गुरुवार, 28 जनवरी 2010

वो आज भी क्लास की पिछली सीट पर बैठते हैं

वो आज भी क्लास की पिछली सीट पर बैठते हैं ,आज भी उन्हें अपने जैसे ही अन्य छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने से डर लगता है ,आज भी उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि किसी भी वक़्त किसी भी बात को लेकर उनकी सारी काबिलियत को धत्ता बताए हुए ,उनके सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया जायेगा ,हम बात कर रहे हैं दलितों की सरकार में दलित छात्रों की |आज भी प्रदेश के सभी मेडिकल कालेजों में सर्वाधिक सप्लीमेंट्री दलित छात्रों की ही लगती हैं आज भी उन्हें सेशनल में अन्य छात्रों से कम नंबर मिलते हैं ,आज भी इंजीनियरिंगके क्षेत्र में किये गए उनके महत्वपूर्ण शोधों को उनके प्राध्यापक नकार कर उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर देते हैं |चंदौली पोलिटेक्निक में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का छात्र राकेश कॉलेज के मेस में खाना नहीं खा सकता ,वो और उसके साथी किसी भी सवर्ण छात्र के साथ एक कमरे में हीं रह सकते ,लखनऊ स्थित आई टी में पिछले वर्षों के आंकड़ों को देखा जाए तो प्रोजेक्ट वर्क में सबसे कम नंबर दलित छात्रों को ही मिले हैं ,यहाँ के छात्र हमेशा खौफ में रहते हैं कि कब उनके स्वर्ण प्राध्यापक का डंडा उनके ऊपर चल जाए |रैगिंग का भी सर्वाधिक शिकार दलित छात्र ही होते हैं ,काशी हिन्दू विश्वव्दियालय के नवागत छात्रों ने बातचीत के दौरान बताया कि सेनियर छात्रों द्वारा उनकी रैगिंग के दौरान सिर्फ उनकी पिटाई की जाती थी ,बल्कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग कर तरह तरह से मानसिक उत्पीडन भी किया जाता था ,इतनी दहशत पैदा कर दी जाती थी की वो इसकी शिकायत किसी से भी कर सकें |हालाँकि फिर भी हिम्मत करके कुछ एक छात्रों ने प्राथमिकी दर्ज करायी और पुलिस द्वारा कार्यवाही भी की यी ,लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि प्राथमिकी दर्ज कराने वाले छात्रों का अन्य छात्रों ने बहिष्कार कर दिया,हमीरपुर में पोलिटेक्निक के नवागत दलित छात्रों को रैग्गिंग का दौरान चलती ट्रेन के सामने नंगा होने को कहा गया |

क्या इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज क्या सरकारी गैर सरकारी विश्वविद्यालय हर जगह माहौल पहले जैसा ही है ,उत्तर प्रदेश में जाति-बिरादरी के नाम पर सरकारें तो बार बार बनी ,लेकिन इन सरकारों से तो इन उच्च शिक्षण संस्थाओं का चरित्र बदला और ही दलित छात्रों के लिए जाति बिरदारी का दुश्चक्र तोडना संभव हो पाया ,सत्ता ने आरक्षण देकर उनका कैम्पस में प्रवेश तो आसान बना दिया लेकिन हालात फिर भी ज्यों के त्यों रहे |सबसे दुखद ये रहा कि विश्विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं में छात्रों के साथ हो रहे जातिगत मतभेद को प्राध्यापकों और प्रबंधन ने ही बढ़ावा दिया,अभी हाल में ट्रिपल आई टी इलाहाबाद में जब तीन दलित छात्रों को निकला गया तो पाता चला कि इस बड़े तकनीकी संस्थान में सभी शिक्षक सवर्ण है इस स्वयात्साशी संस्था में निदेशक ने अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए कभी किसी पिछड़े या दलित शिक्षक को संस्था में प्रवेश ही नहीं दिया |यही हाल कानपुर विश्विद्यालय का है ,जहाँ शोध के तमाम छात्र अपनी बिरादरी की वज से सालों सालों से अपने गाइड की चरण वंदना कर रहे हैं ,लेकिन शोध है कि पूरा नहीं होता वहां के एक छात्र कहते हैं हम लाख मेहनत कर लें,उन्हें हमारे काम में कमी ही नजर आती है | गाजियाबाद स्थित एक प्रबंध संस्थान ने तो सारी हदें पार करते हुए एक दलित छात्र प्रेम नारायण को सिर्फ प्रवेश देने से इनकार दिया,बल्कि उसे अन्य छात्रों के सामने संस्थान के प्रिंसिपल द्वारा भद्दी भद्दी गालियाँ भी दी गयी ,कसूर सिर्फ ये था की उसके पास डोनेशन के लिए दिए जाने वाले ४५ हजार रूपए मौजूद नहीं थे ,हलाकि बाद में इस मामले में प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी |सिर्फ इतना हे नहीं है दलित छात्रों को उनके लिए निर्धारित स्कोलरशिप देने में तम तरह के रोड़े अटकाए जाते हैं प्रदेश सरकार ने इंजीनियरिंग, मेडिकल तथा व्यवसायिक महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत अनुसूचित जाति, जनजाति के छात्र-छात्राओं से प्रवेश के समय शुल्क लिए जाने के लिए पूर्व में एक शासनादेश जारी किया था ,मगर अफ़सोस कोई भी स्वायतशासी उच्च शिक्षण संस्थान या फिर मान्यता प्राप्त निजी विद्यालय इस आदेश का पालन नहीं करते |

शिक्षण संस्थाओं में बेहद आश्चर्यजनक ढंग से मौजूद जाति -पाति का ये ताना बाना अपने साथ शोषण और उत्पीडन के तमाम अनकहे किस्से तो तैयार कर ही रहा है ,एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसमे जाति बिरादरी की वजह से हाशिये पर धकेल दिए जाने और तमाम अवसरों से वंचित किये जाने की कुंठा उनकी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी है |मौजूदा व्यस्था में फिलहाल इस कुंठा का कोई परिमार्जन नहीं दिखता ,आरक्षण या दलितों के वोट बैंक से बनी सरकार के माध्यम से तो बिलकुल ही नहीं |

कहानी अनूप की
अनूप कुमार ने जिस साल इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया उसी साल मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आईं थीं. पहले ही दिन फिजिक्स के लेक्चरर ने एससी/एसटी कोटे के तहत दाखिला पाने वाले छात्रों को खबरदार कर दिया. उनके शब्द थेबेहतर होगा कि वे मेहनत कर लें,क्योंकि उनकी कॉपियां मैंने जांचनी हैं, मायावती ने नहीं.’तब तक अनूप को थोड़ा-बहुत अंदाजा हो चुका था कि दलित होने का मतलब क्या होता है. धोबी समुदाय से ताल्लुक रखने और लखीमपुर खीरी के रहने वाले उनके पिता अपनी पीढ़ी के पहले ऐसे व्यक्ति जिन्हें हिंदी,संस्कृत और उर्दू में महारत
हासिल थी. मगर तमाम गुणों के बावजूद उन्हें 70 के दशक में खंड विकास अधिकारी या बीडीओ के पद से इस्तीफा देना पड़ा. गांववाले उन्हें अछूत कर पानी तक पीने को नहीं देते थे और वरिष्ठ अधिकारियों को उनकी विद्रोही और खरी जबान नहीं भाती थी.हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए जब अनूप लखनऊ के एक स्कूल में भर्ती हुए तो उन्हें पता था कि उन्हें क्या करना है. उन्होंने खुद को राजपूत बताना शुरू किया.मगर नकलीपन ओढ़ते ही उन्हें ये भी अहसास हो गया कि इसकी कोई सीमा नहीं है. अब उन्हें नकली गोत्र जैसी और भी चीजों को याद रखना था.कानपुर में कॉलेज में दाखिला लेते वक्त तक अनूप को पता चल चुका था कि पढ़ाई में उनके अब तक के शानदार रिकॉर्ड के बावजूद लेक्चरर ये जताने से नहीं चूकने वाले कि वे उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं करते. उनके भीतर का विरोध अब बाहर आने लगा. सेकेंड ईयर में उन्होंने दलित फ्रेशर्स के लिए एक वेलकम पार्टी कॉलेज से सात लोमीटर दूर आयोजित करवाई क्योंकि वे कॉलेज में जातिगत आधार पर काम करने का आरोप नहीं झेलना चाहते थे. थर्ड ईयर तक आते-आते अनूप का नाम लेज कैंपस में मारपीट के लिए जाना जाने लगा था. उन्होंने ये सुनिश्चित किया कि वे अक्सर बदमाश टाइप लोगों के साथ नजर आएं ताकि कोई दलित छात्रों के साथ रैगिंग के नाम पर बदतमीजी कर सके. उसी साल उनके एक दोस्त को ऊंची जाति के कुछ छात्रों ने इतना पीटा कि पेट और आंखों में गंभीर चोटों के साथ उसे अस्पताल पहुंचाया गया. हर किसी ने इसके लिए ये कहते हुए अनूप को जिम्मेदार ठहराया कि उन्होंने कैंपस में एक ऐसा माहौल बना दिया है जिसमें दलितों को लगता है कि वे अपनी पहचान पर डटे रह सकते हैं.इसके कुछ ही हफ्ते बाद अनूप के सामने ही एक प्रोफेसर किसी दलित छात्र की खिंचाई कर रहे थे. सालों का उबलता गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने प्रोफेसर की पिटाई कर दी. कानूनी पचड़ों के डर से
कॉलेज ने अनूप को निकाला तो नहीं मगर उन्होंने अपने पिता से कह दिया, ‘अगर आपने मुझसे यहां रुकने को कहा तो या तो मैं किसी को मार दूंगा या कोई मुझे मार देगा.’ दुखी पिता और तीन भाई,जिन्होंने उनकी पढ़ाई पर काफी पैसा लगाया था उन्हें घर ले आए.एक दशक बाद 32 साल के अनूप अब पीएचडी करने की सोच रहे हैं.जीवंतता से किसी चीज का वर्णन उनकी खासियत है. वे उनसे नफरत नहीं करते जिन्होंने उन्हें परेशान किया और कहते हैं कि दोष उनका नहीं सामाजिक व्यवस्था का है. दलित छात्रों के लिए पिछले पांच साल से वे इनसाइट यंग वॉयसेज के नाम से एक पत्रिका
निकाल रहे हैं जो देश के 50 विश्वविद्यालयों में छोटी ही सही पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है. नेशनल दलित स्टूडेंट्स फोरम बनाने में उनकी प्रमुख
भूमिका रही.|


ये थ्री, इडियट्स नहीं हैं !
-ये तीन हैं ,मगर इडियट्स नहीं हैं और ही किसी ७० एमएम की फिल्म के हीरो हैं जिनकी अदाकारी पर आप ताली बजाएं ,ये तीन देश के सर्वाधिक मेधावी छात्रों में से एक हैं |इनमे से एक के .सुशील ने शनिवार शाम छात्रावास परिसर में आत्महत्या की कोशिश की है , कृष्णमोहन ने पिछले ४८ घन्टों से खुद को कमरे में बंद कर रखा है,वहीँ ज्ञानेंद्र के पास अपनी विधवा माँ के सवालों के उत्तर में सिर्फ आंसू हैं , देश के सर्वश्रेष्ठ प्रौद्योगिकी संस्थानों में से एक भारतीय सूचना प्रोद्योगिकी संस्थान इलाहाबाद के इन होनहार छात्रों की इस हालत की वजह सिर्फ ये है कि बदकिस्मती से दलित इन छात्रों ने अपने संस्थान के निदेशक द्वारा संस्थान के ही एक विद्वान प्राध्यापक की मनमाने ढंग से असमय सेवा समाप्ति के आदेश को लेकर - मेल्स किये थे ,जिसका खामियाजा इन्हें विश्ववद्यालय से निलंबन के साथ साथ पिछले दिनों से बंधक बनकर चुकाना पड़ रहा है |महत्वपूर्ण है कि ज्ञानेंद्र सुचना प्रोद्योगिकी से सम्बंधित एक बेहद महत्वपूर्ण विषय पर शोध कर रहे है वहीँ अन्य दो छात्र के सुशील और कृष्णमोहन संस्थान से ही एम -टेक कर रहे हैं |इस पूरे मामले पर जब हमने कांग्रेस के एक बड़े नेता के करीबी और अपनी संपत्ति से सम्बंधित सूचना देने के आरोप में सूचनाधिकार कानून के तहत दण्डित निदेशक एम.डी तिवारी से बात कि तो उन्होंने झेंपते हुए पहले तो सुशील द्वारा आत्महत्या की कोशिशों की जानकारी की बाद स्वीकार कर ली लेकिन बेहद शर्मनाक तरीके से निलंबन पर पैंतरा बदलते हुए कहा कि हमने इन छात्रों को प्राध्यापक यू .एस .तिवारी समबन्धित .मेल भेजने की वजह से नहीं हटाया है इसकी वजहें और हैं ,बहुत पूछे जाने पर भी उन्होंने उन वजहों का खुलासा नहीं किया |यहाँ ये बात काबिलेगौर है कि ऑक्सफोर्ड विश्विद्यालय से प्रकाशित अभियांत्रिकी की कई किताबों के लेखक यू.एस .तिवारी की मनमाने ढंग से सेवा समाप्ति सिर्फ इसलिए की गयी थी क्यूंकि उन्होंने संस्थान में निदेशक द्वारा की जा रही मनमानी पर बार बार अपनी आपति जताई थी |
आइये आपको सिनेमा से अलग वास्तविक पटल पर एक सच्ची घटना सुनाते हैं, ये घटना देश के बड़े शिक्षण संस्थानों में जाति बिरादरी के नाम पर किये जा रहे भेदभाव का सच तो बयां करती ही है ,प्रोफेसरों और प्रबंधन द्वारा छात्रों से किये जा रहे बेहद संवेदनहीन और जानवरों जैसे बर्ताव पर से भी पर्दा उठाती है |ज्ञानेंद्र ,के .सुशील और कृष्णमोहन को इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं था कि अपने गुरु के लिए आवाज उठाने की कीमत उन्हें यूँ चुकानी पड़ेगी ,[पिछले महीने के २२ दिसंबर को ट्रिपल आई टी के प्रोफेसर युस.एस तिवारी की जबरन सेवा समाप्ति से सम्बंधित सूचना जैसे ही पूरी दुनिया में फैले संस्थान के पूर्व छात्रों की मिली , इन पूर्व छात्रों ने एक प्रोफेसर तिवारी के समर्थन में एक संयुक्त बयान जारी कर उसे .मेल के जरिये चारों और फैला दिया ,ऐसा ही मेल जब संस्थान के वर्तमान छात्रों को मिला तो पूरे संस्थान के छात्र अपने प्रिय प्रोफेसर के समर्थन में एकजुट होने लगे यही बात निदेशक एम.डी तिवारी को बुरी लगी ,मगर सवाल ये था कि इस चिंगारी को आग में तब्दील होने से कैसे रोका जाए ?वो भी तब जब हर एक छात्र प्रोफेसर के समर्थन में एकलव्य की तरह अपने हाँथ का अंगूठा लेकर खड़ा था |फिर क्या था निदेशक द्वारा मनमाने ढंग से एक जांच कमेटी बना दी गयी कमेटी का सच ये था कि चार सदस्यीय इस कमेटी में तीन सदस्य ब्राम्हण थे ,जिनमे से एक कांग्रेसी नेता प्रमोद तिवारी की पुत्री भी थी वहीँ एक सदस्य अनुपमअग्रवाल हमेशा से चर्चाओं में रहे हैं |
जांच कमेटी की मनमानी के बारे में बताते हुए संस्थान का ही छात्र और निलंबित छात्रों का एक मित्र बिलख पड़ता है वो बताता है "के .सुशील ने तो कुछ किया ही नहीं था ,उसे बार बार डराया धमकाया जा रहा था ,जब उसने इस .मेल प्रकरण में किसी अन्य छात्र का नाम लेने से इनकार कर दिया तो उससे जबरन कागज़ पर साइन लेकर निलंबित कर दिया गया ,वहीँ ज्ञानेंद्र और कृष्णमोहन से तो पहले इस गलती को स्वीकार कर भविष्य में ऐसी गलती दोहराने का शपथपत्र लिया गया ,लेकिन फिर उन्हें भी निलंबन का कागज़ थमा दिया गया ,संस्थान के ज्यादातर छात्रों का कहना था कि निदेशक द्वारा जानबूझ कर दलित छात्रों के खिलाफ कार्यवाही की गयी हैं गौरतलब है कि यू.एस तिवारी के निर्देशन में जितने भी छात्र अधयन्न कर रहे थे जिनमे से ये तीन ही दलित थे|
निदेशक द्वारा अपने निलम्बन आदेश में इन छात्रों को इलाहाबाद से बाहर जाने के साथ साथ ,कैम्पस में कम्पूटर का इस्तेमाल किये जाने के भी निर्देश दिए गए हैं ,साथ ही इन छात्रों की स्कालरशिप भी रोंक दी गयी है ज्ञानेंद्र के मित्र बताते हैं उसकी माँ महज १५ सौ रूपए पेंशन के पाती है वहीँ आंध्र के रहने वाले सुशील और केरल के कृष्णमोहन के घर की भी आर्थिक स्थिति बेहद खराब है,ऐसे में ये छात्र क्या करें कहाँ जाएँ ?सुशील की आत्महत्या की असफल कोशिशों से पूरे कैम्पस में दहशत का माहौल है ,ताजा आलम ये था कि डरे हुए इन छात्रों से मिलने के लिए हमें होस्टल का पता बताने वाले गार्ड तक को नौकरी से हटा दिया गया है ,वहीँ निदेशक मुरलीधर तिवारी अपने आवास पर आयोजित प्रीतिभोज का लुत्फ़ उठा रहे हैं

बनारस में बेबस दलित छात्र
सब कुछ शायद छुपा हुआ है, और उजाले ने अँधेरे को ढक दिया है...ऐसा ही कुछ हम शायद हम सोचेंगे अगर दलित छात्रों पर नज़र डालें. बाहर से सब कुछ तो सधा हुआ और इनके पक्ष में होता दिखाई देता है, लेकिन "आशीष", "संतोष", "अभिनव", जैसे छात्रों की बातें सुनाने पर सच सामने आता है.

आशीष वर्मा, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विज्ञानं से स्नातक का अंतिम वर्ष का छात्र है, नाम में "वर्मा" सुनकर जौहरी खानदान दिमाग में आता है लेकिन आशीष कसेरा है. उसका कहना है कि सुविधाएं तो सिर्फ कागजों पर मिलती हैं, केंद्रीय विश्वविद्यालय में दाखिले के वक़्त उसे आरक्षण भी मिला लेकिन आगे की कहानी आम है, फीस की जद्दो-जहद और हॉस्टल का खर्च सब कुछ अपने पर ही कुल मिला-जुला कर आता है.

संतोष भारती, उदय प्रताप कॉलेज में वाणिज्य का छात्र है, वो अपने स्थिति के बारे में स्वयं उतना नहीं कहता जितना कि उसकी स्थिति और उसके जीने का सलीका कहता है. घर बहुत ही ज़्यादा दूर है, लगभग १५ किलोमीटर, किसी भी मौसम में उसे साइकिल से आना पड़ता है, कालेजों और महाविद्यालयों में इनका कोई ध्यान दिया जा रहा है, ये बस ऐसे ही जिये जा रहे हैं, इनके लिए तो फीस में कोई छूट है और तो हॉस्टल में कोई कमरा खाली.

अभिनव की कहानी तो बहुत ही छोटी है लेकिन है बहुत ही दर्दनाक.उसके अनुसार उसकी रैगिंग उसका नाम पूछकर होती है और कई बार उसे बचने के लिए अपना नाम बदलकर बताना पड़ता है.

ये सब कुछ ऐसी बातें हैं, जो हमें, हमारे तंत्र को और सरकार को याद दिलाना चाहता है, कि हमारी भी कुछ बातें हैं जो सुनी जानी चाहिए. ये सारा तबका समाज में अपनी बलशाली और गहरी उपस्थिति दर्ज करना चाहता है, बशर्ते उन पर थोडा ध्यान दिया जाये.