गुरुवार, 26 मार्च 2009

माओवादियों का मायामोह


आतंकी हमलों से थर्रा रहे देश में लोकतंत्र की हत्या की तैयारियां शुरू हो गयी है ,कत्ल भी उन हाथों के द्वारा जिन्हें हमने ,खुद पर शासन करने का अधिकार दिया गुंडों माफियाओं को संसद और विधानसभाओं के गलियारों का सुख दिलाने में फिलहाल कोई राजनैतिक दल पीछे नहीं है लेकिन हम जो आपको आज सुनाने जा रहे हैं वो हिन्दुस्तान के ,मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य की हकीकत है तो लोकतंत्र में विश्वास रखने वालो के मुँह पर तमाचा, ये वो सच है जिससे हम राजनीति का सबसे खौफनाक अध्याय कह सकते हैं उत्तर प्रदेश की सत्ता संभालने वाली बहुजन समाज पार्टी ने पहले दलितों से परहेज किया फिर सर्वजन का नारा देकर उसे भी किनारे कर अपराधी-माफियाओं का साथ लिया और अब जैसे जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आता जा रहा है बसपा ने देश भर में अशांति फैलाने वाले नक्सलियों का साथ लेना शुरू कर दिया है .लोकतान्त्रिक देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए किस्म किस्म के अलोकतांत्रिक तरीके अख्तियार करने से मुख्यमंत्री मायावती चूक नहीं रही ,चुनावी महासमर में माफियाओं की हनक को भुना रही बसपा आतंक का सृजन करने वाले माओवादियों से मदद लेने में भी हिचक नहीं रही .देश में रक्तक्रांति के बल पर समता स्थापित करने की बात कहने वाले माओवादियों ने इस लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को समर्थन देने का फैसला किया है इससे न केवल बसपा बल्कि नक्सली संगठनों के वैचारिक दिवालियेपन का पर्दाफाश हो रहा है देश के आदिवासी इलाकों में इससे नए किस्म का तनाव पनप रहा है ,सो अलग.
माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के टॉप कैडर उत्तर प्रदेश,बिहार झारखण्ड,मध्य प्रदेश और बिहार के अति नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बसपा प्रत्याशियों के पक्ष में माहौल तैयार कर रहे हैं ,हथियार बंद नक्सली गांव -गांव घूम घूमकर ग्रामीणों को बसपा के पक्ष में मतदान करने का हुक्म सुना रहे हैं और वोट न देने की स्थिति में आदिवासियों को सजा भुगतने की धमकी दी जा रही है. गौरतलब है की बहुजन समाज पार्टी ने झारखण्ड के गढ़वा सीट से पिछले उप चुनाव में कुख्यात नक्सली व पांच लाख के इनामी एरिया कमांडर कामेश्वर बैठा को मैदान में उतारा था हालाँकि उत्तर प्रदेश के नौगढ़ इलाके में पी.ए.सी की ट्रक उडाने के साथ साथ ७० से ज्यादा पुलिसकर्मियों की हत्या का आरोपी चुनाव जीतने में असफल रहा माओवादियों के समर्थन से बसपा अति उत्साहित है स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मायावती ने घोर नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है जबकि बसपा का वहां जनाधार नही है,वहीँझारखंड,बिहार,मध्यप्रदेश में भी उन्ही सीटों पर उमीदवार खड़े किये जा रहे हैं जिन पर नक्सालियों का आतंक चरम पर है.
जहाँ तक उत्तर प्रदेश का प्रश्न है दलितों की मसीहाई का दावा करने वाली बसपा कुख्यात नक्सालियों के दम -ख़म पर आदिवासी-गिरिजनों के वोट हासिल करेगी नक्सली कमांडर शत्रुघ्न की मौत के बाद उत्तर प्रदेश -बिहार -झारखंड सब जोनल एरिया की बागडोर थामे लाल्व्रत कॉल ,मुन्ना विश्वकर्मा एवं कमलेश चौधुरी का गैंग कई टुकडियों में गांव -गांव घूम रहा है एवं बैठकें कर आदिवासी दलितों का माइंड वाश कर रहा है आदिवासियों में नक्सलियों का आतंक इस कदर है कि कई इलाकों में सारे के सारे वोट बसपा के पक्ष में फिक्स हो रहे हैं इस बात की भी पक्की खबर है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में बसपा के संभावित प्रत्याशियों ने अपने अपने माध्यमों से नक्सली संगठनों को समर्थन का पैगाम भेजा है यहाँ तक कि इस पूरे गठजोड़ की जानकारी बसपा के शीर्ष लीडरों को भी है ,यह भी पता चला है कि चुनावों के दौरान माओवादियों ने उन सभी सीटों पर किसी भी वारदात को अंजाम न देने का फैसला किया है ,जिन सीटों पर बसपा के प्रत्याशी मैदान में हैं समझा जाता है कि इसके एवज में पुलिस किसी भी वाँछित नक्सली पर कोई कार्यवाही नहीं करेगी ,यह भी हो सकता है कि माओवादी उत्तर प्रदेश में अगले दो सप्ताह के दौरान अपने कुछ कारकूनों को पुलिस के सुपुर्द कर दे,सूत्रों से खबर मिली है कि पिछले एक सप्ताह के दौरान नक्सली कमांडरों ने उत्तर प्रदेश की बिहार से सटी सीमा में घुसकर आधा दर्जन बैठके की हैं ,हालाँकि पुलिस इससे साफ़ इनकार कर रही है पूरे देश में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का विरोध करने वाले नक्सली बहुजन समाज पार्टी का जिस किसी कीमत पर समर्थन कर रहे हैं ,इसका खामियाजा आने वाले समय में पूरे देश को भुगतना पड़ सकता है.

मंगलवार, 17 मार्च 2009

लोकतंत्र के उत्सव में चुनाव आयोग का मर्सिया



विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र में नयी सरकार का गठन होने को है ,एक बार फिर चुनावी महाभारत में जनता को अपने मताधिकार के अस्त्रों का प्रयोग करना है लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण के मतदान में अब जबकि मात्र ३० दिन रह गए हैं फिर भी पूरे देश में चुनाव का माहौल कहीं नजर नहीं आ रहा है ,अलबत्ता समूचे देश में विकास और कल्याण की योजनाओं पर पाबंदी जरुर लग गयी है ,आचार संहिता लागू होने से प्रत्याशियों और पार्टियों का वास्तविक खर्च कम हुआ है या नहीं हुआ है ये तो अलग विषय है लेकिन जनता के लिए मुश्किलों का एक और दौर शुरू हो गया है आलम ये है की लोकतंत्र का उत्सव चुनाव आयोग की नीतियों की वजह से आम हिन्दुस्तानियों का मर्सिया बना गया है चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था होते हुए भी नौकरशाहों द्वारा ही संचालित होती है .भारत में नौकरशाही हर मामले में दमनकारी और दंडात्मक प्रक्रिया अपनाती है चुनावों के मामले में भी यही हो रहा है ये क्या कम शर्मनाक है कि आयोग के लम्बे चौडे दावे के बावजूद देश की आधी आबादी अपने मताधिकार का ही प्रयोग नहीं कर पाती ,मगर आयोग शर्म से अपना मुँह पीटने के बजे लोकतंत्र का मसीहा बन जाता है
अभी पिछले महीने में उत्तर प्रदेश के भदोही जनपद में उपचुनाव की कवरेज कर रहा था ,उस दौरान पूरे विधान सभा क्षेत्र में पेयजल की समस्या काफी चर्चा में थी वहां फ़रवरी माह के प्रारंभ में ही आचार संहिता लागू कर दी गयी ,सूखे हुए और टूटे हुए हैण्ड पम्पों की मरम्मत का काम पुलिस ने रोक दिया ,जल निगम के वाहनों को मरम्मत के सामान सहित थाने में खडा कर दिया गया ,इसके बाद लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लागू हो गयी ,इस इलाके में दो माह तक हैण्ड पम्प सूखे रहेंगे ,और लोग बूँद बूँद को तरसेंगे ये तो केवल एक बानगी है समूचे देश में बुनियादी जरूरतों को लेकर हाहाकार की स्थिति है ,अगले तीन महीनो तक देश के नौकरशाह सीने पर मूंग दलेंगे और ये हालात बने रहेंगे अब आप ही बताइए की क्या हैण्ड पम्पों की मरम्मत से भी आचार संहिता का उल्लंघन होता है ?क्या दूर दराज के गांवों में डाक्टर्स के जाने से आचार संहिता का उल्लंघन होता है ?
चुनाव प्रचार के प्रमुख उपकरण हैं झंडे ,पोस्टर ,बैनर ,पर्चे , ध्वनि विस्तारक यन्त्र आदि ,हम सब पर पाबंदी है ,यदि हम किसी पार्टी के समर्थक है तो हमें अपने घर पर झंडा लगाने से क्यों रोका जाना चाहिए ?पूरे विश्व में चुनाव प्रचार के दौरान झंडों का प्रयोग किया जाता है ,सार्वजानिक जगहों पर पूरे पांच साल तक होर्डिंग्स लगते हैं ,अभी चुनावों की घोषणा से ठीक पहले पूरे लखनऊ शहर में केवल मायावती और अखिलेशदास ही नजर आ रहे थे ,वहीँ दिल्ली शीला दिक्षित और सोनिया गाँधी के बैनरों से पटी पड़ी थी ऐसे में चुनाव के दौरान सशुल्क होर्डिंग्स क्यूँ नहीं लगाये जाने की इजाजत दी जाती दरअसल झंडे पोस्टरों के बिना चुनाव का माहौल नहीं बन पाता,न तो छोटी मोटी सभाएँ हो पाती हैं और न तो प्रचार जोर पकड़ता है ,चुनाव आयोग एक तरह का मार्शल ला लगाकर मतदाताओं से अधिकतम वोट प्रतिशत की उम्मीद करता है ,ये कैसे संभव है ?
सच तो ये है की देश के एक चौथाई मतदाता सूचियों की खामी के कारण वोट नहीं डाल पाते अब तक एक पूरी आबादी को पहचानपत्र नहीं मिला ,इसको लेकर कोई इमानदार कवायद कभी नजर नहीं आई दरअसल चुनाव प्रचार का जो खर्च अभी तक कार्यकर्ताओं तथा अन्य लघु व्यापारियों तक पहुँचता था वह अब वोट के ठेकेदारों को मिल जाता है ,जाति और सम्प्रदाय के दावेदारों तथा दलालों का कोई नुक्सान नहीं होता,टीवी चैनलों पर अरबों के विज्ञापन आ रहे हैं किन्तु गांवो शहरों में सन्नाटा है , लोकतंत्र के उत्सव का यह उदास चेहरा जन-संवाद को भी नीरस बना देता हैचुनावों को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाये रखने के लिए न तो विकास कार्य रोकने की जरुरत है न तो बैनर,पोस्टर सभा पर पाबंदी लगाना आवश्यक है ,जनसंपर्क और जन संवाद का खुला माहौल बनाना भी आयोग का कर्त्तव्य है

शनिवार, 7 मार्च 2009

चुल्हा चक्कड़ और चौथी दुनिया की कवितायें


अगर आप हिंदी कविता के मायने समझते हैं ,उससे पसीज रहे मर्म को महसूस कर रहे हैं तो क्या आप रश्मिप्रभा,अरुणा राय ,ज्योत्स्ना पाण्डेय,जेन्नी शबनम ,संगीता ,आभा क्षेत्रपाल,श्रद्धा जैन ,अनीता अग्रवाल , प्रीति ,वर्तिका को जानते हैं ? , अगर आप इन्हें नहीं जानते या इनके जैसी उन अन्य महिलाओं को नहीं जानते जो घर के चुल्हा चक्कड़,काम काज के अलावा हर पल कविता को न सिर्फ जी रही हैं बल्कि की -बोर्ड से बातें करते हुए उसे नए आयाम दे रही हैं तो आप हिंदी साहित्य के एक बड़े और ऐतिहासिक परिवर्तन से अछूते हैं |पिछले तीन दशकों में हिंदी साहित्य में कविताओं का प्रस्त्तुतिकरण बदला ,पात्र बदले ,परिदृश्य बदला ,लेकिन कविता कहने वाले ,लिखने वाले और पढने वाले स्थिर रहे ,पठनीयता के घोर संकट के बावजूद कवितायेँ लिखी गयी ,मगर अफ़सोस कवियों,पाठकों,और उनको प्रकाशित करने वाले एक जमात का हिस्सा बन गए एक ऐसी जमात जिसमे अन्दर झाँकने का साहस किसी भी बाहर वाले को नहीं था चाहे वो स्त्री हो या पुरुष |कविता के इस हाराकिरी के बीच इन्टरनेट आया ,अभिव्यक्ति आसान हुई इन्टरनेट ने आम हिन्दुस्तानी के जीवन जीने का ढंग बेहद द्रुत गति से बदल दिया लेकिन साहित्य के क्षेत्र में सबसे बड़ा परिवर्तन जो हुआ वो ये था कि दुनिया उन महिलाओं को पढने लगी जिन्हें वो जमात और खुद हम सब सिर्फ रसोई घर और नौकरी चाकरी करने वाली अक्सर बंद कमरे में रहने वाली औरत समझते थे |इन्होने लिखा और खूब लिखा जम कर लिखा ,आप यकीं मानिये यहाँ इन्टरनेट पर भारत का सबसे उन्नत साहित्य लिखा जा रहा है ,जिसे न पढना और न जानना कविता के अस्तित्व के लिए भी चुनौतियाँ पैदा कर देगा |ये एक मंच परएक साथ खड़ी है ,इनमे तेजी के साथ सहेलीपना भी पनप रहा है इन्हें न तो नामचीन पत्रिकाओं में छपने का शौक है और न बड़ी सम्मेलनों की दरकार |
रश्मिप्रभा को ज्यादातर लोग माँ कहते हैं ,फौजी बेटे की माँ रश्मिप्रभा ज्यादातर वक्त ढेर सारे बच्चों की माँ होती हैं या फिर एक कवियत्री |वे खुद कहती हैं 'अगर शब्दों की धनी मैं ना होती तो मेरा मन, मेरे विचार मेरे अन्दर दम तोड़ देते...मेरा मन जहाँ तक जाता है, मेरे शब्द उसके अभिव्यक्ति बन जाते हैं, यकीनन, ये शब्द ही मेरा सुकून हैं...'जी हाँ सही कहती हैं रश्मि यकीं न हो तो रश्मि की कविता 'शब्द 'की ये चार पंक्तियाँ पढें -
सांय सांय चलती हुई हवा से
उड़ता हुआ एक शब्द
मेरे पास आ गिरा

असमंजस में रही
उठाऊं या नहीं

आँखें मींच ली
पर शब्द के इशारे होते रहे
निकल पड़ी बाहर
सोचा
शाम के धुंधलके में सन्नाटा देखकर
शायद लौट जाए
लौटकर देखा
मेरी प्रतीक्षा में कुम्हलाया हुआ शब्द
मेरी कलम के पास सर टिका कर बैठा है
रश्मि निर्भीकता से कहती हैं मेरी कविता की सार्थकता पाठकों की आलोचना ,समालोचना में ही निहित हैं सुमित्रा नंदन पन्त की मानस पुत्री रश्मि की कविताएँ उन्ही की तरह है ,आप उनसे न सिर्फ चुप्पी की बल्कि क्रांति की भी उम्मीद कर सकते हैं |

अरुणा राय ,ये नाम उत्तर प्रदेश पुलिस कीशानदार महिला पुलिस अधिकारी का है ,और साथ में एक ऐसी कवियत्री का जिस तक पहुँचते पहुँचते हिंदी कविता को भी ठहर जाना पड़ता है उनके शब्दों में न सिर्फ धूप है बल्कि ढेर सारी छाँव भी है |अगर सीधे साधे शब्दों में कहें तो अरुणा की कविता सबकी कविता है वो कविता हमारी हो सकती है आपकी हो सकती है , हमारे इर्द गिर्द मौजूद किसी बिसरा दिए जाने वाले चेहरे की हो सकती है या फिर ,गाजियाबाद में देर रात स्टेशन से घर जाने को आतुर किसी लड़की की कविता हो सकती है अरुणा जब खुद को केंद्र में रखकर कविता लिखती है तो लगता है ये खुद से लड़ने का अब तक का सबसे विश्वसनीय दस्तावेज है ,यानि की इसके बाद अब व्यक्तिगत संघर्षों की दास्तान बयां करने वाली कोई और कविता नही हो सकती |अरुणा की ये कविता पढें -
अभी तूने वह कविता कहां लिखी है
मैंने कहां पढी है वह कविता
अभी तो तूने मेरी आंखें लिखीं हैं,
होंठ लिखे हैं

कंधे लिखे हैं उठान लिए

और मेरी सुरीली आवाज लिखी है

पर मेरी रूह फना करते
उस शोर की बाबत
कहां लिखा कुछ तूने

जो मेरे सरकारी जिरह-बख्‍तर के बावजूद

मुझे अंधेरे बंद कमरे में एक झूठी तस्‍सलीबख्‍श
नींद में गर्क रखती है

अभी तो बस तारीफ की है
मेरे तुकों की लय पर
प्रकट किया है विस्‍मय

पर वह क्षय कहां लिखा है

जो मेरी निगाहों से उठती
स्‍वर लहरियों को
बारहा जज्‍ब किए जा रहा है
अनीता अग्रवाल की कविताओं को लेकर मेरे एक मित्र ने कभी कहा था की उनकी कविताएँ चुपचाप आपके भीतर पहुँचती है और अन्दर पहुंचकर विस्फुटित हो जाती है |मेरा मानना है वो सही कहते हैं ,मैंने भी महसूस किया अनीता एक कवि के रूप में कभी हारती नहीं चाहें कितने भी झंझावात हों ,शायद उनकी कविताओं में कभी- कभार मानवीय जीवन की कठोरता के प्रति बेतकल्लुफी भी इसी वजह से नजर आती है |अपनी बीमार माँ की जिजीविषा को खुद भी जी रही अनीता की एक कविता पढें

ये भी क्या बात हुई
कि
चलते रहे
बस
हम ही हम
कुछ कदम तुम बढ़ते कुछ कदम हम
तो लुत्फ़ ही कुछ और होता

ज्योत्स्ना पाण्डेय जब कविता नहीं लिखती तब घर के काम करती हैं ,हम जानते हैं कि मुंबई काण्ड के बाद शब्दों की धनी ये महिला अचानक फूट फूट कर रो पड़ी थी |उनकी कविता कभी भी किसी वक़्त भी जन्म ले सकती है उनमे शब्दों का कोलाहल इस कदर होता है कि कभी कभी वो मस्तिष्क और जिव्हा से चिपक जाते हैं जो कि बहुत चाहने पर भी उखाड़ कर नहीं फेंके जा सकते |आप यकीं नहीं मानेंगे ज्योत्स्ना पत्रिकाओं में अपनी कविताओं के प्रकाशन की बात पर ही उखड जाती हैं वो साफ़ तौर पर कहती हैं मेरी कविताएँ मेरे घर -परिवार और ,मेरे मित्रों के लिए है ,मैं इसे सार्वजनिक चीज नहीं मानती |ज्योत्स्ना की ये कविता मुझे बेहद पसंद है |


इस दिसम्बर से जीवन में अधकचरे रिश्तों की धुंध घने कोहरे सी छाई थी-----
उमंगों का शिथिल होना,
ठिठुरती ठण्ड के आभास जैसा विचारों को संकुचित करता,
भावनाओं से उठती सिहरन से कोमल मन कंपकपाता था-----
ऐसे में तुम काँधे पे झोली लटकाए,
मेरे जीवन में रंग भरने के लिए
प्यार का हर रंग साथ लिए
नए सपने, नई आशाएं, मोहक मुस्कान, कोमल स्पर्श का मृदुल एहसास लिए-----
मुझमे एक गुनगुना जोश भर देते हो
तुम संता क्लॉज़ की तरह मेरी ज़िन्दगी में आए हो
अपनी झोली के सारे उपहार
तुमने मुझे दे दिए हैं-----
इस दिसम्बर (जीवन) में,
तुम्हारे होंठों का स्पर्श मुझे ताप से भर गया है,
सदा-सदा के लिए--------


श्रद्धा जैन की कविताओं के प्रति लोगों के प्रेम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की उनकी ऑरकुट की प्रोफाइल में अब एक हजार से ज्यादा प्रशंसक मौजूद है |सिंगापूर में रह रही श्रद्धा या तो बच्चों को स्कूल में पढाती हैं या कविताएँ लिखती हैं |इन्होने शायर फॅमिली नाम से एक पोर्टल शुरू किया ,और इन्टरनेट पर आने वाले लोगों की रचनाओं को बेहद खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया |श्रद्धा आजकल अपना ज्यादातर समय अपने साथ के लोगों के प्रमोशन में लगा रही हैं ,श्रद्धा की कविता की सबसे बड़ी खासियत ये है कि वो अपनी कविता से खुद गायब रहती हैं उन्होंने हमेशा समुदाय को अपनी कविता का विषय बनाया है |
अच्छी है यही खुद्दारी क्या

रख जेब में दुनियादारी क्या

जो दर्द छुपा के हंस दे हम

अश्कों से हुई गद्दारी क्या

हंस के जो मिलो सोचे दुनिया

मतलब है, छुपाया भारी क्या
वे देह के भूखे क्या जाने

ये प्यार वफ़ा दिलदारी क्या
बातें तो कहे सच्ची "श्रद्धा"

वे सोचे मीठी खारी क्या
और अंत में बात आभा क्षेत्रपाल की ,अपने माँ बाप के लिए बेटे की जिम्मेदारी निभा रही आभा की एक कम्युनिटी है 'सृजन का सहयोग'जिसमे दो सौ से जयादा लोग हर पल -प्रतिपल अपनी नयी कविताएँ पोस्ट कर रहे हैं जानते हैं आभा क्या कहती हैं अपनी इस कम्युनिटी के बारे मैं ?वो कहती हैं 'सृजन मेरी बेटी की तरह है ,हम चाहते है वो दुनिया की सबसे खुबसूरत बेटी हो |सच कहती है आभा ,बतौर कवि ,आभा की कविता हर पल जिंदगी की क्रूर सचाइयों पर चोट करती नजर आती है वो आहत होती है ,गिरती है फिर उठ खड़ी होती है |वो लिखती हैं
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लाखो सूं रेत की है
ये बिखरी आशाएं
कंटीली झाडिया हैं ये आँखों में चुभते सपने
तपती धूप है ये सुलगती आशाएं
चीखता पुकारता सन्नाटा है ये मेरा अकेलापन
सूखी धरती है ,ये मेरा प्यासा मन
आखिर कोई तो बताये ये मैं हूँ या मरुस्थल
इस पोस्टिंग में हमने उन्ही कवियों का जिक्र किया जिन्हें मैं जानता था ,जिन्हें हम नहीं जानते उन महिलाओं के प्रयास इससे भी बढ़कर हो सकते हैं |जो भी हो ये सच है ,आज हिंदी कविता फिर से अपनी तरुणाई मैं लौट आई है ,आइये इन महिलाओं का स्वागत करें अपनी इस दुनिया में ,जहाँ हम खुली साँसे ले रहे हैं ,जहाँ हर शब्द बेचारगी की कोख से पैदा नहीं हुआ है

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

खामोश !अदालत जारी है


अगर आपको सच कहने की आदत है तो फिलहाल अपने होंठ सी लीजिये , राजसत्ता के दांव-पेंचों में उलझ कर कराह रही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस बार कानून का हथौडा पड़ा है | देश की सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ब्लॉग की सामग्री को लेकर किसी की खिलाफ भी कानूनी कार्यवाही की जा सकती है |न्यायालय का ये आदेश केरल के युवा अजित डी द्वारा शिवसेना के खिलाफ बनायीं गयी एक कम्युनिटी और उसमे की गयी टिप्पणियों के अनुक्रम में दिया गया है ,अजित ने सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र न्यायालय द्वारा लगातार भेजे जा रहे सम्मन के खिलाफ याचिका दायर की थी |उसके खिलाफ ठाणे में सेक्शन ५०६ एवं ५०६ -अ के तहत मुकदमा पंजीकृत किया गया है ,आरोप ये है कि उसने अपनी पोस्टिंग में ,शिवसेना पर धर्म की आड़ में देश को विभाजित करने का आरोप लगाया था |न्यायालय के इस आदेश के उपरांत उन लोगों का मार्ग प्रशस्त हो गया है जो ब्लोगिंग की ताक़तसे खौफजदा थे और उसे शिकंजे में कसने की हर सम्भव कोशिश कर रहे थे | यह पोस्ट लिखने की वजह सिर्फ ब्लोगिंग पर अंकुश लगाने की कवायद नहीं है बल्कि वह कानून भी है जिसकी आलोचना तो दूर विवेचना करने का भी साहस नहीं किया जाता|,हम कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का न सिर्फ पोस्टमार्टम करते हैं बल्कि न्यायपालिका के द्वारा इन दोनों अंगो पर लगायी गयी फटकारों का भी गुणगान करते हैं ,लेकिन हद तो तब हो जाती है जब अनवरत असहमति और संविधान संशोधन की पुरजोर वकालत करने के बावजूद हम कानून के कड़वे और अव्यवहारिक परिणामों का विश्लेषण भी नहीं कर पाते |
ब्लोगिंग पर अंकुश लगाने की कोई भी कोशिश न सिर्फ इन्टरनेट की माध्यम से किये जा रहे विचारों की साझेदारी पर अतिक्रमण है ,बल्कि ये आम आदमी की बौद्धिकता पर अपनी सार्वभौमिकता साबित करने की कोशिश है | एक ऐसे देश में जहाँ मुक़दमे किसी परजीवी की तरह आम आदमी से चिपक जाते हैं एक ऐसे देश में जहाँ अदालतों की चौखट पर ही तमाम जिंदगियां दम तोड़ देती हैं एक ऐसे देश में जहाँ न्याय पाना उतना ही कठिन है जितना मृत्यु शय्या पर दो साँसे पाना ,एक ऐसे देश में जहाँ आतंकवाद,भ्रष्टाचार और राजनैतिक मूल्यों का अवमूल्यन चरम सीमा पर है |उस देश में व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को बंधक बनाने की कवायद किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र में वैचारिक स्वतंत्रता पर किया गया अब तक का सबसे घोर अतिक्रमण साबित होगा ,जिसे कानून के उन गणितीय समीकरणों जैसे तर्कों से सही नहीं ठहराया जा सकता जिनमे सब कुछ पूर्वनिर्धारित होता है | |ये पोस्टिंग लिखते वक़्त मुझे मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की ६ फ़रवरी को एक जनहित याचिका कि सुनवाई के दौरान की गयी वो टिप्पणी याद आ रही है जिसमे उन्होंने स्वीकार किया था कि देश की जनता का एक बड़ा वर्ग आज भी न्याय पाने के लिए अपनी आवाज नहीं उठा पाता ,और न ही खुद को अभिव्यक्त कर पाता है |उन्होंने इस दौरान देश में १०,००० अतिरिक्त न्यायालयों की स्थापना की आवश्यकता जताई थी ,आश्चर्य है कि एक तरफ हमारा न्यायालय अभिव्यक्ति की पराधीनता को लेकर बेहद चिंतित नजर आता है दूसरी तरफ मौजूदा कानून उसे कैदखाने में ड़ाल रहे हैं |हमें न्यायालय के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में तमाम भविष्यगत चिंताएँ हैं साथ ही उस मीडिया के लिए अफ़सोस है जो कि इलेक्ट्रानिक्स चैनल्स पर लगाम कसने की राजनैतिक कोशिशों के लिए तो काफी हो हल्ला मचाता है ,लेकिन ब्लागिंग को लेकर उसकी जुबान नहीं खुलती |इसकी वजह साफ़ है मीडिया भी जानती है की आने वाले कल में ब्लोगिंग का अस्त्र उसकी आर्थिक और उपनिवेशवादी सोच पर भारी पड़ने जा रहा है |

जहाँ तक ब्लागिंग कि सामग्री का प्रश्न है हम ये दावे के साथ कह सकते हैं कि सीमित संख्याओं के बावजूद हिन्दुस्तानी ब्लॉगर सर्वश्रेस्ठ कर रहे हैं ,उन तमाम मुद्दों पर खुली चर्चाएँ हो रही हैं जो कि समानांतर मीडिया के लिए वर्जित रहे हैं |लेकिन ये सच है कि हमने न्यायालय के किसी आदेश कि प्रतीक्षा किये बिना खुद के लिए सीमायें बना ली हैं विचारों के आत्मनियंत्रण का इससे अच्छा उदहारण बहुत कम देखने को मिलेगा |,यहाँ दिल्ली के एक बड़े मुस्लिम अखबार नवीस कि चर्चा करना जरुरी है जो कि मेरा मित्र भी है ,बटाला हाउस के इन्कोउन्टर के बाद वहीँ के रहने वाले मेरे मित्र ने इस पूरे इनकाउन्टर की एक तफ्तीश रिपोर्ट अपने ब्लॉग पर डालने की सोची ,लेकिन उसने नहीं डाला ,जानते हैं क्यूँ ?क्यूंकि उसे डर था कि पोस्टिंग आने के बाद पुलिस उसके खिलाफ कार्यवाही कर देगी |वो भी सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो मुसलमान है |अभी कुछ दिनों पहले मशहूर ब्लॉगर और गासिप अड्डा
डॉट कॉम के सुशील सिंह के खिलाफ इसलिए मुकदमा दर्ज कर दिया गया क्यूंकि उनहोंने अपनी पोस्टिंग में हिन्दुस्तान अखबार के लखनऊ संस्करण के उस अंक की चर्चा कर दी थी जिसमे खुद अखबार के मालिक बिरला जी के निधन के उपरांत उनकी गलत तस्वीर प्रकाशित कर दी गयी थी |अब वो दिन दूर नहीं जब आपकी कवितायेँ ,आपकी टिप्पणियां ,आपके व्यक्तिगत विचार आपको जेल की सलाखों में कस देंगे |

ब्लागिंग को हम व्यक्तिगत कुंठाओं के परिमार्जन का जरिया कह सकते हैं ,निश्चित तौर पर इसके माध्यम से न हम खुद को अभिव्यक्त करते हैं बल्कि खुद को पूरी तरह से उडेल देते हैं ,शायद इसलिए ये अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम बनते जा रहा है ,हाँ ये जरुर है कि हर इंसान कि तरह अभिव्यक्ति और उसको प्रर्दशित करने के तरीके भी अलग अलग होते हैं ,ऐसे में अगर न्यायालय ब्लागरों से अमृत वर्षा की उम्मीद करता है तो नहीं करना चाहिए |हाँ ये जरुर है कि अभिव्यक्ति ,निजी तौर पर किसी को आह़त करने वाली नहीं होनी चाहिए|,हम इससे इनकार भी नहीं करते कि ब्लोग्स के माध्यम से न सिर्फ भड़ास निकली जा रही है इसे दूसरो के मान-मर्दन के अस्त्र के रूप में भी इस्तेमाल किया जा रहा है ,लेकिन ये बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है ,और इसको नियंत्रित करने के लिए कानून का इस्तेमाल करने के बजाय,परम्पराओं का निर्माण करना ज्यादा जरुरी है |दुनिया के सबसे बड़े हिंदी ब्लॉग भड़ास को चला रहे मेरे मित्र यशवंत सिंह को इन्ही परम्पराओं को स्थापित करने के लिए तमाम झंझावातों से जूझना पड़ रहा है ,उनकी समस्या तब शुरू हुई जब उनहोंने अपने ब्लॉग पर खुलेआम गाली गलौज और अर्थं टिप्पणियों को रोकने के लिए कुछ लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया अब वही लोग अलग -अलग फोरम से यशवंत के खिलाफ अभियान चला रहे हैं|


इस पोस्ट को लिखने की वजह न्यायालय की अवमानना करना कदापि नहीं है ,हम सिर्फ ये कहना चाहते हैं की हमें कहने दीजिये ,हमारे होठों को मत सिलिये हमारी अँगुलियों में जुम्बिश होने दीजिये ,हमारे पास सिर्फ शब्द हैं उन शब्दों को हथियार बनाकर लड़ाई करना हमेशा कठिन होता है ,अगर हम चुप रहे तो हमारे लोकतान्त्रिक अधिकारों की आत्मा का तिरस्कार होगा |हमें चुप करना उनके हाथों हमारी वैचारिक हत्या कराने की वजह बनेगा ,जो हर पल संघर्ष कर रही जनता की चुप्पी की बदौलत ही उसके सीने पर चढ़कर राज कर रहे हैं |हमें चुप करना हमारी आदमियत को ख़त्म करने जैसा होगा |हमने कभी लिखा था-
कौन पूछेगा हवाओं से सन्नाटों का सबब ,शहर तो यूँही हर रोज मरा करते हैं
कभी दीवारों में कान लगाकर तो सुनो ,कलम के हाँथ भी स्याही से डरा करते हैं
अगर ब्लॉग पर अंकुश लगाने की कोशिश की गयी तो इस बार शहर हमेशा के लिए मर जायेंगे ,और निसंदेह ये एक लोकतान्त्रिक देश में किया गया हालोकोस्ट होगा |