मानवीय संबंधों की कल्पना प्यार के बगैर नही की जा सकती ,आज के दौर में विकास की कीमत सिर्फ़ प्रकृति ही नही ,मानवीय रिश्ते भी चुका रहे हैं स्त्री पुरूष संबंधों के सन्दर्भ में माना जा रहा है की जीवन की सफलता (?)में प्यार -व्यार की दरकार ज्यादा नही ये क्या कम आश्चर्यजनक है की वैलेंटाइन डे में प्यार को ढूंढने और भजाने वाले तबके और साथ में समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने सेक्स को निजी अधिकार घोषित कर दिया है ,वे इसे मनचाहे ढंग से भोगने के हिमायती हैं ,यहाँ तक कि देह कि सौदेबाजी भी वैश्वीकरण का पर्याय बन गई है यही हालात रहे तो सेक्स में भी प्यार कि उष्णता नही बचेगी ,प्रेम तब केवल वैलेंटाइन डे जैसे निर्जीव उत्सवों में ,फाइलों और किताबों में मिलेगा,विलुप्त वन्य जीव प्राणियों के भांति ,चाँद और फिजा के भांति ऐसे में देश में प्रेमी युगलों का ,संवेदनाओं का और मानवता की हत्याओं का दौर अन्दर ही अन्दर चलता रहेगा ,और टूटन बदस्तूर जारी रहेगी ,चाहे हम प्रेम में कितना भी आधुनिक होने का दावा क्यूँ न करें आज हम उनकी बात करेंगे जिसने सभ्यता का विकास ,संस्कृति और परम्पराओं को रौंद कर नही किया ,उसने प्रकृति के अनुकूल अपनी लघुता और असहायता को विनम्रता से स्वीकार करते हुए प्रेम करना जारी रखा जी हाँ हम बात कर रहे देश के आदिवासी समाज कीयदि आज की शहरी सभ्यता के पास सच्चे प्यार की पूंजी दस फीसदी शेष है तो वनवासी सभ्यता के पास आज भी प्यार की पूंजी ५० फीसदी से ज्यादा है प्रेम के अलावा उनके पास कुछ भी न तो स्थायी है और न ही सुरक्षित सुख सुविधा नही है तो क्या हुआ प्यार तो है अंग्रेजी के कुछ शब्द जैसे लाइव इन रिलेशनशिप हम अपने खुलेपन के लिए प्रयोग करते हैं लेकिन खुलापन जब तक संवेदनाओं पर आधारित हो तब तक गनीमत हैआदिवासी सभ्यता में खुलापन पूरी संवेदना के साथ मौजूद है ,प्रेम की अपनी कोई भाषा नही होती यदि होती है तो वे मीठी बोली ही होती है वनवासी समाज में बोली का असर भी गोली की तरह होता है वे प्रेम में सब तकलीफ उठा सकते हैं कठोर बातें बर्दाश्त कर पाते नही भारत के गोंड वनवासी युवक से उसकी प्रेमिका कहती है - कच्चे सूत की लई लगी है धका लगे टूट जाई रे बालकपन से प्रीत जुटी है बात कहे टूटी जाई रे कच्चे धागे का बंधन जिस तरह खींचते लगते ही टूट जाता है उसी तरह बचपन की प्रीत एक ही कठोर बात से टूटकर बिखर जायेगी वनवासी समाज में जीवन का मतलब है 'उत्सव;उनके पास पहाड़ है ,पेड़ है ,पशु प्राणी हैं ऊँची नीची ,पथरीली ,कंकरीली असिंजित जमीं है प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और अनुकूल प्रकृति की ,कामना इसलिए की जाती है क्यूंकि हम आपस में प्यार कर सकें संपूर्ण झारखण्ड,छतीसगढ़,सोनभद्र ,मध्यप्रदेश के वनांचल में वनवासी या तो आपनी के लिए तड़पते हैं या प्यार के लिए प्रेम को वहां सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है ,क्यूंकि वह मात्र दैहिक स्वतंत्रता नही,न तो किसी तिथि को आयोजित भौड़ा प्रदर्शन है एक करमा गीत में एक युवक कहता है तोर चेहरा मैं ओ ,हाय हो रानी तोर चेहरा आर मोरो दिल बस गे रानी तोर चेहरा प्रिये,मेरा दिल तुम्हारी सूरत में बस गया है ,तुमने मुझे बुलाया ,मैं निश्चित स्थान पर पहुँच तुम्हारी राह जोतता रहातुम अपने साथी के साथ पलंग में झूलती रही ,मैं घर के पीछे खडा रहा ,आओ चलो घास के छोटे छोटे गट्ठे काट लेंगे और जंगल में झोपडी बनाकर अपनी प्यास बुझाएंगे आदिवासी समाज में 'घोटुल' की परम्परा टूट गई जहाँ युवक युवतियां प्रेम विवाह कर लेते थे ,वनवासी समाज ने तिलक ,दहेज़ तलाक को कभी मान्यता नही दी,वनवासी परिवारों में आज भी स्त्री ही केंद्रीय शक्ति है ,ज्यादातर काम भी वही करती है ,पत्थर के साथ पत्थर ,मिटटी के साथ मिटटी बन जाती है ,फ़िर भी उसके मन में प्रेम का सोता झिरता रहता है वनवासी समाज में प्यार का मतलब है समर्पण ,तनिक सा स्वार्थ रिश्ते को तोड़ देगा अगर पहाड़ से गिरोगे तो बचोगे नही ,टूटे रिश्ते और पत्ते कभी नही जुड़ते ,विपरीत परिस्थितियों में भी प्रेम की ताक़त से जीने की कला जीवन संघर्ष की प्रेरणा,दुःख सुख को बाटने की मानवीय तकनीक हमें वनवासी ही सिखाते हैं वे हमें ये भी सिखाते हैं की वैलेंटाइन डे जैसे उत्सव हमारे स्वभाव,संस्कार और जीवन के अनुकूल नही हो सकते प्यार ,मोहब्बत कोकाकोला नही है की प्यास बुझाओ ,बोत्तल फेंको और चल दो ,ये पानी की तरह है ,जीवनदायक है निर्मल है,शीतल है ,हाँ और शाश्वत है
,प्यार ,मोहब्बत कोकाकोला नही है की प्यास बुझाओ ,बोत्तल फेंको और चल दो ,ये पानी की तरह है ,जीवनदायक है निर्मल है,शीतल है ,हाँ और शाश्वत है...
जवाब देंहटाएंkitni sachi aur sunder baat keh di hai aapne...
padhna bahut achha laga...
बिल्कुल सही......प्यार नुमाइश की चीज़ नहीं,ना ही निर्धारित दिन से प्यार होता है......सब मूर्ख बनाने का बहाना है.
जवाब देंहटाएंबहुत सही और सुलझी हुई विवेचना है.........
ज़िन्दगी के सारे मायने बदल गए
प्यार सोच समझकर होने लगे
अब प्रश्न नहीं उठता
कि क्या देखा लड़के या लड़की में
पैसा पूरा है तो सब perfect !
पहले प्यार आँखों में दिखता था
अब गली, नुक्क्डों, डिस्को में
प्यार ही प्यार थिरकते हैं...
नहीं लम्बी महंगी कार
तो प्यार बेकार
mobile नहीं, laptop नहीं,
डिजाइनर कपडे नहीं, तो प्यार???
अमा तुम किस वतन के हो,
कहाँ की बात करते हो???!!!
आपने मेरे मन की बात कह दिया, आज मै सभी ब्लागो पर यही टिप्पणी कर रहा हूँ। प्रेम पर्दशन की वस्तु नही है।
जवाब देंहटाएंकिसी सभ्यता की कोई सीमा नहीं होती है.एक ईश्वर ने सभी मनुष्यों को धरती पर भेजा है,वह मनुष्य समय- समय पर अपने विचार देता रहता है.वही विचार सभ्यता बन जाता है,चाहे वह हिन्दू धर्म हो या इसलाम हो या ईसाई या बहुत सारे धर्म. केवल धर्म ही क्यों बहुत सारे अवसर भी केवल विचार मात्र ही थे जिन्हें लाखो करोडो लोगो ने स्वीकार करते हुए उसे आत्मसात किया.वैलेंटाइन डे भी किसी का विचार ही था जो लोगो को पसंद आया.हाँ अब वह नई सीमाओं में आ रहा है तो कुछ विरोध हो रहा है.लेकिन यह सीमा ईश्वर ने तो बनाई नहीं है.बहरहाल इसे स्वीकार करना स्वाभाविक है.किसी को स्वीकार करना इस धरती का स्वभाव रहा है.उदारता इसके कण-कण में है.......
जवाब देंहटाएंआर्य,इसलाम,ईसाई,मुग़ल,अंग्रेज के अलावा न्यू इयर,क्रिसमस डे,कोका कोला,कंप्यूटर सहित बहुत सारी चीजों को इस धरती ने स्वीकार किया है.यह विचारो का युद्ध है.
इस वैचारिक प्रवाह को आप अगर समझ लेंगे तो किसी सीमा में नहीं बधेंगे,और हमारे तुम्हारे की बात नहीं करेंगे.आप विचारो के इस प्रवाह में केवल सीमा का दायरा अपनेआप को बनायें हाँ आप भी अपने विचारो को रखें,देखिये वैलेंटाइन की अपेक्षा आप को कितने लोग स्वीकार करते हैं.
और जहाँ तक आपके स्टोरी का प्रश्न है तो यहाँ भी आपने बनवासी समाज के प्रेम का विवरण देने में तुलनात्मक रवैया अपनाया.अपने स्वयं के विचार को छोड़ कर केवल बनवासी प्रेम के बारे में लिखते तो अच्छी स्टोरी बनती.मै आपके विचारो से पूरी तरह असहमत हूँ.
आज सोचना विवशता हो गयी है की युवा वर्ग की सोच किस दिशा में विकसित हो रही है.अपनी जड़ों से दूर क्या कोई पनप पाया है ? बस गमले में लगे पौधों से हो गए हैं ,जिधर भी खिसका दिया गया वहीं सुशोभित हो गए .......... माना कि घर के अन्दर तक पहुँच होती है उनकी परन्तु वे कभी भी विस्तृत नहीं हो पाते ......तो प्रेम जैसे विराट भाव को क्या समझेंगे ..
जवाब देंहटाएंमोहब्बत कोकाकोला नही है की प्यास बुझाओ ,बोत्तल फेंको और चल दो ,ये पानी की तरह है ,जीवनदायक है निर्मल है,शीतल है ,हाँ और शाश्वत है...........
अंतिम पंक्तिया भावपूर्ण व् सशक्त हैं .मेरी शुभकामनाएं आपके लेखन के लिए .................
ये पानी की तरह है ,जीवनदायक है निर्मल है,शीतल है ,हाँ और शाश्वत है...
जवाब देंहटाएंpyaar ke bare main sach kaha hai
आवेश जी आपका लिखा ब्लॉग पढा आपने बिलकुल सच लिखा की मानवीय संबंधो की कल्पना प्यार मोहब्बत के बिना नहीं की जा सकती और इसकी कीमत हमारे मानवीय रिश्ते भी चुका रहे है ,आज हम विदेशी संस्कृति के पीछे भाग रहे है ,हम अपने संस्कार भूल रहे है ,आज प्यार का रिश्ता सेक्स पर आधारित हो रहा है ,आपने सच कहा की प्यार मोहब्बत कोई कोका कोला नहीं की प्यास बुझाओ और चलते बनो ,ये तो अटूट बंधन है और आत्माओ का मिलन है. ...,न की प्रदर्शन की वस्तु आज हम पश्चिमी सभ्यता के पीछे भाग रहे है ...जबकि वो हमारी सभ्यता को अपनाने की कोशिश कर रहे है ,और हम अपनी सदियों पुरानी परम्पराओ को भूलते जा रहे है ,
जवाब देंहटाएंअंत में यही कहना चाहूँगा की आप वाकई में बहुत अच्छा लिखते है मैंने आपका पहला ब्लॉग पढ़ा और बहुत ही प्रभावित हुआ ,
rochak aur yatharth samne lane vala.
जवाब देंहटाएंआवेश जी,
जवाब देंहटाएंआपका लेख निःसंदेह कुछ सवाल उठा रहा है,पर आप कहना क्या चाह रहे ये स्पष्ट नहीं लग रहा मुझे. प्रेम कोई चीज़ नहीं जिसे सोच कर किया जाये,ये अवस्था है मन की,जिसे जिया जाता है.आदिवासी समाज का अपना तरीका है सभ्य समाज का अपना. किसी को भी गलत नहीं कह सकते,न ही इसे मापने कि कोई कसौटी होती है.वैलेंटाइन संत थे जिनकी याद में यह दिन समर्पित है, वो प्रेम की ज्योति जलने में अपनी जान निछावर किये थे.इन्हें किसी भी देश या संस्कृति से जोड़ना उचित नहीं,इन्हें प्रेम का प्रतीक माना जाता है. आज के युग को पुराने युग से तुलना क्यों करें, हर युग में प्रेम कि मान्यता रही है,आप किसी भी पुराण में पढ़ सकते है.ये कहना गलत है कि संस्कृति नष्ट करने में पश्चिमी संस्कृति का हाथ है.उनकी अपनी संस्कृति है,हमारी अपनी. अपने देश,समाज,और स्वयं के अनुरूप जीना हर इंसान का धर्म है. बच्चो में गलत छाप या सांस्कृतिक विद्रोह की भावना उन्हें जन्म से नहीं मिली,इसी समाज से मिली है. प्रेम को समझना हर इंसान को ज़रूरी है, ताकि अपने संतान को सही शिक्षा दे सकें और प्रेममय समाज बन सके. अश्लीलता को रोकने का ये तरीका नहीं कि प्रेम पर पाबन्दी लगाई जाये या प्रेम की आलोचना की जाये.प्रेम क्या है बस इतना सा सब समझ लें तो पूरी दुनिया ही बदल जाये. शुभकामनायें.
आवेश जी आपने जो भई लीखा वो शत प्रतिशत सही लिखा हैं। आपको तो पता हैं मैं अभई कुछ ही दिन पहले मुम्बई आया हूं। आपने जो बातें लिखी हैं यहां पर सही साबित होती हैं। यहां पर हर एक युवा के मन में केवल हैवानियत हैं। जीसको देखो वो केवल प्यार ,मोहब्बत को अपनी प्यास बुझाने के लीए ही प्रयोग करता हैं। उनकी नजर में प्यार की कोई अहमियत नही हैं। इनकी नजर में तो यही सही लगता हैं। प्यार, मोहब्बत कोकाकोला की तरह हैं प्यास बुझाओ ,बोत्तल फेंको और चल दो। लेकीन आज आपने ज़ो भी अपने ब्लाक में लीखा उसे मैं आपसे बहुत प्रभावित हुआ।
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