सोमवार, 9 नवंबर 2009

आग ,आटा और लोहा


रोटियों की सही सेंक के लिए, आग और आटे के बीच लोहे को आना पड़ता है|लोकतंत्र में अति का परिणाम अगर देखना हो तो पश्चिम बंगाल आइये ,सामाजिक ,सांस्कृतिक ,बौद्धिक और साहित्यिक तौर पर शेष भारत के सन्मुख जबरिया उदाहरण बनने की कोशिश करता हुआ यह राज्य आज राजनैतिक अतिवादिता के खिलाफ क्रांति का नया ठिकाना बन गया है ,ये हिंदुस्तान में राजनीति के आभिजात्य संस्करण के खिलाफ आबादी का संगठित हस्तक्षेप है |अब तक मीडिया के अन्दर या फिर मीडिया के बाहर नंदीग्राम -सिंगुर-लालगढ़ में हो रहे जनविद्रोह को सिर्फ वामपंथी सरकार के खिलाफ नक्सलवादी विरोध बताकर इतिश्री कर ली गयी ,हकीकत का ये सिर्फ एक हिस्सा है ,पूरी हकीकत जानने के लिए आपको उस पश्चिम बंगाल में जाना होगा ,जिसने आजादी के पहले और आजादी के बाद भी शोषण ,उत्पीडन और जिंदगी की सामान्य जरूरतों के लिए सिर्फ और सिर्फ संघर्ष किया है ,आपको पश्चिम मिदनापुर के रामटोला गाँव के नरसिंह के घर जाना होगा ,जो यह कहते हुए रो पड़ता है कि उसने भूख से तंग आकर अपनी बेटी के हिस्से की भी रोटी खा ली ,आपको बेलपहाडी ,जमबानी ,ग्वालतोड़,गड्वेता और सलबानी के ठूंठ पड़े खेतों को भी देखना होगा ,आपको प्रकृति के साथ -साथ वामपंथी सामंतों द्वारा बरपाए गए कहर को भी देखना होगा ,साथ ही आपको उन अकाल मौतों को भी देखना होगा ,जिसकी फ़िक्र न तो सत्ता को थी और न ही उसकी सरपरस्ती में चौथे खंभे का बोझ उठाने की दावेदारी करने वालों के पास |

अगर केंद्र सरकार या तृणमूल कांग्रेस ये समझती हैं कि मौजूदा जनविद्रोह सिर्फ और सिर्फ वामपंथियों के खिलाफ है तो ये भी गलत है समूचा पश्चिम बंगाल उस शेष भारत की अभिव्यक्ति है जिसे देश के राजनैतिक दलों ने सिर्फ और सिर्फ वोटिंग मशीन समझ कर इस्तेमाल किया और छोड़ दिया ,ये शेष भारत वो भारत है जहाँ तक न तो संसाधन पहुंचे और न ही सरकार ,ये जनविद्रोह माओवाद या किसी अन्य विचारधारा की उपज नहीं है ,ये किसी भी जिन्दा कॉम के प्रतिरोध की अब तक की सबसे कारगर तकनीक है,ये जनविद्रोह सिर्फ पश्चिम बंगाल में जनप्रिय सरकार के गठन के साथ ख़त्म हो जायेगा ऐसा नहीं है ,कल को अगर पश्चिम बंगाल से शुरू हुई इस क्रांति में देश भर के युवाओं ,किसानों ,खेतिहर मजदूरों और आदिवासी गिरिजनों की भागीदारी हो तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए ,निस्संदेह लोकतंत्र को परिष्कृत करने के लिए इस क्रांति की जरुरत बहुत लम्बे अरसे से थी |
जब कभी दुनिया में वामपंथ के इतिहास की चर्चा होगी ये चर्चा भी जरुर होगी कि हिंदुस्तान के एक राज्य में २५ वर्षों तक राज्य करने के बाद कैसे एक वामपंथी सरकार अपने जैसे ही विचारधारा के लोगों की जानी दुश्मन हो गयी ,उस वक़्त ये भी चर्चा होगी कि कैसे एक देश की सरकार पहले तो अपने ही देश के गरीब और अभावग्रस्त लोगों की दुश्वारियों को जानबूझ कर अनसुना करती रही ,और फिर अचानक हुई इस जानी दुश्मनी का सारा तमाशा नेपथ्य से देखकर तालियाँ ठोकने लगी |उस एक महिला की भी चर्चा होगी जिसे हम ममता बनर्जी के नाम से जानते हैं जो संसद में तो शेरनी की तरह चिंघाड़ती थी ,लेकि नंदीग्राम से पहले उसे भी पश्चिम बंगाल के उस हिस्से के दर्द से कोई सरोकार नहीं था जो हिस्सा आज पूरे पश्चिम बंगाल की राजनीति की दिशा तय कर रहा है | नेहरु की भी चर्चा होगी ,इंदिरा गाँधी की भी चर्चा होगी और उस कांग्रेस पार्टी की भी चर्चा होगी जिसने वामपंथियों के साथ देश पर राज किया, कोंग्रेस पार्टी के राहुल की भी चर्चा होगी जो अपने संसदीय क्षेत्र के दलित परिवार के घर में रात बिताता है लेकिन अभी तक पश्चिम बंगाल के उस हिस्से में नहीं गया |मेरा मानना है पश्चिम बंगाल में सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या वामपंथी पार्टियों की, नेता एक ही वर्ग के थे. यानी अभिजात्य वर्ग के| उन्हें किसानों और आदिवासियों की मूल समस्याओं की जानकारी ही नहीं थी तो वो उसका समाधान क्या करते |आदिवासियों के साथ किये गए राजनैतिक छलावे पर बी बी सी के मित्र सुधीर भौमिक कहते हैं ‘विकास तो कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि यहां के लोगों की समस्याओं को तो नेता कभी समझे ही नहीं. सीपीएम के भूमि सुधार का भी इन लोगों को लाभ नहीं मिला. आदिवासियों को उम्मीद थी कि अलग झारखंड राज्य बनने पर उन्हें कुछ फ़ायदा मिलेगा, लेकिन इस इलाक़े को झारखंड राज्य में शामिल नहीं किया गया और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इस इलाक़े को शामिल किए बिना ही अलग राज्य को स्वीकार कर लिया.’|ये बात सही भी है इनकी समस्यों को कभी समझा ही नहीं गया ,ऐसे में इस क्रांति के अलावा क्या और कोई विकल्प शेष था ?
आज पश्चिम बंगाल में चार तरह के लोग रह रहे हैं विद्वतजन ,अभिजन ,भद्रजन और आमजन |भद्रजन वो हैं जिनकी बदौलत अब तक राज्य में वामपंथियों का शासन रहा ,उनके लिए वामपंथी विचारधारा लोकतान्त्रिक परम्पराओं से परे उनके जीवि रहने की शर्त बन गयी है ,अभिजन वो हैं जिनके हाँथ में विधानसभा से लेकर ग्राम पंचायतों तक का नेतृत्व रहा है ,ये वो लोग हैं जो फटे पुराने कुर्तों में मुँह में विल्स सिगरेट दबाये चश्मे के शीशे के पीछे से दुनिया देखते हैं ,विद्वतजन में लेखिका महाश्वेता देवी,अम्लान दत्त, जय गोस्वामी, अपर्णा सेन, सावली मित्र, कौशिक सेन, अर्पिता घोष, शुभ प्रसन्न, प्रतुल मुखोपाध्याय भास चक्रवर्ती ,और कृपाशंकर चौबे जैसे वो लोग हैं जो ,आमजन की हकदारी को लेकर खुद के जागने का दावा कर रहे हैं लेकिन वामपंथी सरकार के दांव पेंचों की दुहाई देकर खुद को समय -समय पर तटस्थ कर ले रहे हैं |गौरतलब है कि जब वहां की सरकार ने पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारण कमेटी को आर्थिक मदद दिए जाने के नाम पर महाश्वेता देवी एवं अन्य विद्वतजनों के खिलाफ गैरकानूनी क्रियाकलाप निरोधक (संशोधन) कानून (यूएपीए) के तहत मुकदमा दर्ज किये जाने की बात कही तो आनन फानन में हर जगह ये कहा जाने लगा कि हमारा साथ आदिवासियों के लिए था माओवादियों का हम विरोध करते रहेंगे |मगर सच ये है कि ये विद्वतजन न तो माओवादियों का खुल कर विरोध कर रहे हैं और न ही मौजूदा आन्दोलन का पुरजोर समर्थन |चौथे और आखिरी आमजन हैं ,वो आमजन जिन्हें जन भी नहीं समझा गया ,आजादी के बाद से अब तक न तो उन्हें सत्ता में भागी दारी मिली और न ही दो जून की रोटी की गारंटी |

मौजूदा क्रांति को सिर्फ सशस्त्र क्रांति के रूप में देखना बहुत बड़ी गलती होगी ,हाँ ये जरुर है कि इस जनांदोलन में माओवादियों की भागीदारी से हिंसा भी इसका एक हिस्सा बन गयी है ,लेकिन ये भी सच है कि अगर आज आप कथित तौर पर नक्सली आन्दोलन से प्रभावित इलाकों में जायेंगे तो वहां का आदिवासी अगर लोकतंत्र में विश्वास की बात नहीं करेगा तो वो हथियार उठाने की बात भी नहीं करेगा ,उसके मन में व्यवस्था के प्रति पैदा हुआ प्रतिकार अहिंसक होने के साथ साथ उग्र भी है जो कि किसी भी सफल क्रांति की पहली शर्त है |वो जीना चाहता है ,उसे तो सिर्फ पेट भर खाना और सर पर छत की जरुरत है ,मगर अफ़सोस उसके हिस्से में पहले जलालत भरी जिंदगी थी और अब गोली है |सिंहासन के पुजारी सर पर हाँथ रखकर गले लगाने की तरकीब भूल गए हैं ,सो अब जनता के आने की बारी है