शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

प्यार, मोहब्बत और कोका कोला के बीच


मानवीय संबंधों की कल्पना प्यार के बगैर नही की जा सकती ,आज के दौर में विकास की कीमत सिर्फ़ प्रकृति ही नही ,मानवीय रिश्ते भी चुका रहे हैं स्त्री पुरूष संबंधों के सन्दर्भ में माना जा रहा है की जीवन की सफलता (?)में प्यार -व्यार की दरकार ज्यादा नही ये क्या कम आश्चर्यजनक है की वैलेंटाइन डे में प्यार को ढूंढने और भजाने वाले तबके और साथ में समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने सेक्स को निजी अधिकार घोषित कर दिया है ,वे इसे मनचाहे ढंग से भोगने के हिमायती हैं ,यहाँ तक कि देह कि सौदेबाजी भी वैश्वीकरण का पर्याय बन गई है यही हालात रहे तो सेक्स में भी प्यार कि उष्णता नही बचेगी ,प्रेम तब केवल वैलेंटाइन डे जैसे निर्जीव उत्सवों में ,फाइलों और किताबों में मिलेगा,विलुप्त वन्य जीव प्राणियों के भांति ,चाँद और फिजा के भांति ऐसे में देश में प्रेमी युगलों का ,संवेदनाओं का और मानवता की हत्याओं का दौर अन्दर ही अन्दर चलता रहेगा ,और टूटन बदस्तूर जारी रहेगी ,चाहे हम प्रेम में कितना भी आधुनिक होने का दावा क्यूँ न करें आज हम उनकी बात करेंगे जिसने सभ्यता का विकास ,संस्कृति और परम्पराओं को रौंद कर नही किया ,उसने प्रकृति के अनुकूल अपनी लघुता और असहायता को विनम्रता से स्वीकार करते हुए प्रेम करना जारी रखा जी हाँ हम बात कर रहे देश के आदिवासी समाज कीयदि आज की शहरी सभ्यता के पास सच्चे प्यार की पूंजी दस फीसदी शेष है तो वनवासी सभ्यता के पास आज भी प्यार की पूंजी ५० फीसदी से ज्यादा है प्रेम के अलावा उनके पास कुछ भी न तो स्थायी है और न ही सुरक्षित सुख सुविधा नही है तो क्या हुआ प्यार तो है अंग्रेजी के कुछ शब्द जैसे लाइव इन रिलेशनशिप हम अपने खुलेपन के लिए प्रयोग करते हैं लेकिन खुलापन जब तक संवेदनाओं पर आधारित हो तब तक गनीमत हैआदिवासी सभ्यता में खुलापन पूरी संवेदना के साथ मौजूद है ,प्रेम की अपनी कोई भाषा नही होती यदि होती है तो वे मीठी बोली ही होती है वनवासी समाज में बोली का असर भी गोली की तरह होता है वे प्रेम में सब तकलीफ उठा सकते हैं कठोर बातें बर्दाश्त कर पाते नही भारत के गोंड वनवासी युवक से उसकी प्रेमिका कहती है - कच्चे सूत की लई लगी है धका लगे टूट जाई रे बालकपन से प्रीत जुटी है बात कहे टूटी जाई रे कच्चे धागे का बंधन जिस तरह खींचते लगते ही टूट जाता है उसी तरह बचपन की प्रीत एक ही कठोर बात से टूटकर बिखर जायेगी वनवासी समाज में जीवन का मतलब है 'उत्सव;उनके पास पहाड़ है ,पेड़ है ,पशु प्राणी हैं ऊँची नीची ,पथरीली ,कंकरीली असिंजित जमीं है प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और अनुकूल प्रकृति की ,कामना इसलिए की जाती है क्यूंकि हम आपस में प्यार कर सकें संपूर्ण झारखण्ड,छतीसगढ़,सोनभद्र ,मध्यप्रदेश के वनांचल में वनवासी या तो आपनी के लिए तड़पते हैं या प्यार के लिए प्रेम को वहां सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है ,क्यूंकि वह मात्र दैहिक स्वतंत्रता नही,न तो किसी तिथि को आयोजित भौड़ा प्रदर्शन है एक करमा गीत में एक युवक कहता है तोर चेहरा मैं ओ ,हाय हो रानी तोर चेहरा आर मोरो दिल बस गे रानी तोर चेहरा प्रिये,मेरा दिल तुम्हारी सूरत में बस गया है ,तुमने मुझे बुलाया ,मैं निश्चित स्थान पर पहुँच तुम्हारी राह जोतता रहातुम अपने साथी के साथ पलंग में झूलती रही ,मैं घर के पीछे खडा रहा ,आओ चलो घास के छोटे छोटे गट्ठे काट लेंगे और जंगल में झोपडी बनाकर अपनी प्यास बुझाएंगे आदिवासी समाज में 'घोटुल' की परम्परा टूट गई जहाँ युवक युवतियां प्रेम विवाह कर लेते थे ,वनवासी समाज ने तिलक ,दहेज़ तलाक को कभी मान्यता नही दी,वनवासी परिवारों में आज भी स्त्री ही केंद्रीय शक्ति है ,ज्यादातर काम भी वही करती है ,पत्थर के साथ पत्थर ,मिटटी के साथ मिटटी बन जाती है ,फ़िर भी उसके मन में प्रेम का सोता झिरता रहता है वनवासी समाज में प्यार का मतलब है समर्पण ,तनिक सा स्वार्थ रिश्ते को तोड़ देगा अगर पहाड़ से गिरोगे तो बचोगे नही ,टूटे रिश्ते और पत्ते कभी नही जुड़ते ,विपरीत परिस्थितियों में भी प्रेम की ताक़त से जीने की कला जीवन संघर्ष की प्रेरणा,दुःख सुख को बाटने की मानवीय तकनीक हमें वनवासी ही सिखाते हैं वे हमें ये भी सिखाते हैं की वैलेंटाइन डे जैसे उत्सव हमारे स्वभाव,संस्कार और जीवन के अनुकूल नही हो सकते प्यार ,मोहब्बत कोकाकोला नही है की प्यास बुझाओ ,बोत्तल फेंको और चल दो ,ये पानी की तरह है ,जीवनदायक है निर्मल है,शीतल है ,हाँ और शाश्वत है