवी उस दौरान एक आतंकवादी के साथ तथाकथित बातचीत का ब्यौरा निरंतर प्रसारित करता रहा ,सिर्फ़ इतना ही नही शहीद महेश काम्टे के एक पुराने विडियो का भी फुटेज प्रसारित कर दिया गया ,जिसमे वो गन्दी गालियाँ देते हुए दंगाईओं की भीड़ को खदेड़ रहे थे ,शहीदों का ये कैसा सम्मान ? मुंबई हमले के बाद तो हद कर दी गई जिस वक्त पुरा देश शहीदों की मौत पर विलाप कर रहा था ,उस वक्त इन चैनलों पर पाकिस्तान के साथ युद्ध लड़ा जा रहा था अगर सही शब्दों में कहा जाए तो जनता के भीतर पकिस्तान के ख़िलाफ़ दबे आक्रोश को संतृप्त किया जा रहा था हम मुंबई पर राज ठाकरे के विषवमन का वो दौर नही भूल पाते जब वो सिरफिरा, भाषाई आधार पर पुरे देश को विभाजित करने का खेल खेल रहा था ,ठीक उसी वक्त टीवी १८ ने मराठी भाषा में लोकमत का प्रसारण शुरू कर दिया
प्रश्न सेंसरशिप होने या न होने का बाद में है ,पहले नीयत और नीति बदलने की जरुरत है अब तक electronic न्यूज़ चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है उनमे से ज्यादातर हाई प्रोफाइल ड्रामा है ,जिनमे जो कुछ भी देश ,समाज और परिवेश में न्यूनतम स्तर पर है ,गायब है ख़बरों के नाम पर जो कुछ भी परोसा जा रहा है उनमे से ज्यादातर उनके लिए है जिनके लिए टेलीविजन ड्राइंग रूम में रखे किसी बड़े शोकेस का हिस्सा है गरीब की झोपडी गायब ,उसमे रखा बक्सा गायब और बक्से पर रखे टीवी से वो ख़ुद गायबजिस वक्त ब्लॉग पर ये रिपोर्ट लिखी जा रही थी ,उस वक्त चैनलों पर लगातार सिर्फ़ और सिर्फ़ संजय दत्त के चुनावी समर में उतरने से सम्बंधित ख़बर दिखाई जा रही थी सच ये है कि खबरें नदारद हैं है ,गंभीरता गायब है ,अगर कुछ है तो केवल मनोरजन और उसको परोसने कि यथासंभव जुगत ,क्या यह कम आश्चर्य कि बात नही है कि दिल्ली के किसी पाश इलाके में देर रात अपने पुरूष मित्र के साथ घूम रही युवती के साथ बलात्कार कि ख़बर हफ्तों तक न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियाँ बनी रहती हैं ,लेकिन छत्तीसगढ़ के किसी गाँव में आदिवासी महिला के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार को पट्टी पर भी जगह नही देती जिस वक्त ये चैनल बोरवेल में फेस किसी बच्चे कि कहानी घंटों बयां करते हैं उस वक्त वास्तविक धरातल पर कोई समाचार नही होता ,उस वक्त उस बच्चे के जीवन और मौत के बीच चल रही रस्साकसी से जुड़ा शर्मनाक रोमांच ख़बर बन जाता है ख़बरों का वर्गीकरण देखिये ,दिल्ली में सड़क दुर्घटना में एक कि मौत -ख़बर ,वारंगल में सरकारी बस कि चपेट में आकर ६ कि मौत -ख़बर नही ,जिंदगी से तंग आ चुकी नशे में धुत्त मॉडल का सड़क पर आ जाना -ख़बर ,भूख और दरिद्रता से हारकर सोनभद्र के ननकू अगरिया की आत्महत्या -ख़बर नही , ibn7 से जुड़े मेरे एक पत्रकार मित्र कहते हैं 'हम विवश हैं ,हमें खबरों को हाई प्रोफाइल और लो प्रोफाइल के आधार पर चुनना पड़ता है ,लो प्रोफाइल की खबरें करने को साफ़ मनाही हैं आख़िर जो बिकता है वही दीखता है ,सच ही है अगर ख़बरों को बेचना है तो ताज पर हमले के दौरान की गई कार्यवाही को लाइव दिखाया जाना जरुरी है ,चाहे उसके वजह से बंधकों के ऊपर कोई भी आफत क्यूँ न आ जाए ,अभी अधिक दिन नही हुए जब बनारस में कुछ चैनलों के संवाददाताओं ने अतिक्रमण के आरोपी कुछ पटरी के दुकानदारों को पहले जहर की पुडिया दी और फ़िर उसे खाकर प्रदर्शन करने को कहा ,जहर खाने के बाद जब कुछ दुकानदारों की हालत बिगड़ने लगी तो ये सच सामने आया सर्वाधिक आपतिजनक ये है की ख़बरों को न सिर्फ़ पैदा किया जा रहा है ,बल्कि उनकी नीलामी भी की जा रही है
इन सब बातों का ये मतलब कतई नही है की सरकार को सेंसरशिप लागू करने की इजाजत देनी चाहिए ,तमाम अपवादों के बावजूद इन समाचार चैनल्स के तमाम पत्रकार बेहद विपरीत परिस्थितयों में समाचार संकलन का काम कर रहे हैं थकी हारी शिखा त्रिवेदी नक्सली महिलाओं से बिहार जंगलों में इंटरव्यू लेने पहुँच जाती है तो IBN का मनोज राजन बुंदेलखंड में भूख को जीता दिखाई देता है कोशी की बाढ़ पर ndtv के अजय सिंह की कवरेज को ऐतिहासिक न कहना बेईमानी होगी तीसरी आँख की वजह से हमारा लोकतंत्र निरंतर मजबूत हो रहा है ,राजनीति परिष्कृत हो रही है ऐसे में सरकार अगर समाचार चैनलों पर किसी प्रकार कभी सेंसर लागू करती है तो उसे आदर्श स्थिति पैदा करने की कवायद तो कदापि नही कहा जा सकता ,हाँ ये ख़ुद को बार बार कटघरे मैं खड़ा किया जाने के रक्षार्थ की गई राजनैतिक चालबाजी जरुर होगी इस बात का मतलब कत्तई ये नही है की ख़ुद की विवेचना न करें ,ख़बरों के प्रति गैर जिम्मेदाराना रवैया हर कीमत पर छोड़ना होगा ,नही तो सरकार अपने दामन को पाक आफ रखने के लिए तिकड़मों का इस्तेमाल तो करेगी ही ,देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा भी हमें किसी मॉल की बिकाऊ सामग्री समझ कर आँखें मूँद आगे
निकल लेगा

रविवार, 4 जनवरी 2009

जूता खाओ,जन्मदिन मनाओ
अगर आप लोकतंत्र में, सरकारी गुंडई का खौफ देखना चाहते हैं तो उत्तर प्रदेश आइये जन्मदिन के चंदे के नाम पर एक ईमानदार अभियंता की हत्या से सिहर रहे प्रदेश में शर्म भी आज शर्मसार हो रही है मैडम मायावती के जन्मदिन ने अधिकारियों की नींदें तो उड़ा ही दी हैं,व्यवसायी और आम आदमी भी त्राहि त्राहि कर रहा है भारत के इतिहास में किसी राजनेता की ऐसी अंधेरगर्दी फ़िर कभी देखने को शायद ही मिले यह लोकतंत्र के मुँह पर तमाचे की तरह है और राज्य समर्थित भ्रष्टाचार का अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण है
इस चंदे की वसूली के पीछे मुख्यमंत्री जो भी तर्क दें लेकिन ये सच है की वे लूटो और सबमे बाटों की निति को अंजाम दे रही है आलम ये है की मैडम का केक कटवाने को आतुर बसपा के विधायक एवं सांसद भी खुलेआम, बहती गंगा में अपना हाँथ धो रहे हैं ख़बर है की विगत २६ दिसंबर तक राज्य भर से लगभग ८ करोड़ रुपये की पहली किस्त बतौर नजराना प्रस्तुत कर दी गई है वहीँ बाकी के पैसे के लिए प्रशासनिक अधिकारीयों,व्यापारियों के घरों के दरवाजे की कुण्डी लगातार खटखटायी जाई रही है धमकी ये है की रोजी रोटी कमानी है तो जन्मदिन मनाओ नाम न छापने की शर्त पर एकप्रसाशनिक अधिकारी कहते हैं 'हमसे इस तरह पैसे की मांग की जाती है जैसे हमने कोई अपराध करके धन जमा रखा हो ,अपमानित होने से बेहतर है,हम लम्बी छुटी लेकर घर बैठ जाए
किसी भी लोकतंत्र के लिए इससे शर्मनाक क्या होगा की जिस के हांथों में सत्ता की बागडोर हो वही खुलेआम वसूली का कारखाना खोल दे देश की राजनीति की दिशा तय करने वाला राज्य और उसकी जनता आज कराह रही है जाति,धर्म की राजनीति के दम पर सिंहासन पर काबिज होने की कोशिश करने वाले भाजपा और कांग्रेस के तिकड़म का प्रत्युतर समझे जाने वाली मायावती इस कदर मतान्ध हो जाएँगी ,ये किसी ने नही सोचा था चंदा वसूली के इस व्यापक अभियान की खबरें भी पटरियों पर पिछली पंक्तियों में रखे जाने वाले कुछ एक अखबारों ने प्रकाशित की और बाकी राज्य सरकार के चेहरे पर कालिख पोत रही इस ख़बर को सीधा निगल गए ,अभियंता की हत्या के बाद सिर्फ़ तथ्य प्रकाशित किए गए सच नही तथ्य भी वो जो मुख्यमंत्री मायावती और उनका पिट्ठू कैबिनेट सचिव सशंक शेह्खर पत्रकारों को पत्रकारवार्ता में ललकारते हुए बता रहे थे जबकि सभी जानते हैं की मुख्यमंत्री के जन्मदिन के नाम पर पूरे प्रदेश में अधिकारियों और व्यवसायिओं से अरबों रुपये की चंदा वसूली होती है मुख्यमंत्री के जन्मदिन के चंदे की वसूली के इस सारे खेल में पुलिस ,वसूली टीम के साथ कंधे से कन्धा मिला कर सहयोग कर रही है प्रत्येक थाने में चंदे की रकम तो पहले ही तय कर दी गई थी ,इसके अलावा प्रदेश में पुलिस के तमाम अधिकारी ,व्यवसाइयों पर दबाव बनने का काम कर रहे हैं सच तो यह है की पुलिस की हिटलिस्ट में शामिल तमाम माफियाओं को जिनमे मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद भी शामिल है ,चंदे की भारी रकम लेकर कला कारोबार करने की खुली छूट दे दी गई है चंदे की इस वसूली को पूरी तरह से जायज बताते हुए ख़ुद मुख्यमंत्री कहती हैं की सभी लोग स्वेच्छा से चंदा दे रहे हैं हमारे लोग किसी को को भी रहे हैं लेकिन जमीनी हकीकत ये है की चंदे की रकम न देने की स्थिति में अधिकारियों को पवेलियन वापस भेज देने की खुली धमकी दी गई है जन्मदिन के चंदे के लिए प्रदेश को चरने की यह कवायत बेहद खतरनाक है ,यह उत्तर प्रदेश का दुर्भाग्य है की जिनके हाथों में सत्ता की बागडोर है ,वही चंदे के नाम पर भ्रष्टाचार और अपराध का पौधा लगा रहे हैं

शुक्रवार, 2 जनवरी 2009

राम नाम सत्य है


यह शर्म से मुँह ढकने का वक्त है पत्रकारिता के नैतिक दायित्वों का सरेआम सरेआम कत्ल करके उसे बाजार में नंगा लटका दिया गया है देश के एक बड़े उद्योगपति घराने की बपौती में चल रहे व राष्ट्र का नाम बेच रहे एक अखबार ने माफियाओं के साथ अपने रिश्ते की खुले आम नुमाइश लगनी शुरू कर दी है अखबार ने अपने २ जनवरी के अंक में कुख्यात माफिया डॉन बृजेश सिंह के एक का तस्वीर सहित शुभकामना संदेश प्रकाशित किया है इसके पहले भी कई बार ब्रिजेश सिंह उर्फ़ अरुण कुमार सिंह ,प्रदेश की जनता को अपनी बधाइयाँ दे चुके हैं ये कुछ ऐसा है कि अगर आज अब्दुल कसाब ,दाउद इब्राहीम या फ़िर अबू सलेम कुछ पैसे खर्च कर दे तो अखबार उन्हें हीरो बनाकर ससस्मान आपके सामने प्रस्तुत कर देगायह सिर्फ़ शुभकामना संदेश नही है बल्कि मीडिया और माफियाओं के नव गठजोड़ का एक काला सच है साथ ही उन जुबानों को काट देने का शगल है ,जो अराजकता की स्थिति से उब चुकी थी और अखबारों को तलवार की धार की तरह इस्तेमाल कर हल्ला बोल रही थी

आतंकवाद की आग में झुलस कर राख हो रहे भारतवर्ष में अगर आप राजनीति से उब चुके हैं और मीडिया से परिवर्तन लाने की उम्मीद कर रहे हैं तो फिलहाल ये विचार त्याग दीजिये वो आपकी उम्मीदों के साथ बलात्कार करेंगे और उसे विज्ञापन में तब्दील कर देंगेअब तक नेताओं और अपराधियों की मिलीभगत को लेकर हो हल्ला मचाने वाला एक अखबार यह काम बिना किसी शर्म के अंजाम दे रहा है उक्त मीडिया हाउस ने ब्रिजेश सिंह को बसपा के टिकेट पर लोकसभा चुनाव लड़ाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है ख़बर है की यह सौदा करोडो में हुआ है समाचार पत्र ने पूर्वांचल के अपने सभी संवाददाताओं को माफिया डॉन की पर्सनालिटी मेकिंग का काम सोंप दिया है यह वही अखबार है जिसने अपने मालिक के निधन पर पहले उनकी ग़लत तस्वीर प्रकाशित की अवाम पार्टी कर उस दिन जम कर दारूबाजी की जब इस सम्बन्ध में वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह ने अपनी वेबसाइट गॉसिप अड्डा डॉट कॉम पर ख़बर प्रकाशित की तो उनके ख़िलाफ़ प्रदेश सरकार की मिलीभगत से फर्जी मुकदमा दर्ज करा दिया गया अब आप ख़ुद अंदाजा लगाइए जिसे अपनी मालिक की मौत का शोक न हो वो अपराधियों से त्राहि-त्राहि कर रही देश की जनता के शोक पर क्यूँ कर संताप करेगी

माफिया डॉन के शुभकामना संदेश को जिन अखबारों ने प्रकाशित नही किया वे धन्यवाद के पात्र हैं लेकिन दुखद ये है कि वे भी अपने बीच पनप रही इस अपसंस्कृति का विरोध करने का साहस नही करते ,इसकी भी अपनी वजह है नाम न छापने कि शर्त पर एक बड़े अखबार के विज्ञापन प्रबंधक कहते हैं 'माफिया डॉन के लोगों ने कई जनपदों से हम पर यह शुभकामना संदेश प्रकाशित करने का दबाव बनाया था व इसके लिए हमें निर्धारित दरों से काफ़ी अधिक भुगतान भी दिया जा रहा था ,लेकिन हमने इसे नही छापा क्यूंकि हमारी जनता के प्रति भी जवाबदेही है एवं मूल्यों से समझौता नही किया जा सकता वो कहते हैं लेकिन हम किसी अखबार को ऐसा विज्ञापन प्रकाशित करने पर कटघरे मे खड़ा नही कर सकते'

देश कि एक नामचीन लेखिका के संपादन में चलाये जा रहे इस समाचारपत्र से आत्म्मुल्यांकन कि उम्मीद तो फिलहाल नही है ,क्यूंकि अब तक सत्ताधारी दलों कि सरपरस्ती में अखबार चलने कि उनकी व्यावसायिक अनिवार्यता के दायर में अब माफिया भी शामिल हो गए हैं वो दिन दूर नही जब माफिया ही अखबार चलाएंगे और ख़बरों का चुनाव करेंगे,अगर आप अपना माथा पीटना चाहते हैं तो पीटे पर अब चुप रहने की आदत डाल लीजिये