गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

मेरी बहन शर्मीला!


क्या आप इरोम शर्मीला को जानते हैं ?वो दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक राष्ट्र में पिछले सालों से भूख हड़ताल
पर बैठी है ,उसके नाक में जबरन रबर का पाइप डालकर उसे खाना खिलाया जाता है ,उसे जब नहीं तब गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जाता हैं , वो जब जेल से छूटती है तो सीधे दिल्ली राजघाट गांधी जी की समाधि पर पहुँच जाती है और वहां फफक कर रो पड़ती है ,कहते हैं कि वो गाँधी का पुनर्जन्म है ,उसने सालों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा,उसके घर का नाम चानू है जो मेरी छोटी बहन का भी है और ये भी इतफाक है कि दोनों के चेहरे मिलते हैं | कहीं पढ़ा था कि अगर एक कमरे में लाश पड़ी हो तो आप बगल वाले कमरे में चुप कैसे बैठ सकते हैं ?शर्मीला भी चुप कैसे रहती ? नवम्बर ,२००० को गुरुवार की उस दोपहरी में सब बदल गया ,जब उग्रवादियों द्वारा एक विस्फोट किये जाने की प्रतिक्रिया में असम राइफल्स के जवानो ने १० निर्दोष नागरिकों को बेरहमी से गोली मार दी ,जिन लोगों को गोली मारी गयी वो अगले दिन एक शांति रैली निकालने की तैयारी में लगे थे |भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले मणिपुर में मानवों और मानवाधिकारों की सशस्त्र बलों द्वारा सरेआम की जा रही हत्या को शर्मीला बर्दाश्त नहीं कर पायी ,वो हथियार उठा सकती थी ,मगर उसने सत्याग्रह करने का निश्चय कर लिया ,ऐसा सत्याग्रह जिसका साहस आजाद भारत में किसी हिन्दुस्तानी ने नहीं किया था |शर्मिला उस बर्बर कानून के खिलाफ खड़ी हो गयी जिसकी आड़ में सेना को बिना वारंट के सिर्फ किसी की गिरफ्तारी का बल्कि गोली मारने कभी अधिकार मिल जाता है ,पोटा से भी कठोर इस कानून में सेना को किसी के घर में बिना इजाजत घुसकर तलाशी करने के एकाधिकार मिल जाते हैं , वो कानून है जिसकी आड़ में सेना के जवान सिर्फ देश के एक राज्य में खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं बल्कि हत्याएं भी कर रहे हैं |शर्मिला का कहना है की जब तक भारत सरकार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून -१९५८ को नहीं हटा लेती ,तब तक मेरी भूख हड़ताल जारी रहेगी | आज शर्मीला का एकल सत्याग्रह संपूर्ण विश्व में मानवाधिकारों कि रक्षा के लिए किये जा रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहा है | अगर आप शर्मिला को नहीं जानते हैं तो इसकी वजह सिर्फ ये है कि आज भी देश में मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर उठने वाली कोई भी आवाज सत्ता के गलियारों में कुचल दी जाती है,मीडिया पहले भी तमाशबीन था आज भी है |शर्मीला कवरपेज का हिस्सा नहीं बन सकती क्यूंकि वो कोई माडल या अभिनेत्री नहीं है और ही गाँधी का नाम ढो रहे किसी परिवार की बेटी या बहु है |


इरोम शर्मिला के कई परिचय हैं |वो इरोम नंदा और इरोम सखी देवी की
प्यारी बेटी है ,वो बहन विजयवंती और भाई सिंघजित की वो दुलारी बहन है जो कहती है कि मौत एक उत्सव है अगर वो दूसरो के काम सके ,उसे योग के अलावा प्राकृतिक चिकित्सा का अद्भुत ज्ञान है ,वो एक कवि भी है जिसने सैकडों कवितायेँ लिखी हैं |लेकिन आम मणिपुरी के लिए वो इरोम शर्मीला होकर मणिपुर की लौह महिला है वो महिला जिसने संवेदनहीन सत्ता की सत्ता को तो अस्वीकार किया ही ,उस सत्ता के द्वारा लागू किये गए निष्ठुर कानूनों के खिलाफ इस सदी का सबसे कठोर आन्दोलन शुरू कर दिया |वो इरोम है जिसके पीछे उमड़ रही अपार भीड़ ने केंद्र सरकार के लिए नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं ,जब दिसम्बर २००६ मेंइरोम के सत्याग्रह से चिंतित प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बर्बर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को और भी शिथिल करने की बात कही तो शर्मीला ने साफ़ तौर पर कहा की हम इस गंदे कानून को पूरी तरह से उठाने से कम कुछ भी स्वीकार करने वाले नहीं हैं |गौरतलब है इस कानून को लागू करने का एकाधिकार राज्यपाल के पास है जिसके तहत वो राज्य के किसी भी इलाके में या सम्पूर्ण राज्य को संवेदनशील घोषित करके वहां यह कानून लागू कर सकता है |शर्मीला कहती है 'आप यकीं नहीं करेंगे हम आज भी गुलाम हैं ,इस कानून से समूचे नॉर्थ ईस्ट में अघोषित आपातकाल या मार्शल ला की स्थिति बन गयी है ,भला हम इसे कैसे स्वीकार कर लें ?'

३५ साल की उम्र में भी बूढी दिख रही शर्मीला
बी.बी.सी को दिए गए अपने इंटरव्यू में अपने प्रति इस कठोर निर्णय को स्वाभाविक बताते हुए कहती है 'ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है मेरा सत्याग्रह शान्ति ,प्रेम ,और सत्य की स्थापना हेतु समूचे मणिपुर की जनता के लिए है "|चिकित्सक कहते हैं इतने लम्बे समय से अनशन करने ,और नली के द्वारा जबरन भोजन दिए जाने से इरोम की हडियाँ कमजोर पड़ गयी हैं ,वे अन्दर से बेहद बीमार है |लेकिन इरोम अपने स्वास्थ्य को लेकर थोडी सी भी चिंतित नहीं दिखती ,वो किसी महान साध्वी की तरह कहती है 'मैं मानती हूँ आत्मा अमर है ,मेरा अनशन कोई खुद को दी जाने वाली सजा नहीं ,यंत्रणा नहीं है ,ये मेरी मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किये जाने वाली पूजा है |शर्मिला ने पिछले वर्षों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा वो कहती है 'मैंने माँ से वादा लिया है की जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा कर लूँ तुम मुझसे मिलने मत आना |'लेकिन जब शर्मीला की ७५ साल की माँ से बेटी से मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है उनकी आँखें छलक पड़ती हैं ,रुंधे गले से सखी देवी कहती हैं 'मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था जब वो भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी ,मैंने उसे आशीर्वाद दिया था ,मैं नहीं चाहती की मुझसे मिलने के बाद वो कमजोर पड़ जाये और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अद्भुत युद्ध पूरा हो पाए ,यही वजह है की मैं उससे मिलने कभी नहीं जाती ,हम उसे जीतता देखना चाहते है '|

जम्मू कश्मीर ,पूर्वोत्तर राज्य और अब शेष भारत आतंकवाद,नक्सलवाद और पृथकतावाद की गंभीर परिस्थितियों
से जूझ रहे हैं है |मगर साथ में सच ये भी है कि हर जगह राष्ट्र विरोधी ताकतों के उन्मूलन के नाम पर मानवाधिकारों की हत्या का खेल खुलेआम खेला जा रहा है ,ये हकीकत है कि परदे के पीछे मानवाधिकार आहत और खून से लथपथ है ,सत्ता भूल जाती है कि बंदूकों की नोक पर देशभक्त नहीं आतंकवादी पैदा किये जाते है |मणिपुर में भी यही हो रहा है ,आजादी के बाद राजशाही के खात्मे की मुहिम के तहत देश का हिस्सा बने इस राज्य में आज भी रोजगार नहीं के बराबर हैं ,शिक्षा का स्तर बेहद खराब है ,लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए दिन रात जूझ रहे हैं ,ऐसे में देश के किसी भी निर्धन और उपेक्षित क्षेत्र की तरह यहाँ भी पृथकतावादी आन्दोलन और उग्रवाद मजबूती से मौजूद हैं |लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि यहाँ पर सरकार को आम आदमी के दमन का अधिकार मिल जाना चाहिए ,अगर ऐसा होता रहा तो आने वाले समय में देश को गृहयुद्ध से बचा पाना बेहद कठिन होगा |जब मणिपुर की पूरी तरह से निर्वस्त्र महिलायें असम रायफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन करते हुए कहती हैं की 'भारतीय सैनिकों आओ और हमारा बलात्कार करो 'तब उस वक़्त सिर्फ मणिपुर नहीं रोता ,सिर्फ शर्मिला नहीं रोती ,आजादी भी रोती है ,देश की आत्मा भी रोती है और गाँधी भी रोते हुए ही नजर आते हैं | शर्मीला कहती है 'मैं जानती हूँ मेरा काम बेहद मुश्किल है ,मुझे अभी बहुत कुछ सहना है ,लेकिन अगर मैं जीवित रही ,खुशियों भरे दिन एक बार फिर आयेंगे '|अपने कम्बल में खुद को तेजी से जकडे शर्मीला को देखकर लोकतंत्र की आँखें झुक जाती है |

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

मुद्दे पर मीडिया:संसदीय चुनाव और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया


-भय और भूख से नाराज मतदाता ,सतही मनोरंजन से गिरती जनतंत्र की गरिमा

भूख और भय से निराश लोक,थका हुआ निस्तेज तंत्र और सर्वग्रासी बाजार में अपने उत्पाद को बेचने के लिए आतुर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ,मीडिया का काम सिर्फ आम आदमी तक खबरें पहुँचाना ही नहीं रह गया है बल्कि वो ख़बरों से खेलता है ,उनको पैदा करता है और उनको खुद के हिसाब से इस्तेमाल भी करता है l चुनाव के दौरान आई .पी.एल मैचों को जिस तरह से अनिवार्य बनाया गया वह हैरत में डालने वाला था ,एक तरफ देश के आम लोगों के सर्वोच्च मताधिकार का महोत्सव तो दूसरी और नीलाम हुए क्रिकेटरों की सौ फीसदी बाजारू स्पर्धा ,राजनीति के दिग्गज देश में नयी व्यवस्था के तहत विकास ,आतंकवाद ,जैसे मौलिक मुद्दों के समाधान की कोशिश कर रहे हैं राष्ट्र का इंतजाम राष्ट्र कर रहा है ,चुनाव ,क्रिकेट या टी.वी पर आने वाले तमाम मनोरंजन प्रोग्राम्स की भांति वैकल्पिक नहीं है दरअसल सर्वग्रासी इलेक्ट्रॉनिक और कुछ अग्रणी प्रिंट मीडिया चाहती थी कि चुनावों के दौरान आई.पी.एल भारतीय शहरों में चले तथा उनमे राजनैतिक दलों के विज्ञापन परोस कर धन बटोरा जाए ,विफल होने पर इसी मीडिया लाबी ने दक्षिण अफ्रीका में मैच कराने की लाबिंग शुरू कर दी और ये प्रचारित करना शुरू कर दिया कि -भारत में क्रिकेट मैचों की सुरक्षा का दम नहीं है ,एक निहितार्थ ये भी कि देश में आई.पी.एल न कराने से क्रिकेटप्रेमियों में आक्रोश होगा ,जिसका खामियाजा सभी राजनैतिक दल (जिनकी सरकारें हैं )भुगतें संयोग से जहाँ आई.पी.एल हो रहे हैं ,वह साउथ अफ्रीका नस्लभेद और रंगभेद के लिए चर्चित रहा है ,जहाँ गांधी अपमानित हुए ,अभी एक सप्ताह पहले इसी देश ने बौध धर्मगुरु दलाई लामा को अपने देश आने से मना किया है दरअसल हो ये रहा है की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कंटेंट को लेकर दायित्वबोध को धत्ता बताते हुए टेस्ट बिल्डिंग का काम कर रहा है ,इसे हम खबरी अराजकता कहते हैं .

दरअसल सच ये है कि मीडिया की सोच चुनावों में भी सतही मनोरंजन देते रहने से बने चरित्र से ऊपर उठ नहीं पाती ,चुनाव में जनता की बुनियादी समस्याओं पर राजनैतिक पार्टियों की जवाबदेही को सुनिश्चित करने के बजाय ,पुरे माहौल को मनोरंजक बनाने की हर संभव कोशिश की जा रही है ,इलेक्शन कवरेज में भी पॉलिटिकल गासिप्स अधिक सुनने को मिल रहे हैं चाहे वो बुढिया और गुडिया को लेकर मोदी या प्रियंका की बतकही हो या फिर राबडी को नीतिश को दी गयी गाली हो प्रायः सभी चैनलों ने अंग्रेजी और हिंदी की पकाते हुए 'हिंगलिश 'में विशेष चुनाव कार्यक्रम शुरू किये हैं ,इन पर नजर डालें तो स्पष्ट होगा कि किस तरह लोकतंत्र का मजाक उडाया जा रहा है चुनाव आयोग द्वारा थोपी गयी पाबंदियों से जो कम्युनिकेशन गैप पैदा हुआ है ,उसको मीडिया भर सकती थी ,ये क्या कम अचरज भरा है घरों पर झंडे लगाने कि पाबंदी है चैनलों में कुछ भी दिखने की छूट है यह 'मीडियाटिक्स ' है मीडिया खुद अपना ही मखौल उड़ा रही है क्यूंकि भूख और भय से नाराज और निराश भारतीय नागरिकों को राजनैतिक धर्म के साथ यह मजाक्बाजी रास नहीं आ रही है हाँ ,मतदाताओं को जगाने का काम समयोचित है .

इंडिया टुडे ग्रुप के चैनल 'तेज; ने एक प्रोग्राम बनाया है 'इंडियन कुर्सी लीग 'इसमें कांग्रेस को किंगकांग ,भाजपा को वेटिंग बैरिअर्स ,बसपा को जम्बो जेट आदि कहा जाता है
छपरा में नीतिश के बारे में राबडी के अपशब्द की स्टोरी को कहा गया कि;छपरा कि पिच पर सुर्रा फेकने वाली बालर ने ऐसा बाउंसर फैंका .........,यह प्रोग्राम चुनाव की पैरोडी दिखाने के प्रयास में चुनाव को ही क्रिकेट कि पैरोडी बना रहा है एन.डी.टी.वी ने 'इलेक्शन एक्सप्रेस शुरू किया तथा एक नया नाम विश्व के वृहत्तम निर्वाचन को दिया -'बिगेस्ट रियलिटी शो 'अभी तक हम रियलिटी शो का मतलब नाच -गाना ,अन्ताक्षरी आदि समझ रहे थे यह लोकतंत्र का उपहास नहीं तो और क्या है ?बार बार ये चैनल चुनाव को युद्ध कहते रहे हैं ,आज तक ने शुरू किया 'बोल इंडिया बोल' , देश के १० शहरों में ४ हजार लोगों से बात करके चुनाव सर्वेक्षण के नतीजे परोसने शुरू कर दिए हैं एक शहर में सिर्फ ४०० लोगों से कथित तौर पर प्रश्न पूछ कर यह चैनल बक रहा है कि लगभग ५६ फीसदी लोग संप्रग की सरकार और मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री चाहते हैं जबकि मात्र ३५ फीसदी लोग राजग कि सरकार और अडवानी को प्रधानमन्त्री देखना चाहते हैं चैनल कहता है कि उसके वोट गुरु अन्य 27 शहरों में सर्वे करेंगे मतलब दस हजार और लोगों से पूछ लेंगे तब तक काउंटिंग के पहले ही मनगढ़ंत नतीजे सुनाते रहेंगे} सर्वाधिक खेदपूर्ण ये है की इस तरह के सभी चुनावी विश्लेषण शहरी मतदाता को केंद्र में रखकर किये जाते हैं जिन्हें ये चैनल्स जागरूक मतदाता कहता है जबकि सच्चाई ये है कि इन्ही जागरूक मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा गर्मी और छुट्टी का बहाना बना कर वोट तक डालने नहीं ,जबकि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों का मतदाता सर्वाधिक वोटिंग करता है और इसी की से चुनावी नतीजे बनते बिगड़ते हैं ऐसे में तीन चौथाई आबादी को अलग थलग करके किया गया कोई भी सर्वेक्षण भला कैसे वैज्ञानिक हो सकता है ?कहीं ये सिर्फ चैनलों के राजनैतिक धर्म के पालन की युक्ति तो नहीं ?

अब तक के चुनावी कवरेज के दौरान मीडिया ने अपराधियों और बाहुबलियों के खिलाफ अभियान चलाकर सर्वाधिक सराहनीय काम किया ,लेकिन इन सबके बीच पूरी राजनीति को भी कटघरे में खडा करने का काम भी किया गया मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा लेकिन शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इन चैनलों ने अपने हितों की कसौटी पर न कसा हो ,अब ये तो नहीं है न कि सारे प्रत्याशी अपराधी हैं और इनके लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हाँथ में दरोगा की तरह डंडा लेकर खडा होना आवश्यक हो गया हो ,हम ये भूल जाते हैं की जो भी उम्मीदवार जीतेगा वो कल को देश की लोकसभा का हिस्सा होगा एक प्रोग्राम में प्रसिद्ध पत्रकार नलिनी सिंह ने कहा कि ;जो नेता १०० रुपये के नोट बाँट रहे हैं उन्हें तो आपने दिखाया किन्तु जो धन प्रचार के मकसद से दिया गया है उसके बारे में कुछ क्यूँ नहीं बोलते ?ऐसा तो नहीं है न कि सिर्फ चोर चुनाव लड़ रहे हैं और चोर ही जीतते हैं ये चैनल्स भूल जाते हैं कि लोकतंत्र कि व्यवस्था हमें अनेक कुर्बानियों से मिली है ,इसकी गरिमा ,मतदाताओं के मान और सत्ता परिवर्तन कि अहिंसक क्रांति को सतही बाजारी नजरिये से तौलना शर्मनाक है वैश्विक परिस्थितियों के सन्दर्भ में कहें तो मीडिया को चाहिए 'दस कबीर जतन से ओढी ,ज्यों के त्यों धरी दिनी चदरिया ....

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

मीडिया के घोडे और उनका सच


''....इंटरनेट पर कुछेक विवादास्पद पत्रकारों ने ब्लाग जगत की राह जा पकड़ी है, जहां वे जिहादियों की मुद्रा में रोज कीचड़ उछालने वाली ढेरों गैर-जिम्मेदार और अपुष्ट खबरें छाप कर भाषायी पत्रकारिता की नकारात्मक छवि को और भी आगे बढ़ा रहे हैं। ऊंचे पद पर बैठे वे वरिष्ठ पत्रकार या नागरिक उनके प्रिय शिकार हैं, जिन पर हमला बोल कर वे अपने क्षुद्र अहं को तो तुष्ट करते ही हैं, दूसरी ओर पाठकों के आगे सीना ठोंक कर कहते हैं कि उन्होंने खोजी पत्रकार होने के नाते निडरता से बड़े-बड़ों पर हल्ला बोल दिया है।

यहां जिन पर लगातार अनर्गल आक्षेप लगाए जा रहे हों, वे दुविधा से भर जोते हैं, कि वे इस इकतरफा स्थिति का क्या करें? क्या घटिया स्तर के आधारहीन तथ्यों पर लंबे प्रतिवाद जारी करना जरूरी या शोभनीय होगा? पर प्रतिकार न किया, तो शालीन मौन के और भी ऊलजलूल अर्थ निकाले तथा प्रचारित किए जाएंगे....''

ये कहना है मृणाल पांडेय का। मृणाल दैनिक हिंदुस्तान की प्रमुख संपादक हैं। वे हर हफ्ते रविवार को दैनिक हिंदुस्तान में लंबा-चौड़ा संपादकीय लेख लिखती हैं। मेरी ये पोस्टिंग मृणाल जी को मेरा सादर जवाब है |

मीडिया का एक चेहरा ऐसा भी है जो लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करता है वो पाठकों और मीडिया के बीच का भी लोकतंत्र हो सकता है वो मीडिया और मीडिया के बीच का भी लोकतंत्र हो सकता है |उसके लिए खबरें और ख़बरों के पीछे छिपी खबरें महज गॉसिप होती हैं अगर वो उसके आर्थिक उदेश्यों और बाजारी बादशाही के उदेश्यों की पूर्ति न करे |मंदी का रोना रोते हुए मीडिया के उस चेहरे को देश के कुख्यात माफियाओं के फुल पेज विज्ञापन छापने पर कोई ऐतराज नहीं है ,लेकिन जब कभी वो इस चेहरे पर पडे नकाब की धज्जियाँ उड़ते देखता है ,तो वोकभी माध्यमों को गरियाने लगता है ,तो कभी भाषाई पत्रकारिता को ,मृणाल जी उन्ही चेहरों को सजा संवार रही हैं |हम उन्हें मीडिया के घोडे कहते हैं और मृणाल जी पेशेवर | एक ऐसे देश में जहाँ मुद्दे , पहले पंक्ति के पत्रकारों की भारी तादात में उपस्थिति के बावजूद जनता के सर से सीने तक और पाँव से पेट तक धंसे हैं वहां तो धज्जियाँ उड़नी ही थी ब्लागर्स न करते तो कोई और करता |दरअसल मीडिया का ठगी और छली वर्ग मुद्दों को ढकता है |मृणाल जी ब्लागर्स और भाषाई पत्रकारों की प्रतिबद्धता का मुद्दा उठाती हैं ,लेकिन इन घोडों से उन्हें कोई आपति नहीं ,क्यूंकि उन घोडों में वो ऊँचे पदों पर बैठे वे पत्रकार भी है जो खुद को कलमकारी का मसीहा मान लेने के मुगालते में थे लेकिन अब खुद कलम के घेरे में हैं |
मृणाल जी कहती हैं कि 'हिन्दी पत्रकारों ने छोटे-बड़े शहरों में मीडिया में खबर देने या छिपाने की अपनी शक्ति के बूते एक माफियानुमा दबदबा बना लिया है। और पैसा या प्रभाववलय पाने को वे अपनी खबरों में पानी मिला रहे हैं।'बिलकुल सच कहती हैं वो ,ये सच है |मगर उन शहरों में भी खबरें उन्ही के द्वारा छिपाई और लिखाई जा रही हैं जो उन बड़े मीडिया हाउसों के अधीन काम कर रहे हैं जिनसे खुद मृणाल आती हैं ,और ख़बरों को गोल किये जाने के पीछे न सिर्फ अपना हित साध रहे उन बहुआयामी चेहरों का हाथ होता है बल्कि अखबार के प्रबंधन का भी होता है |मृणाल जी अगर आप उन चेहरों की निगाह से देखेंगी जो खुद को मीडिया का प्रतीक मनवाने के लिए सारे जुगाड़ लगा रहे हैं तो भाषाई पत्रकार आपको तालाब की मछली की तरह नजर आयेंगे ,लेकिन अगर सच देखना हो तो निगाह बदली होगी साथ में आइना भी |छोटे छोटे कस्बों और शहरों का पत्रकार ख़ास तौर से वो जो हिंदी अखबारों से जुड़े हैं आज दाने दाने को मोहताज है अगर वो खुद को बेचता है ,और घोडों के द्वारा बनाये गए धर्म को बेचता है तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए की उसकी भी साँसे चलती रहें और ख़बरों की भी |जहाँ तक उसकी औसत छवि के आदरयोग्य और उज्जवल न होने की बात है इसका फैसला उनके हाँथ में हैं जिनके लिए वो न सिर्फ खबरें लिखता है बल्कि उन ख़बरों के माध्यम से उन्हें कुछ देने की भी कोशिश करता है ,इसके लिए उसे किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती |सही शब्दों में कहा जाए तो आज इन्ही भाषाई पत्रकारों एवं ब्लागर्स की वजह से खबरें जिन्दा हैं ,शायद यही वजह है की आज जनता की भारी भीड़ उनकी और उमड़ रही है ,जनता जानती है कि जो कुछ भी बड़े व्यावसायिक घरानों द्वारा संचालित अखबारों में लिखा जा रहा है उनमे से ज्यादातर ऐसे पूर्वाग्रह से प्रभावित है जिसका खुद पाठक भी विरोध नहीं कर पाता,उसे वही पढाया जाता है जो आप पढाना चाहते हैं ,इसे हम वैचारिक राजशाही कहते हैं |ऐसे में अगर कोई ब्लॉगर या अखबारनवीस ख़बरों के साथ साथ घोडों की भी विवेचना करता है तो क्यूँ बुरा लग रहा है :,उसे ये करना भी चाहिए ,यही पत्रकारिता का धर्म है यही मर्म ||जहाँ तक वसूली और खादानी पट्टे हासिल करने की बात है मृणाल जी बताएं कि उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद मेंतैनात 'हिंदुस्तान' के जिला संवाददाता ने अरबों रुपये कीमत के खनन पट्टे कैसे हासिल किये ?इस पत्रकार के गोरखधंधों की व्यक्तिगत तौर पर जानकारी के बावजूद प्रबंधन और खुद मृणाल पाण्डेय चुप क्यूँ हैं ?सच्चाई तो ये है मृणाल जी आज धंधई पत्रकारों की जरुरत नहीं है ,आज सचमुच जेहादियों की जरुरत है ,जो जूझ सके ,ख़बरों के लिए जिन्दा रहने के साथ साथ खुद को सजा देने का भी साहस रखता हो |आज ये काम सिर्फ और सिर्फ ब्लागर्स कर रहे हैं |
मृणाल जी की इस बात से हम सहमत हैं कि 'मीडिया की छवि बिगाड़ने वाले गैर गैर-जिम्मेदार घटिया पत्रकारिता के खिलाफ ईमानदार और पेशे का आदर करने वाले पत्रकारों का भी आंदोलित होना आवश्यक बन गया है '|उनसे अनुरोध है कि अगर वो घटिया पत्रकारिता को लेकर चिंतित हैं तो आज से ही ब्लॉग लिखना शुरू कर दें ,आप विश्वास करे न करे ,जिनमे खुद को सजा देने का साहस होगा वही ब्लॉग लिखेंगे ,यहाँ खुद के कानून बनाकर खुद को सजा दी जाती है जिसकी कोशिश अब तक मीडिया के किसी माध्यम ने नहीं की |अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी कठिन होती है और कितने जतन से उसे सहेजना होता ये सिर्फ और सिर्फ ब्लागर्स जानते हैं |आत्मविश्लेषण और आत्मनियंत्रण का इससे बड़ा माध्यम और कोई हो ही नहीं सकता यहाँ किसी का कोई व्यवसायिक मकसद नहीं है ,यहाँ हर ब्लॉगर अपने आप में खबर है ,शेर घाटी का शहरोज जब अपने बच्चों का पेट नहीं भर पाता तो ब्लॉग लिखना बंद कर देता है ,घोडों की करतूतों से आहत अलोक तोमर 'जनसत्ता 'को फिर से जिन्दा करने की कोशिश में लग जाते हैं |तो अपने दोनों पैरों से लाचार अभिषेक जैसे तैसे दो पैसों का जुगाड़ करके अपनी माँ और अपने ब्लॉग दोनों को जिन्दा रखे हुए है |
जहाँ तक पेशेवर पत्रकारों के खिलाफ मुहिम छेड़े जाने की बात है ये तो होना ही था ,मीडिया के घोडों के अतिवादी साम्राज्यवाद के शोषण के खिलाफ आखिर कब तक चुप रहा जाता ?मृणाल जी अगर इन पेशेवर पत्रकारों की यश हत्या एक ब्लॉगर भी कर सकता है तो ऐसा यश किस काम का ?कोई ब्लॉगर मृणाल पाण्डेय के खिलाफ मुहिम चलाने की हिम्मत क्यूँ नहीं करता ?इसकी वजहें सिर्फ ये है कि कोई भी आलोचना उनकी यश कीर्ति के सापेक्ष गौण हो जाती है |वो जानता है मृणाल पाण्डेय पत्रकारिता और पत्रकारों का सम्मान करती हैं ,उनके विचार किसी और के विचारों का प्रतिबिम्ब नहीं हो सकते ,लेकिन यहाँ तो .....! राजनीतिकों से अधिक दुश्चरित्र मीडिया का है ,नकारात्मक सोच से भरा हुआ सकारात्मक दिखने की कोशिश करता है |सच तो ये मीडिया को भी सही जनप्रतिनिधि की जरुरत है वो जनप्रतिनिधि नहीं जिसे केवल मृणाल पाण्डेय तय करें उसे हम सबको तय करना होगा ,मीडिया भी मीडिया के जेरेगौर है और ब्लोगिंग इसी का माध्यम |मृणाल जी से कहना चाहेंगे की मीडिया और मनुष्य के बीच कोई तीसरा न रहे तो बेहतर ,आत्मा के दर्पण में खुली नजर से झाँकने की जरुरत है ,सत्य का दर्पण निर्मल रखना होगा |