शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

पा ,पत्रकारिता और पतन



आपमें से बहुतों ने 'पा' देखी होगी और उसमे भीड़ द्वारा , पत्रकारों की पिटाई का नजारा देखा होगा,हमने भी देखा |सच तो ये है वो एक दो सीन देखकर मुझे भी किसी दर्शक की तरह सकून मिला ,शायद अगर ऐसा रियल लाइफ में हुआ होता तो ये भूलकर कि मै भी एक पत्रकार हूँ मैंने उस टीवी एंकर का सर फोड़ दिया होता जो आम आदमी की दुश्वारियों को अपनी झूठी ख़बरों से और भी मुश्किल बना रहा था और एक व्यक्ति के ईमानदार प्रयासों को अपनी बेईमान ख़बरों से रौंदने का काम कर रहा था |'पा' के निदेशक बाल्की जी के साहस की हम दाद देना चाहेंगे कि ऐसी परिस्थतियों में जब मीडिया खुद को देश,देश के लोगों और देश की संस्थाओं का भाग्यविधाता मानता है उन्होंने ऐसा कथानक प्रस्तुत करने का साहस किया |ये स्टोरी सिर्फ प्रिज़ोरिया से जूझ रहे आरो की है बल्कि उस मीडिया की भी है जो मानसिक तौर पर प्रिजोरिया से भी घातक व्याधि से जूझ रहा है |ये फिल्म सीधे सीधे मीडिया के उन घोड़ों की पीठ पर पड़ी चाबुक है जिन्होंने अपने छोटे बड़े स्वार्थों के लिए ख़बरों की लैबोरटरी खोल रखी है वो लैबोरटरी जिसमे में सिर्फ ख़बरें पैदा की जा रही है बल्कि उन ख़बरों के जेनेटिक कोड भी बड़ी सफाई से बदले जा रहे हैं ,,लालगढ़ से लखनऊ तक ये नजारा आम है |विभिन्न अभिक्रियाओं से गुजरने के बाद समाचारों का जो चरित्र आम लोगों के बीच रहा है वो ५० की उम्र में घर से भागी हुई किसी अधेड़ औरत की तरह है जिसे तो अपने बच्चों की फिकर होती है ही उस पति की जो उसे सर आँखों पर बिठाकर रखता था |हम ये कहने में तनिक भी ऐतराज नहीं है कि कभी सत्ता तो भी अखबारी बनियों के हाथों इस्तेमाल होने की नियति ने मीडिया को आज खुद शोषण और उत्पीडन का औजार बना दिया है वो अपने आर्थिक हितों के लिए ख़बरों का तो इस्तेमाल करता ही है ,समूह के खिलाफ जाने से भी गुरेज नहीं करता| क्या ये सच नहीं है कि ,आज भी इलेक्ट्रनिक चैनलों की ख़बरों का ताना बाना देश के उन दस फीसदी लोगों के इर्द गिर्द ही केन्द्रित हैं जिनसे उन्हें टी.आर.पी में अव्वल रहने और धंधे में लाभ का सुख मिलता है ?क्या ये भी सच नहीं है कि अखबार विज्ञापनों से जुडी कमाई के लालच में नकारे नेताओं और पार्टियों को आम जनता पर जबरिया थोप रहे हैं ? सच तो ये है कि हमने खुद को शीशे में देखने का काम छोड़ दिया है हम अपने बदन से रिस रहे फोड़ों को जानबूझ कर अनदेखा कर रहे हैं ,ऐसे में सिर्फ सिनेमा के परदे पर बल्कि संसद के गलियारों से लेकर सड़कों तक हमें लतियाया जाना तय है |
पत्रकार और ब्लॉगर 'रविश कुमार ' अपने ब्लॉग में कहते हैं "'पा' घटिया स्तर से नीचे चल रही मीडिया पर लात-जूते बरसाती है बाहर की असली मीडिया में इस पर सन्नाटा। फ़िल्म की कहानी से घोर सहमति बता रही है क्या?"बिलकुल ये शत प्रतिशत सच है कि हम इस कहानी से सहमत हैं !और शायद हमारी चुप्पी ही आखिरी उम्मीद है |आज अगर हिंदुस्तान की मीडिया में कुछ अच्छा है तो वो सिर्फ ये है कि हम अपनी हकीकत जानते हैं और उससे सहमत भी हैं |ख़बरों के साथ खेले जाने का सिलसिला नया नहीं है इसकी शुरुआत आपातकाल के दिनों में ही हो चुकी थी हाँ अंतर ये जरुर आया कि पहले ख़बरों को जिन्दा रखने के लिए पैसे कमाए जाते थे आज पैसे कमाने के लिए ख़बरों का इस्तेमाल किया जा रहा है पहले राजनीतिक पार्टियाँ अखबार निकालती थी अब अखबार राजनैतिक दलों के लिए निकलने लगे |ट्रांस्फोर्मेशन की इस प्रक्रिया में जो कुछ खोया आम आदमी ने खोया ,उसने खोया जो खुद को हमेशा से ख़बरों का हिस्सा मानता रहा है ,उसने भी खोया जिसके लिए खबर ही आखिरी उम्मीद थे |
मेरी मुलाक़ात रोज ही ऐसे लोगों से होती है जो अपनी जिंदगी की छोटी बड़ी दुश्वारियोंसे निजात पाने के लिए मुझसे ख़बरें लिखने का अनुरोध करते हैं ,परासपानी का रामरथ बिजली कड़कने से अपने चार भैसों के मरने की खबर छपने की उम्मीद करता है तो कोन के श्याम सिंह को गाँव में मलेरिया से हो रही मौतों पर ख़बरों की जरुरत होती है ,बीरपुर का ललन फ़ोन पर अपने निर्दोष बेटे को हफ्ते भर से थाने में बैठाये जाने की खबर छपने की गुजारिश करने के लिए सबेरे से ही घर पर आया हुआ है ,कहने को तो ये आपको सामान्य और छापे जाने लायक ख़बरें लगती होंगी ,लेकिन हकीकत बेहद अलग है |मुझे याद है उन दिनों कि जब मै दैनिक जागरण में था एक दिन मुझे बुलाकर कहा गया कि आप उनके बारे में ख़बरें लिखें जो आपका अखबार पढता है उनके बारे में लिखें जिस आपका अखबार खरीदने की भी कुबत नहीं !ऐसा ही कुछ सच उस वक़्त भी मेरी आँखों के सामने आया जब जहरीले पानी से दस दिनों में हुई दो दर्जन मौतों को आई.बी,.एन -7 के मेरे मित्र ने लो प्रोफाइल बता कर कवरेज करने से इनकार कर दिया | अब आप खुद ही अंदाजा लगायें शहरों में रह रहे उन दस फीसदी लोगों के अलावा जिनके बारे में जो कुछ भी लिखा जा रहा है वो कितना इमानदार होगा |हमें कहना होगा आज देश में मीडिया सामन्तों की भूमिका अदा कर रहा है .एक ऐसा सामंत जिसके खिलाफ आवाज उठाने का साहस किसी के पास नहीं ,वो मनमानी करेगा और खूब करेगा |
पिछले - वर्षों से छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा अखबारों और पत्रिकाओं को दिए जाने वाले अरबों रुपयों के विज्ञापन की वजह सभी जानते हैं अगर आप ये सोच रहे हैं कि ये सरकार की छवि को साफ़ -सुथरा रखे जाने की कीमत है तो आप गलत हैं ,!ये सब कुछ नक्सली उन्मूलन के नाम पर किये जा रहे उत्पीडन ,शोषण ,विस्थापन और सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ों को छुपाये जाने की की कीमत है |ये भी एक हकीकत है कि मीडिया ने सत्ता के सामने घुटने टेककर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं पश्चिम बंगाल ,बिहार ,उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में दलितों ,आदिवासियों और समाज के निपढ तबके के खिलाफ काम किया है वरिष्ठ पत्रकार रूपचंद गौतम कहते हैं 'भारतीय पत्रकारिता ने दलित अस्मिता का जितना मजाक उड़ाया है है ,उतना शायद किसी और ने नहीं |मै रूपचंद जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ |और इस सहमति के तर्क भी मेरे पास मौजूद हैं| मै उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल सोनभद्र जनपद से हूँ जिसे देश की उर्जा राजधानी भी कहते हैं ,पिछले वर्षों के दौरान गरीबों ,विस्थापितों कि हजारों बीघे जमीन पर जेपी एसोसियेट ने सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर कब्ज़ा जमा लिया ,आदित्य बिरला के एलुमिनियम कारखाने में झुलसकर पिछले एक वर्ष के दौरान एक दर्जन मौतें हुई हैं ,कनोडिया केमिकल के विषैले जहर से हजारों पशुओं की मौत हो गयी ,वहीँ दो दर्जन आदिवासियों को भी अपनी जान गवानी पड़ी ,ये ख़बरें अख़बारों और टीवी चैनलों की कवरेज का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बन पायीं ,क्यूंकि जिनसे सम्बंधित ये ख़बरें थी उन्होंने करोडो खर्च करके ख़बरों का ही गर्भपात कर दिया |ऐसा सिर्फ यहाँ नहीं पूरे देश में हो रहा है,मगर हम चुप हैं ,ये जानते हुए भी कि देश की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ हमें गरिया रहा है बल्कि हाँथ में जूता लेकर भी खड़ा है |अब शायद समय गया है मीडिया के बीच में मीडिया से जुड़े मुद्दों पर जम कर चर्चाएँ की जाएँ ,वेब मीडिया ने इसकी शुरुआत की थी ,अब सिनेमा के पर्दों पर भी हमें शीशा दिखाया जाने लगा,आत्ममूल्यांकन के इस क्षण को अगर हमने गँवा दिया तो शायद फिर कभी वापसी हो सके |