शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

चूल्हा ,चक्कड़ और चौथी दुनिया की कवितायें -२



चौथी दुनिया का मौसम आजकल बेहद खुशगवार है ,हो भी क्यों न ,शेफाली पाण्डेय ,जेनी शबनम ,आशा प्रकाश ,पारुल , शिखा वार्ष्णेय ,प्रीति टेलर ,कुसुम ठाकुर ,संगीता , सरीखे नामों ने समूची समकालीन कविता के उबाऊ स्वरुप को बदल कर रख दिया है यहाँ इन्टरनेट पर ये महिलायें जो कुछ भी लिख रही हैं ,वो हिंदी कविता के परम्परागत चेहरे को बदलने की अभिनव कोशिश है ,उनकी ये कोशिश रंग ला रही है वो पढ़ी जा रही हैं और खूब पढ़ी जा रही हैं ,ये सच है की खुद को हिंदी कविता का प्रतीक मानने वाली कलम अभी फिलहाल इन्हें और इनकी रचनाओं को स्वीकार नहीं कर पा रहा है या कहें उन्हें साथ लेकर चलने में उन्हें गुरेज है मगर ये कहना गलत नहीं होगा की जब कभी आधुनिक कविता की चर्चा होगी तो रसोईघर में बर्तनों के साथ लड़ाई कर रही ,या फिर दफ्तरों की दम तोड़ती कुर्सियों पर अपनी गृहस्थी को संजोने की महान कोशिश में जुटी इन महिलाओं की कविताओं को जगह न देना ,हिंदी और हिंदी कविता के साथ सबसे बड़ी बेईमानी होगी हमने कुछ समय पहले चंद कवियत्रियों के रचना संसार की चर्चा की थी ,आज हम फिर कुछ एक की कविताओं पर बात करेंगे ,जिनका हम जिक्र नहीं कर पा रहे हैं ,संभव है हमने उन्हें न पढ़ा हो ,लेकिन उनकी रचनाधर्मिता पर हमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ,क्यूंकि हम जानते हैं की चौथी दुनिया के दरवाजे में घुसने के बाद घुटन ,पुरुषवादी समाज से उपजी कुंठाएं और संत्रास ख़त्म हो जाते हैं ,यहाँ हम उनको पढ़ रहे हैं जिन्होंने सिर्फ कविता लिखना नहीं ,१०० फीसदी जीना सीख लिया है


एक ऐसे वक़्त में जब हिंदी कविता से हास्य और व्यंग्य पूरी तरह से गायब हो चुका है ,ठेठ मंच हो या साहित्यिक पत्रिकाएं व्यंग्य के नाम पर सिर्फ पहचान बनाने और भीड़ जुटाने की जैसे तैसे कोशिशें की जा रही हो ,शेफाली पाण्डेय को पढना निस्संदेह बेहद सकून देने वाला होता है ,बच्चों को इंग्लिश पढ़ने वाली शेफाली के लिए कविता सिर्फ विचारों के उत्सर्जन का माध्यम नहीं है बल्कि खुद के और औरों के जिन्दा रहने के पक्ष में दिया गया हलफनामा है उनकी कविता सबकी कविता है वो सब्जियों के मोल भाव कर रही किसी आम महिला की कविता हो सकती है या महंगाई से सर पिट रहे दो जवान बेटियों के बाप की कविता उनकी खुद को बयां करती इस व्यंग्य की गंभीरता पर निगाह डालें -

सूनेपन से त्रस्त हूँ
वैसे बेहद मस्त हूँ
करीने से सजा है मकां मेरा
मैं इसमें बेहद अस्त-व्यस्त हूँ

जेनी शबनम जी की ग़जलें ,बादलों और हवाओं का रंग हैं ,धूप और साए की जुबान है जेनी की ग़जलों की सबसे बड़ी खासियत उनकी सरल भाषा है उन्होंने ग़जल को पारंपरिक क्लिष्टता और अपरिचित भाषा से मुक्त करके हर किसी तक पहुँचने का काम किया है उनकी बिम्ब रचना और प्रतीक चयन में अभिव्यक्ति की व्यापकता देखते ही बनती है , पति और बच्चों के साथ जिंदगी के हर पल को संजीदगी से जी रही जेनी जी की दो लाइनें ,उनकी ग़जलों के वजन को बयां करती हैं -

ख्यालों के बुत ने, अरमानों के होठों को चूम लिया
काले लिबास सी वो रात,तमन्नाओं की रौशनी में नहा गई

दिल्ली की सुनीता शानू एक स्थापित स्वतंत्र पत्रकार हैं , आप में से बहुत लोगों ने उन्हें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में पढ़ा होगा,मगर ये सब कुछ चौथी दुनिया में आकर ही संभव हुआ एक व्यंगकार के रूप में उनकी रचनाएँ ,मानवीय जीवन की कठोरता पर भरपूर प्रहार करती हैं ,जहाँ हम आप मौन हो जाते हैं और एक तरह की मानसिक ब्लोकिंग हो जाती है ,वहां से सुनीता की कविता शुरू होती है


उम्मीदों और खुशियों से भरी
एक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथो को सटासट...

कभी टेबिल तो कभी कुर्सी चमकाते
छलकती कुछ मासूम बूँदें
सुखे होंठों को दिलासा देती उसकी जीभ
खेंच रही थी चेहरे पर

हर दिशा में दौड़ता
भूल जाता था कि
कल रात से उसने भी
नही खाया था कुछ भी...

झारखण्ड की पारुल रहने वाली पारुल की कविताओं का जिक्र किये बिना चौथी दुनिया का रचना संसार अधुरा है ,उनको पढ़ते हुए कभी निराला की याद आती है तो कभी दुश्याँ सामने आ खड़े हो जाते हैं सुश्री पारुल पुखराज के बारे में ताऊ रामपुरिया कहते हैं 'सुश्री पारुल जी यानि पारूल…चाँद पुखराज का से. वैसे तो उनके व्यक्तित्व के बारे मे उनका ब्लाग ही सब कुछ कह जाता है. उनके ब्लाग पर जाते ही एक शीतलता और संगीत की माधुर्यता का एहसास होता है. उनसे मुलाकात मे भी वैसी ही एक शांत, सौम्य और निश्छलता का एहसास हुआ.

प्राणप्रन से हो निछावर
बंदिनी जब कर लिया,
अंकुशों के श्राप से फिर
प्रीत को बनबास क्यों

मौन हो जाये समर्पण
शेष सब अधिकार हों,
नेह का बंधन डगर की
बेड़ियाँ बन जाये क्यों
-आशा प्रकाश को हमने कुछ दिनों पहले ही पढ़ा है लेकिन यकीन मानिये उनको पढने के बाद समकालीन कविता को लेकर मेरे मन का क्षोभ पूरी तरह से ख़त्म हो गयावो जो जीती हैं ,वो लिखती हैं ,उनके लिए कवितायेँ खुद को अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है ,वो कहती हैं अगर कवितायेँ न हो तो मैं जिन्दा न रहूँ अपनी बिटिया को लिखी उनकी एक कविता के कुछ अंश --

समय उड़ गया पंख लगा
अब कंधे तक मेरे आती है
जब उलझ कहीं मै जाती हूँ
वो मुझ को अब समझाती है
माँ मै हूँ उसकी लेकिन
वो मेरी माँ बन जाती है..


जमशेदपुर की कुसुम ठाकुर के लिए कवितायेँ जिंदगी को पूरी तरीके से जीने का सलीका है ,वो जब कवितायेँ नहीं लिखती हैं तो अपनी सहेलियों के साथ दीन -दुखियों की सेवा में खुद को लीन कर देती हैं ,उनकी कविता का भाषा पक्ष इतना स्वाभाविक है की उनकी हर कविता बेहद आसानी से पाठकों का अपना हिस्सा बन जाती है -

मैं ने भी तो किया प्रयास ,
शायद मेरा कुछ दोष ही हो
अब जो छूटा तो हताश हूँ मैं ,
पर मैं कैसे स्मरण करूँ ?
माना वह अब करे विचलित ,
जिसको मैं याद करूँ हर पल
पर यह तो एक सच्चाई है ,
जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ?

शिखा वार्ष्णेय लन्दन से हैं ,वो उतनी ही अधिक घरेलू हैं जितनी हिंदुस्तान के किसी छोटे से कस्बे में रहने वाली कोई महिला ,शिखा के रचना संसार में सब कुछ मौजूद है इसे ग़जल ,मुक्तक या फ़िर कोई नाम देना बेईमानी होगा अगर आप सिर्फ़ कविता को महसूस करना चाहते हैं तो यहाँ आयें ,उन्हें पढ़ते वक्त ऐसा लगता है जैसे कविता के लिए कुछ भी असंभव नही है |उनकी ये पंक्तियाँ पढ़ें-


ताल तलैये सूख चले थे
कली कली कुम्हलाई थी
धरती माँ के सीने में एक दरार सी छाई थी
कब गीली मिटटी की खुशबु बिखरेगी सर्द
में कब बरसेगा झूम के सावन
ऋतू प्रीत सुधा बरसायेगी

प्रीति टेलर चौथी दुनिया का एक ऐसा नाम है ,जिसे पढना सभी को पसंद है वो कहती हैं ' .... शायरी ,कविता ,लघुकथाएं , कुछ जिन्दगी के स्पर्श करते लेख मेरे सपनों को व्यक्त करने का माध्यम बनते है जिन्हें मैं कलमबंद करके कागज़ पर बिखेर देती हूँ उसमे अपने विचारों के रंग भर देती हूँ ..'सच कहती हैं वो उनकी खुद के प्रति इमानदारी उनकी अपनी कविता में भी प्रतिबिंबित होती है -
दर्द तो बिकता है-

यहाँ हर गली हर मोड़ पर ,
खुशियोंकी फुहारें तो बहुत कम को नसीब होती है ,
अपने होठोंकी मुस्कुराहटोंको बांटते रहो हरदम ,
निगाहों को जो नम होती है ......