सोमवार, 28 दिसंबर 2009

आवेश को जो याद है..... ...


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आज मै ३७ साल का हो गया ,पापा की साईकिल पर आगे बैठ पूरा बनारस शहर घूमते ,छत की मुंडेर से स्कूल से पढ़कर लौट रही माँ की बाट जोहते और मिठाइयों के लिए देर रात तक जागने वाले आशु ने आज अपने बचपन को बहुत पीछे छोड़ दिया है ,सच कहूँ तो मुझे अपने हर जन्मदिन पर अपना बचपन बहुत याद आता है ,वैसे तो मेरा जन्मदिन भी और दिनों की तरह हमेशा से आम रहा न उत्सव ना कोई और आयोजन, लेकिन इस वक़्त मुझे उम्र के साठवें वर्ष में भी हम बच्चों के लिए हमसे दूर रह रही माँ याद आती है , मुझे आपातकाल का वो दिन याद आता है जब मेरे पिताजी को पॉवर हाउस उड़ाने का आरोपी बनाकर जेल भेज दिया गया था और मै जेलर के दरवाजे पर चिल्ला रहा था 'जेल का फाटक छूटेगा,मेरा पापा छूटेगा| वो कुछ दोस्त याद आते हैं जिनका नाम याद है चेहरा नहीं वो भी याद आते हैं जिनका चेहरा याद है नाम नहीं |मुझे अपना वो पुराना स्कूल याद आता है जहाँ फिर से कक्षा एक में नाम लिखाने का मेरा आज भी मन करता है ,अपने उन टीचरों की याद आती है जो मुझे बहुत प्यार किया करते थे ,मुझे अपनी प्रिसिपल सिस्टर नोयेला के दिए अनार याद हैं ,मुझे दाढ़ी बाबा का रिक्शा याद है जिसपर हमारे घर के सारे बच्चे स्कूल जाया करते थे |मुझे अपने मोहल्ले की मिर्जा चाचा की बेटी रूबी की याद आती है जो मुझे भैया कहती थी और जिसकी कटोरी से में अक्सर खीर चुरा लेता था ,मुझे स्काई लैब गिरने का वक़्त याद है जब हम लोग कई दिनों तक दिन रात आसमान को देखते रहे थे |मुझे याद आती है बबलू की जिसे मेरे घर में सब लोग चेलवा कहते थे ,सबके लिए नौकर मगर मेरा पक्का दोस्त ,मुझे आज भी याद है कि जब हम बिस्तर पर सोते थे तो वो जमीन पर सोता था ,मुझे ये भी याद है कि उस दिन वो बहुत डांट खाया था जब घर के बाहर सोयी मेरी तीन साल की छोटी बहन चीनू के पास बैठा वो ऊँघ रहा था तब तक वहां पर भेड़िया आ गया ,हालाँकि शोर मचाने पर भेड़िया तो भाग गया ,लेकिन बबलू फिर चला गया जब २२ साल बाद एक बार फिर हमारे शहर लौटा तो वो एक दुर्घटना के बाद अपना आत्मसंतुलन खो बैठा था ,लेकिन उसे मेरी याद थी , वो अचानक जो फिर गायब हुआ दुबारा नहीं लौटा |मुझे अपने मित्र विद्यासागर की याद आती है जो कक्षा का सबसे तेज बच्चा था जिसकी लिखावट पर हम बहुत नाज करते थे .कुछ दिन पहले वो मिला था मुझसे ,बेरोजगारी से जूझता और मुझसे कहीं नौकरी लगाने की गुजारिश करता हुआ |हाँ ,मुझे पड़ोस में रहने वाली त्रिवेणी की अम्मा कि भी याद है जिनका भी मैंने दूध पिया है | जब मै बीते हुए कल के आईने मे आज को देखता हूँ तो मेरा मौजूदा चेहरा धुंधला सा हो जाता है |फिर सोचता हूँ क्यूँकर नहीं हुई जिंदगी उतनी ही जितना बचपन था|
मुझे अपनी अम्मी दादी की बहुत याद आती है .मुझे आज भी कहने में गर्व होता है कि मै अपनी माँ का बेटा कम अपनी दादी का बेटा ज्यादा हूँ |,मुझे याद आती है दादी के हाँथ की बनायीं हुई गुझिया और मेरा बार बार कहना अम्मी दादी एक दे दे ,दादी किसी को न दे पर मुझे दे देती थी |माँ नौकरी के लिए जब मुझे लेकर दूसरे शहर चली आई तो मेरी दादी एक प्लास्टिक के बैग में ढेर सारा समान लेकर मेरे पास आ जाती,मुझे याद है कि दादी जब कैंसर से मरी तो मै ६ साल का था उस वक़्त मुझे बार बार बताया जा रहा था दादी मर गयी पर में समझ नहीं पा रहा था ,शायद सोचता था दादी भी भला कभी मरती हैं? मुझे अपने इन्टू चाचा की बहुत याद आती है जो मेरे लिए आज भी दुनिया का सबसे खुबसूरत आदमी है ,मुझे सिर्फ चार साल बड़ा इन्टू चाचा मुझे साईकिल पर पीछे बिठा गुल्ली डंडा बनवाने बहुत दूर चला जाता था ,और आता तो दादा की गाली सुनता ,मुझे याद है कैसे अनु दीदी और मेरे इन्टू चाचा ने मेरी आँखों में कोलतार पोत दिया था |मुझे ये भी याद है कैसे इन दोनों लोगों ने गर्मी के दिनों में घर के सारे तकिये पानी में डाल दिया थे और निकलकर सर के नीचे लगाकर सो गए थे ,मुझे अब भी याद है कैसे मै और मेरा चाचा छत पर साथ सिगरेट पीते थे |एक बात जो मै अब भी समझ नहीं पाता हूँ वो ये है कि कैसे अचानक एक दिन मेरा इन्टू चाचा ,मेरा इन्टू चाचा कम सबका इन्टू अधिक हो गया था|मुझे कभी -कभी शाम को स्कूल से लौटने पर सरसों के तेल ,नमक और प्याज में सना चावल का खाना भी याद है | मुझे अपने दादा जी की बहुत याद आती है कि उन्होंने ग़जब का दुस्साहस करते हुए कैसे मेरा सीधे कक्षा ३ से नाम कटवाकर कक्षा ६ में लिखवा दिया था और घर में सभी लोग अपना माथा पीट रहे थे,मुझे अपने मिलिटरी ऑफिसर दादा का हारमोनियम पर गूंजता स्वर 'वर दे वीणा वादिनी वर दे 'भी बहुत याद आता है |मुझे अपनी मीरा बुआ की याद आती है ,जो मेरी द्वारा गाली देने की शिकायत लेकर आये मेरे दोस्तों को ये कहा करती थी ,कि मेरे यहाँ ये गाली नहीं मानी जाती |मुझे याद है वो कई साल जब पीएमटी का रिजल्ट आने के बाद मेरी छोटी बहन अकेले में फूट फूट कर रोया करती थी और माँ कहा करती थी कि क्या पढ़ती है पता नहीं ,,वो दिन भी याद है जब बहन ने पीएमटी में टॉप किया था और उस वक़्त मै अकेले में रो रहा था |मुझे छोटे भाई तन्मय का वो झूठ भी याद है जब उसके झूठ बोलनेकी वजह से पिता के हांथों निरपराध पीटा गया था |मुझे याद है कि कैसे बचपन में मै एक बार घर से बिना बताये बहुत दूर घूमने चला गया था और घर वापस आने पर माँ ने मुझसे सारे बर्तन मजवाये थे |मुझे 'अनामदास का पोथा 'बाणभट्ट की आत्मकथा "और "लोपामुद्रा "की भी याद है
मुझे अपने से दो साल बड़ी रवि की बहुत याद आती है जिसकी शक्ल स्टेफी ग्राफ जैसी थी और जिससे मैंने उसे वक़्त प्रपोज किया था जब मै हाई स्कूल में पढ़ रहा था ,हालाँकि कुछ ही दिनों बाद वो अपने उम्र के एक दूसरे लड़के से मोहब्बत करने लगी |,मुझे १५-१६ वर्ष की उम्र में अपने मित्र पवन के साथ की गयी साहसिक यात्राओं की बहुत याद आती है ,हमें याद है ग़जलें और कवितायें लिखने वाला पवन जब कभी दूर जाता फूट फूट कर रो पड़ता था |मुझे मकर संक्रांति के तिलवों की बहुत याद आती है जो अब समयाभाव में नहीं बन पाते ,मुझे मिटटी के पुरवा ,परई और पत्तल में परोसे गए खाने की बहुत याद आती है |मुझे आदिवासी बेसाहू चाची की बहुत याद आती है जिनके यहाँ मैंने पहली बार चकवड़ का साग बनते देखा था |मुझे १७ साल की उम्र में अखबार के पाठक मंच में पिताजी के लेख के खिलाफ लिखी गयी टिप्पणी भी याद है |मुझे याद है शशि कि , जिसे मैंने भोर में ५ बजे अपना प्रेम प्रस्ताव दिया था आज १७ सालों बाद भी लगता है कि कल ही की तो बात है कि टीचर उसे डांट रहे हैं और मै उससे कह रहा हूँ "शशि तुम्हे मेरी कसम है मत रोवो" |मुझे शशि को लिखे गए वो प्रेमपत्र भी याद है जिन्हें मै कभी कभी पोस्ट ऑफिस से भेज दिया करता था और एक दिन वो उसके पिता के हाँथ पड़ गए ,और मै अपने पिता के हाथों पीटा गया ,मुझे शेक्सपियर के जुलियस सीजर का ब्रूटस भी बहुत याद आता है ,में सोच नहीं पाता उसने विश्वासघात क्यूँ किया ?
मुझे याद है डाला गोलीकांड की जब निजीकरण के खिलाफ आन्दोलन कर रहे निहत्थे मजदूरों पर पुलिस ने गोलियां बरसाई थी उसमे दर्ज़न भर मजदूरों के साथ मेरा मित्र राकेश भी मारा गया था ,मुझे याद है उस एक रात लगभग आस पड़ोस के लोग पुलिस के डर से मेरे घर की छत पर शरण लिए हुए थे ,मुझे इंदिरा गांधी और राजीव गाँधी की हत्या और उसके बाद आम लोगों का रोना भी याद है ,मुझे राजीव गोस्वामी की आरक्षण के विरोध में आत्मदाह करते हुए अखबार के पहले पन्ने पर छपी तस्वीर भी याद है ,मुझे याद है कि कैसे अचानक एक ही दिन में मै सवर्ण और दलित का मतलब जान गया था |मुझे वनवासी भालुचोथवा की याद है ज्सिने अपनी मजबूत भुजाओं से सात जंगली भालुओं को मार दिया था,और मुझे ७० की उम्र में २० वर्ष और जीने की बाद कहता था ,लेकिन अचानक एक दिन चला गया |मुझे पहले पहल अपने घर में लाये गए टीवी पर बजता हुआ 'मिले सुर मेरा तुम्हारा ' भी याद है |मुझे याद है स्कूल के साथ- साथ घर में दिन रात पिसने वाली माँ के हांथों के बने खाने की ,बेसन के हलवों की ,नाना की ,नानी की ,गंगा की ,गंगा किनारे बसे उन चेहरों की जो अब भी ख्यालों में जब नहीं तब मुझे हाँथ हिलाते दिख जाते हैं |

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

पा ,पत्रकारिता और पतन



आपमें से बहुतों ने 'पा' देखी होगी और उसमे भीड़ द्वारा , पत्रकारों की पिटाई का नजारा देखा होगा,हमने भी देखा |सच तो ये है वो एक दो सीन देखकर मुझे भी किसी दर्शक की तरह सकून मिला ,शायद अगर ऐसा रियल लाइफ में हुआ होता तो ये भूलकर कि मै भी एक पत्रकार हूँ मैंने उस टीवी एंकर का सर फोड़ दिया होता जो आम आदमी की दुश्वारियों को अपनी झूठी ख़बरों से और भी मुश्किल बना रहा था और एक व्यक्ति के ईमानदार प्रयासों को अपनी बेईमान ख़बरों से रौंदने का काम कर रहा था |'पा' के निदेशक बाल्की जी के साहस की हम दाद देना चाहेंगे कि ऐसी परिस्थतियों में जब मीडिया खुद को देश,देश के लोगों और देश की संस्थाओं का भाग्यविधाता मानता है उन्होंने ऐसा कथानक प्रस्तुत करने का साहस किया |ये स्टोरी सिर्फ प्रिज़ोरिया से जूझ रहे आरो की है बल्कि उस मीडिया की भी है जो मानसिक तौर पर प्रिजोरिया से भी घातक व्याधि से जूझ रहा है |ये फिल्म सीधे सीधे मीडिया के उन घोड़ों की पीठ पर पड़ी चाबुक है जिन्होंने अपने छोटे बड़े स्वार्थों के लिए ख़बरों की लैबोरटरी खोल रखी है वो लैबोरटरी जिसमे में सिर्फ ख़बरें पैदा की जा रही है बल्कि उन ख़बरों के जेनेटिक कोड भी बड़ी सफाई से बदले जा रहे हैं ,,लालगढ़ से लखनऊ तक ये नजारा आम है |विभिन्न अभिक्रियाओं से गुजरने के बाद समाचारों का जो चरित्र आम लोगों के बीच रहा है वो ५० की उम्र में घर से भागी हुई किसी अधेड़ औरत की तरह है जिसे तो अपने बच्चों की फिकर होती है ही उस पति की जो उसे सर आँखों पर बिठाकर रखता था |हम ये कहने में तनिक भी ऐतराज नहीं है कि कभी सत्ता तो भी अखबारी बनियों के हाथों इस्तेमाल होने की नियति ने मीडिया को आज खुद शोषण और उत्पीडन का औजार बना दिया है वो अपने आर्थिक हितों के लिए ख़बरों का तो इस्तेमाल करता ही है ,समूह के खिलाफ जाने से भी गुरेज नहीं करता| क्या ये सच नहीं है कि ,आज भी इलेक्ट्रनिक चैनलों की ख़बरों का ताना बाना देश के उन दस फीसदी लोगों के इर्द गिर्द ही केन्द्रित हैं जिनसे उन्हें टी.आर.पी में अव्वल रहने और धंधे में लाभ का सुख मिलता है ?क्या ये भी सच नहीं है कि अखबार विज्ञापनों से जुडी कमाई के लालच में नकारे नेताओं और पार्टियों को आम जनता पर जबरिया थोप रहे हैं ? सच तो ये है कि हमने खुद को शीशे में देखने का काम छोड़ दिया है हम अपने बदन से रिस रहे फोड़ों को जानबूझ कर अनदेखा कर रहे हैं ,ऐसे में सिर्फ सिनेमा के परदे पर बल्कि संसद के गलियारों से लेकर सड़कों तक हमें लतियाया जाना तय है |
पत्रकार और ब्लॉगर 'रविश कुमार ' अपने ब्लॉग में कहते हैं "'पा' घटिया स्तर से नीचे चल रही मीडिया पर लात-जूते बरसाती है बाहर की असली मीडिया में इस पर सन्नाटा। फ़िल्म की कहानी से घोर सहमति बता रही है क्या?"बिलकुल ये शत प्रतिशत सच है कि हम इस कहानी से सहमत हैं !और शायद हमारी चुप्पी ही आखिरी उम्मीद है |आज अगर हिंदुस्तान की मीडिया में कुछ अच्छा है तो वो सिर्फ ये है कि हम अपनी हकीकत जानते हैं और उससे सहमत भी हैं |ख़बरों के साथ खेले जाने का सिलसिला नया नहीं है इसकी शुरुआत आपातकाल के दिनों में ही हो चुकी थी हाँ अंतर ये जरुर आया कि पहले ख़बरों को जिन्दा रखने के लिए पैसे कमाए जाते थे आज पैसे कमाने के लिए ख़बरों का इस्तेमाल किया जा रहा है पहले राजनीतिक पार्टियाँ अखबार निकालती थी अब अखबार राजनैतिक दलों के लिए निकलने लगे |ट्रांस्फोर्मेशन की इस प्रक्रिया में जो कुछ खोया आम आदमी ने खोया ,उसने खोया जो खुद को हमेशा से ख़बरों का हिस्सा मानता रहा है ,उसने भी खोया जिसके लिए खबर ही आखिरी उम्मीद थे |
मेरी मुलाक़ात रोज ही ऐसे लोगों से होती है जो अपनी जिंदगी की छोटी बड़ी दुश्वारियोंसे निजात पाने के लिए मुझसे ख़बरें लिखने का अनुरोध करते हैं ,परासपानी का रामरथ बिजली कड़कने से अपने चार भैसों के मरने की खबर छपने की उम्मीद करता है तो कोन के श्याम सिंह को गाँव में मलेरिया से हो रही मौतों पर ख़बरों की जरुरत होती है ,बीरपुर का ललन फ़ोन पर अपने निर्दोष बेटे को हफ्ते भर से थाने में बैठाये जाने की खबर छपने की गुजारिश करने के लिए सबेरे से ही घर पर आया हुआ है ,कहने को तो ये आपको सामान्य और छापे जाने लायक ख़बरें लगती होंगी ,लेकिन हकीकत बेहद अलग है |मुझे याद है उन दिनों कि जब मै दैनिक जागरण में था एक दिन मुझे बुलाकर कहा गया कि आप उनके बारे में ख़बरें लिखें जो आपका अखबार पढता है उनके बारे में लिखें जिस आपका अखबार खरीदने की भी कुबत नहीं !ऐसा ही कुछ सच उस वक़्त भी मेरी आँखों के सामने आया जब जहरीले पानी से दस दिनों में हुई दो दर्जन मौतों को आई.बी,.एन -7 के मेरे मित्र ने लो प्रोफाइल बता कर कवरेज करने से इनकार कर दिया | अब आप खुद ही अंदाजा लगायें शहरों में रह रहे उन दस फीसदी लोगों के अलावा जिनके बारे में जो कुछ भी लिखा जा रहा है वो कितना इमानदार होगा |हमें कहना होगा आज देश में मीडिया सामन्तों की भूमिका अदा कर रहा है .एक ऐसा सामंत जिसके खिलाफ आवाज उठाने का साहस किसी के पास नहीं ,वो मनमानी करेगा और खूब करेगा |
पिछले - वर्षों से छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा अखबारों और पत्रिकाओं को दिए जाने वाले अरबों रुपयों के विज्ञापन की वजह सभी जानते हैं अगर आप ये सोच रहे हैं कि ये सरकार की छवि को साफ़ -सुथरा रखे जाने की कीमत है तो आप गलत हैं ,!ये सब कुछ नक्सली उन्मूलन के नाम पर किये जा रहे उत्पीडन ,शोषण ,विस्थापन और सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ों को छुपाये जाने की की कीमत है |ये भी एक हकीकत है कि मीडिया ने सत्ता के सामने घुटने टेककर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं पश्चिम बंगाल ,बिहार ,उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में दलितों ,आदिवासियों और समाज के निपढ तबके के खिलाफ काम किया है वरिष्ठ पत्रकार रूपचंद गौतम कहते हैं 'भारतीय पत्रकारिता ने दलित अस्मिता का जितना मजाक उड़ाया है है ,उतना शायद किसी और ने नहीं |मै रूपचंद जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ |और इस सहमति के तर्क भी मेरे पास मौजूद हैं| मै उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल सोनभद्र जनपद से हूँ जिसे देश की उर्जा राजधानी भी कहते हैं ,पिछले वर्षों के दौरान गरीबों ,विस्थापितों कि हजारों बीघे जमीन पर जेपी एसोसियेट ने सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर कब्ज़ा जमा लिया ,आदित्य बिरला के एलुमिनियम कारखाने में झुलसकर पिछले एक वर्ष के दौरान एक दर्जन मौतें हुई हैं ,कनोडिया केमिकल के विषैले जहर से हजारों पशुओं की मौत हो गयी ,वहीँ दो दर्जन आदिवासियों को भी अपनी जान गवानी पड़ी ,ये ख़बरें अख़बारों और टीवी चैनलों की कवरेज का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बन पायीं ,क्यूंकि जिनसे सम्बंधित ये ख़बरें थी उन्होंने करोडो खर्च करके ख़बरों का ही गर्भपात कर दिया |ऐसा सिर्फ यहाँ नहीं पूरे देश में हो रहा है,मगर हम चुप हैं ,ये जानते हुए भी कि देश की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ हमें गरिया रहा है बल्कि हाँथ में जूता लेकर भी खड़ा है |अब शायद समय गया है मीडिया के बीच में मीडिया से जुड़े मुद्दों पर जम कर चर्चाएँ की जाएँ ,वेब मीडिया ने इसकी शुरुआत की थी ,अब सिनेमा के पर्दों पर भी हमें शीशा दिखाया जाने लगा,आत्ममूल्यांकन के इस क्षण को अगर हमने गँवा दिया तो शायद फिर कभी वापसी हो सके |

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

अमृता -इमरोज और साझा नज्म





पंद्रह दिनों पहले अमृता एक बार फिर इमरोज़ के सपनों में आई, बादामी रंग का समीज सलवार पहने |'सुनते हो ,कमरे में इतनी पेंटिंग क्यूँ इकठ्ठा कर रखी है ?अच्छा नहीं लग रहा ,कुछ कम कर दो "|अमृता कहें और इमरोज़ न माने ,ये तो कभी हुआ नहीं ,अब इमरोज़ ने कमरे से पेंटिंग कम कर दी हैं ,कमरे में फिर से रंगों रोगन करा दिया है |हाँ ,अपने बिस्तर के पैताने या कहें आँखों के दायरों तक ,और मेज़ पर रखे रंगों और ब्रशों के बीच अमृता की तस्वीरें टांग रखी है |इन तस्वीरों को देखकर यूँ लगता है जैसे हर वक़्त अमृता आज भी इमरोज़ की निगहबानी कर रही है ,इमरोज़ घर से बाहर कम जाते हैं ,क्यूँकर जाते ?उन्हें लगता है अमृता घर में अकेली होगी|बेतरतीबी के बावजूद खूबसूरती से जवान हो रहे फूल पौधों के पीछे किसी नज़्म सी दिख रही दीवारों के बीच प्यार के इन मसीहाओं की मौजूदगी को महसूस करना बेहद सकून देने वाला है |हमारे घुसते ही 80 की उम्र में भी अपार उर्जा से भरे इमरोज़ हमारे कन्धों को पकड़ हमें कुर्सी पर बैठा देते हैं |आप जानते हैं अमृता की मौत नहीं हुई ,मेरे लिए तो अमृता हर वक़्त मेरे साथ है ,जब चाहा उससे बातें कर लीं ,आजकल वो मेरी नज्में पढ़कर बेहद मुस्कुराती है| अमृता की मौजूदगी को लेकर उनका ये विश्वास बेहद सहज लगता है ,वे कहते हैं देखो, अब इस कमरे को अमृता के कहने पर थोडा सा बदल दिया,कितना अच्छा लगने लगा है न ? इमरोज़ के बगल में बैठी एक खुबसूरत पंजाबी लड़की जो शायद अमृता के किसी दोस्त की बेटी है ,इस सहजता को सच साबित करते हुए कहती है ,मुझे लगता है गुरूद्वारे जाने से अधिक अच्छा इमरोज़ बाबा से मिलना है ,सारी थकान सारी कुंठाएं न जाने कहाँ गायब हो जाती हैं |
इमरोज ,आप किस अमृता को प्यार करते थे ?वो अमृता जो एक नामचीन लेखिका और कवियत्री थी या फिर वो अमृता जो सिर्फ अमृता थी|,इमरोज़ ये सवाल सुनकर कहीं खो जाते हैं ,ख़ामोशी टूटती है 'जानते हैं आप ! मैंने ४ साल कि उम्र में माँ को खो दिया था ,बाद में जब कोई औरत मिलती मैं उसमे माँ ढूंढने लगता ,लेकिन जबसे अमृता से मिला धीमे धीमे मैंने माँ को ढूँढना बंद कर दिया ,यकीं शायद न हो लेकिन हेर रिश्ता उसमे समाहित हो गया और ये सब कुछ उसके व्यक्तित्व की वजह से था,जब वो खाना बनती थी ,तो एक एक करके मुझे गरम रोटी परोसती थी |जब तक मैं न आऊं वो खाना न खाए ,कहती थी,मैं खाना एन्जॉय करना चाहती हूँ इमा वो तुम्हारे साथ बैठे बिना संभव नहीं होता |वो मुझसे मिलने से पहले खाना नहीं बनती थी ,लेकिन मेरे मिलने के बाद रसोई भी उसकी एक सहेली हो गयी |मेरी नज्मों का सफ़र भी उसके साथ शुरू हुआ ,जब वो बीमार बिस्तर पर थी मैंने उसके सिरहाने बैठकर पहली नज़्म लिखी थी 'जब तुम पेड़ से बीज बन रही थी ,मेरे अन्दर कविता की पंक्तियाँ फूटने लगी '|
चाय के आधे भरे कप को घूर रहे इमरोज बात करते-करते यूँ फ्लैश बेक में चले जाते हैं जैसे सब कुछ इसी एक पल की बात हो ,चुस्कियों के साथ चुप्पियाँ टूटती है ,"जानते हैं ?अमृता और मैंने कभी आज तक एक दूसरे को आई लव यू नहीं बोला ,२६ जनवरी को मेरा जन्मदिन था,में उसके घर आया था ,मैंने उसे बताया और कहा गांवों में तो जन्मदिन नहीं मानते हैं,अमृता अचानक उठी और कुछ देर के लिए गायब हो गयी उसके लौटने के थोड़ी देर बाद एक आदमी आया और हमारी मेज़ पर केक रख गया ,न हमने उसे धन्यवाद कहा न उसने हमें जन्मदिन की मुबारकबाद दी ||एक वक़्त था जब पंजाब की पत्र पत्रिकाओं में अमृता के खिलाफ काफी कुछ कहा जाता था ,मैं देखता था इससे अमृता दुखी हो जाया करती थी ,सो मैं नीचे ही सारे अखबार और पत्र पत्रिकाएं पढ़ लेता था और उनमे से जिनमे अमृता के खिलाफ कुछ नहीं होता वही ऊपर भेजता था कई बार यूँ भी होता था कि अगर किसी अखबार में उसकी तस्वीर अच्छी नहीं छपी होती थी तो मैं उस पर उसकी सुन्दर सी तस्वीर चस्पा करके उसके पास भेज देता |
अमृता और इमरोज़ की बात हो और साहिर पर चर्चा न हो यूँ कैसे हो सकता है इमरोज़ के शब्दों में' बीस साल की दोस्ती थी दोनों की'|इमरोज़ बताते हैं कि जब मैं अमृता को स्कूटर पर बैठा कर रेडियो स्टेशन ले जाया करता था वो मेरे कुरते पर पीछे साहिर का नाम लिखा करती थी ,कभी जलन नहीं हुई ?मैंने तपाक से पूछा ,'अरे!जलन कैसे ?वो मेरा भी जिगरी दोस्त था ,कैसे भूल सकती थी अमृता उसे ,एक बार यूँ भी हुआ वो मुंबई गयी हुई थी किसी कार्यक्रम में ,वहां साहिर भी आये हुए थे ,साहिर्रने पूछा कब जाना है ?अमृता ने कहा आज शाम की ही फ्लाईट है,साहिर ने अमृता से टिकट माँगा और अपने जेब में रख लिया,और ये कहते हुए कि ये टिकट कल की भी हो सकती है ,साहिर अमृता को अपने घर ले गया ,अमृता ने मुझे फोन पर इतिल्ला दी थी ,वो पूरी रात साथ रहे ,लेकिन न मैंने अमृता के लौट के आने के बाद कोई सवाल किया न ही अमृता ने अपनी तरफ से कोई बात बताई | हाँ ,वहां से लौटकर लिखी गयी उसकी नज़्म में उस रात की सारी दास्ताँ थी जिसमे कहा गया था "आधी नज़्म एक कोने बैठी रही ,आधी नज़्म दूसरे कोने बैठी रही "|हलकी सी चाशनी घुली मुस्कान के साथ इमरोज कहते हैं मेरी मुलाक़ात जब अमृता से हुई वो ४० साल की थी ,मुझसे उम्र में सात साल बड़ी ,मानसिक तौर पर बहुत परेशान अमृता जब एक रोज़ डॉक्टर के पास गयी और अपने पति से अलग होने की बात कही तो डॉक्टर ने पूछा' क्या तुमने अपनी चाहत खोज ली है' ?तो अमृता ने कहा 'नहीं' ,ये वो वक़्त था जब अमृता की साहिर के साथ दोस्ती को एक लम्बा अरसा बीत चुका था ,डॉक्टर ने कहा 'तब अभी अपने पति से अलग मत हो 'फिर कुछ ही दिनों बाद मै मिला और उसने मेरे लिए सब छोड़ दिया,अमृता और साहिर जिंदगी भर एक दूसरे पर नज़्म लिखते रहे बस ||मैंने उन दोनों के बारे में कभी लिखा था
वो नज़्म से बेहतर नज़्म तक पहुँच गया
वो कविता से बेहतर कविता तक पहुँच गयी
पर जिंदगी तक नहीं पहुंचे
अगर जिंदगी तक पहुँचते
तो साहिर की जिंदगी नज़्म बन जाती
अमृता की जिंदगी कविता बन जाती

क्या आपमें अमृता को लेकर कभी इगो कंफ्लिक्ट हुआ ?अरे !ये क्या बात हुई ?कैसा
इगो ?मै अपनी पेंटिग्स पर अपना नाम भी नहीं लिखता वो मुझसे अधिक ,बेहद अधिक नामचीन थी ,मैंने सिर्फ एक बात जानी 'जो तुम्हे रुलाता हो ,वो तुम्हारा नहीं है ' ,|मैंने कभी वादा नहीं किया,उसने कभी वादा नहीं लिया |शायद बहुतकम लोग जानते हैं वो सपने में लिखती थी उसे ढेर सारे सपने आते थे मुझे सपने कम आते हैं ,उसके सपने भी मेरे सपनों से खुबसूरत हुआ करते थे |मैंने लिखा है 'जब तू पेड़ से बीज बनने लगी ,मेरे अन्दर किस तरह से कविताओं की पंक्तियाँ फूटने लगी "|
इमरोज़ आपने पेंटिंग्स और कविताओं में क्या साम्यता पाते हैं ?'कोई साम्यता नहीं है |पेंटिंग्स कोई सोच कर नहीं बना सकता ,रंग आपके कण्ट्रोल में नहीं होते हैं ,मै रंगों से खेलता हूँ ,जबकि नज्में सोच लेकर चलती हैं |पेंटिंग्स को लेकर अपना फलसफा इमरोज़ कुछ ऐसे बयां करते हैं
कैनवास धरती नहीं होते
रंग बीज नहीं होते
कैनवास पर लाइफ पेंट करना
स्टील लाइफ हो जाती
स्टील लाइफ में लाइफ नहीं होती
वो कहते हैं अगर कोई ये कहे हमने कैनवास पर जिंदगी पेंट की है तो वो झूठ कहता है|
इमरोज़ से हम चलते -चलते वुमेन विथ माइंड शीर्षक की पेंटिंग के बारे में बात करते हैं |वो बताते हैं 'अमृता ने मुझसे एक दफा पूछा की तुमने कभी वुमेन विथ माइंड बनायीं है ? वुमेन विथ फेस तो सब बनाते हैं'|अमृता के कहने का मतलब में समझ रहा था ,बहुत ही कम लोग होते हैं जो जिस्म से आगे बढ़ पाते हों , कोई भी पेंटर जब भी ब्रश से औरत को उकेरता है ,तो उसके जेहन में सिर्फ औरत का शरीर होता है |इमरोज कहते हैं जब तक पुरुष स्त्री का आदर नहीं करता तब तक वो इंसान नहीं बन सकता है ,और भी सच है कि निरादर सह रही औरतें आदर पैदा नहीं कर सकती |मैंने अमृता के कहने पर फिर वुमेन विथ माइंड बनायीं |इमरोज कहते हैं हमारे और अमृता के के बीच में शब्दों का नाता बहुत कम था हम चुप्पियाँ बांटा करते थे ,हमारे लिए धर्म का कोई मलतब नहीं था ,वह जन्म से ही धार्मिक संकीर्णता के विरुद्ध खड़ी थी ,मै भी उसके जैसा हूँ |वो मुझको और मै उसको आज भी हर पल जी रहे हैं, यही धर्म है |सवालों का सिलसिला ख़त्म होता है अधूरे जवाबों को पूरा करने हम अमृता के कमरे में जाते हैं ,सब कुछ वैसे ही है ,अमृता की किताबें ,कागज़ ,कलम ,एक छोटा टीवी और ढेर सारी तस्वीरें ,सोचता हूँ कितना मुश्किल होता है यादों को संजोना और न सिर्फ संजोना उनके साथ जीना |


इमरोज की चार कवितायेँ

१-
एक ज़माने से
तेरी ज़िन्दगी का पेड़
कविता कविता
फूलता फलता और फैलता
तुम्हारे साथ मिल कर
देखा है

और अब
तेरी ज़िन्दगी के पेड़ ने
बीज बनना शुरू किया
मेरे अन्दर जैसे कविता की
पत्तियां फूटने लगीं है...

और जिस दिन तू पेड़ से
बीज बन गई -
उस रात एक नज़्म ने
मुझे पास बुला कर पास बिठा कर
अपना नाम बताया
'अमृता जो पेड़ से बीज बन गई'
मैं काग़ज़ ले आया
वह काग़ज़ पर अक्षर अक्षर हो गई...

अब नज़्म अक्सर आने लगी है -
तेरी सूरत में तेरी तरह हीं देखती मुझे
और कुछ देर मेरे साथ हम कलाम होकर
हर बार मुझ में हीं गुम हो जाती है...

२-
उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं
वो अक्सर मिलती है
कभी तारों की छांव में
कभी बादलों की छांव में
कभी किरणों की रोशनी में
कभी ख्यालों के उजालों में

हम पहले की तरह मिलकर
कुछ देर चलते रहते हैं
फिर बैठकर एक-दूजे को
देख-देख, चुपचाप कुछ कहते रहते है
और कुछ सुनते रहते हैं

वह मुझे अपनी नयी अनलिखी
कविता सुनाती है
मैं भी उसको अपनी अनलिखी
नज़्म सुनाता हूँ

वक़्त पास खड़ा ये अनलिखी शायरी
सुनता-सुनता, अपना रोज़ का नियम
भूल जाता है

जब वक़्त को याद आता है
कभी शाम हो गयी होती है
कभी रात उतर आयी होती है
और कभी दिन चढ़ आया होता है
उसने सिर्फ जिस्म छोड़ा है
साथ नहीं

३-
अमृता मुझे कई नामों से
बुलाती है
दोस्ती के ज़माने में
रेडियो स्टेशन स्कूटर पर जाती
वह बाएं हाथ से मुझे लिपटी रहती
और दायें हाथ से कभी कभी
मेरी पीठ पर कुछ लिखती रहती
एक दिन पता लगा
वह साहिर साहिर लिखती है

मनचाही पीठ पर मनचाहा नाम
मुझे साहिर भी अपना नाम हीं लगा
अमृता की दोस्ती में
इतनी अपनत्व देखी और जी
कि फिर कोई बेगानगी रही ही ना...

उस कि कलम
जब भी लिखती मनचाहा ही लिखती
और उसकी ज़िन्दगी
मनचाहा ही जीती अपने आपके साथ भी
और अपने मनचाहे के साथ भी...


४-
मैं एक लोक गीत
बेनाम हवा में खड़ा
हवा का हिस्सा
जिसे अच्छा लगूँ
वह अपनी याद बना ले
जिसे और अच्छा लगे
वह अपना बना ले
जिसके जी में आये
वह गा भी ले -
मैं एक लोक गीत
सिर्फ लोक गीत
जिसे किसी नाम की
कभी भी
ज़रूरत नहीं पड़ती



[ये पूरा साक्षात्कार मैंने और लेखिका एवं कवियत्री जेन्नी शबनम जी ने संयुक्त रूप से लिया है ]

बुधवार, 25 नवंबर 2009

सिस्टम ,सोसाइटी और सहमे शहर -26/11


हम मुंबई में घटित २६/११ के आतंकी हमले की बरसी मना रहे हैं ,मोमबत्तियां जला रहे हैं ,मर्सिया पढ़ रहे हैं ,और यह सब कुछ यह मानते हुए कि इस देश में कभी भी कहीं भी २६/११ जैसी घटनाएँ हो सकती हैं |जब सिस्टम का आम जनता से कोई वास्ता नहीं रह जाता तब सिर्फ और सिर्फ मर्सिया ही किया जा सकता है ,जब प्रजा का विश्वास राज्य की व्यवस्था पर नहीं रह जाता, तब वही होता है जो आज हिंदुस्तान में हो रहा है |क्या इस बात पर जिन्दा कौमें यकीन करेंगी कि जिस शहर में, जिस राज्य में सैकड़ों बेगुनाहों को आतंकियों ने भून डाला था उसी शहर ,उसी राज्य में एक विक्षिप्त जिसकी अब विधान सभा में भी भागीदारी है कभी भाषा तो कभी धर्म के नाम पर आम आदमी को आम आदमी के विरुद्ध खड़ा करने में सफल हो रहा था ,और सत्ता के दावेदारों के साथ- साथ हम -आप अपना चेहरा नयी नवेली दुल्हनों की तरह छुपाये मुस्कुरा रहे थे |क्या इस बात पर यकीन किया जा सकता है कि २६/११ की बरसी से महज चंद दिनों पहले देश में हिन्दुओं के ठेकेदार सीना ठोककर बाबरी मस्जिद गिराए जाने को गर्व का विषय बता रहे थे ,जी हाँ ,ये वो घटना थी जिसने हिंदुस्तान में मुस्लिम फिरकापरस्ती की नयी फसलें पैदा की हैं | आज देश को न तो सत्ता न ही कानून व्यस्था और न ही मीडिया चला रही है वस्तुतः देश को देश की सामाजिक व्यवस्था चला रही है |कहा जा सकता है सरकार से पूरी तरह निराश,नाराज और असंतुष्ट आम जनता का सामाजिक सम्बंध ही देश को और इस बेहद अविश्वश्नीय सिस्टम को जीवित रखे हैं |व्यवस्था या सिस्टम शब्द का एक अर्थ यह है कि अच्छे विचारों और परिकल्पनाओं पर संगठित सरकार ,सिस्टम शब्द का हिन्दुस्तानी अर्थ ये भी है कि यह वो कार्यप्रणाली है जिसे हम चाहकर भी नहीं बदल पाते ,अपने देश में व्यवस्था और सिस्टम की व्यापकता में सिर्फ सरकार ही नहीं सभी राजनैतिक ,आर्थिक ,सामाजिक ,धार्मिक ,सांस्कृतिक ताकतें आ जाती हैं |फिलहाल हिन्दुस्तान में सर्वशक्तिमान सिस्टम ही है ,इस सिस्टम ने तानाशाही को लोकतंत्र के सांचे में ढालने की तरकीब सीख ली है यह वह प्रणाली है ,जिस पर देश की आम जनता को भरोसा नहीं है ,लेकिन फिर भी वो ख़ामोश है |

२६/११ के सन्दर्भ में कुछ ताजा उदाहरण महत्वपूर्ण है |हरकत उल जेहाद अल इस्लामी का मास्टर माइंड शहजाद उत्तर प्रदेश में कहीं गुम है ,पिछले दिनों पाकिस्तानी मूल के आतंकी टी हुसैन राजा और डेविड हैडली को इटली से ,और आतंकियों के मोबाइल में पैसे भेजने वाले मोहम्मद याकूब जंजुआ और उसके बेटे आमेर याकूब को विदेशों में पकड़ा गया |इंग्लॅण्ड के शहर वेस्ट मिनिस्टर में चार आतंकी पकडे गए |गृहमंत्री कहते हैं कि जस्टिस लिब्राहन की बाबरी मस्जिद विध्वंस वाली रिपोर्ट की सिर्फ एक प्रति है ,जो गृह मंत्रालय के पास है ,तब रिपोर्ट कैसे लीक हो गयी ?कहा है इन्टेलीजेन्स?कहाँ है आतंक के खिलाफ भुजाओं का जोर ?कहाँ हैं देश को देश बनाये रखने की राजनैतिक इच्छाशक्ति ?जानते हैं ?इन सभी विफलताओं इन सभी कमियों की सिर्फ और सिर्फ एक वजह है आम आदमी का सिस्टम में विश्वास न होना |यकीन करें न करें मगर कभी भी कहीं भी किसी भी वक़्त एक और २६/११ पैदा हो सकता है ,फिर कोई आम्टे मरा जायेगा ,फिर किसी करकरे की शहादत होगी ,फिर न जाने कितनो की आँखें कभी न ख़त्म होने वाला इन्तजार बना रहेगा |ये सब सिर्फ इसलिए की सिस्टम और आम आदमी के बीच की दूरी दिन प्रतिदिन और भी बढती जा रही है |जो आम आदमी अपने हिस्से की रोटी न मिलने के बावजूद उफ़ नहीं करता वो भला पडोसी के गम की साझेदारी , क्यूँ करेगा ?हाँ ,ये इंसानियत नहीं है ,ये विश्वासघात है ,ये देशद्रोह है फिर भी वो करेगा,जिस वक़्त ,जिस दिन मुंबई में समुद्र के किनारे करांची के रास्ते पहुंचे आतंकियों के बारे में मल्लाहों ने स्थानीय प्रशासन को सूचना न देने का फैसला किया था उस वक़्त ,उस दिन भी सिस्टम से दूरियां थी ,आज भी हैं |
आज भी देश के नगरों ,महानगरों की ३० फीसदी आबादी अपने चक्कर में व्यस्त है ,वह कदापि जोखिम नहीं लेना चाहती ,उसके पास डयूटी,व्यापार,बीबी बच्चों और बाजार के बाद घाटों पर दीप , स्मारकों पर मोमबत्ती जलाने और शोकसभा करने की फुर्सत है ,उसके लिए देशभक्ति भी फैशन है |मुझे ये कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आज धार्मिक ,सांस्कृतिक,पाखण्ड ,जाति भाषा और संप्रदाय के कलह में आम जनता की भागीदारी भी सिस्टम की विफलता का कारण है |सिस्टम की विफलता का प्रतीक वो ५५-६०करोड़ लोग है जो रोजी रोटी ,कपडा,घर,दवाई,के ही जुगाड़ में जीते मरते हैं ,इन्हें जिस दिन भरपेट भोजन और नींद भर आराम मिल जाता है उस दिन वे स्वय को सौभाग्यशाली मान लेते हैं , इस बड़े मेहनतकश वर्ग के प्रति सिस्टम संवेदनही है ,अन्याय भी गरीब के साथ ही होता है ये कोई सुचना इसलिए नहीं देते क्यूंकि पुलिस उल्टे इन्हें ही फंसा देती है ,हमने नक्सल प्रभावित राज्यों में पाया कि जहाँ गरीब के घर नक्सली जोर जबरदस्ती करते हैं वहीँ पुलिस भी उन्हें परेशान करती है |वह करें तो क्या ?पुलिस की सूचना नक्सली को दे या नक्सली की सुचना पुलिस को दे उन्हें मरना ही पड़ता है ,वे होंठ सी लेते हैं ,सिस्टम पर उन्हें विश्वास नहीं |प्रसंगवश नक्सलियों को रोकने के लिए हाई फाई सुरक्षा बंदोबस्त करने वाला सिस्टम..आदिवासियों की सुरक्षा तो दूर ,उन्हें लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से ही बाहर कर देता है .बैलेट का हक़ छिनकर बूलेट से मुकाबले की उम्मीद सिस्टम करता है तो सच्चाई पर पर्दा डालता है |
देश राष्ट्र,भारत माता के प्रति सिर्फ आंसू नहीं ,पसीने और रक्त की निष्ठा होनी चाहिए ,गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के जो लड़के लड़कियां फ़ौज -सुरक्षाबल में नौकरी करते हैं ,और जो आम आदमी संवेदनशील हैं वही विश्वसनीय रह गए हैं ,जिस दिन व्यवस्था और जनता के सपने एक होंगे ,उसी दिन २६/११ की चिंताएं ख़त्म हो जाएँगी |मर्सिया पढने से बेहतर है अपने मन में देश प्रेम की भावना की ज्योति पैदा करें |अन्यथा ये हकीकत है कि अन्याय,गैरबराबरी , राजनैतिक स्वार्थपरता और भ्रष्टाचार ने देशवासियों की सोच के साथ साथ समर्पण की राष्ट्रीय भावना पर धूल की मोटी परत जमा दी है |ये परत जितनी मोटी होती जाएगी उतने ही २६/११ पैदा होते रहेंगे |

सोमवार, 9 नवंबर 2009

आग ,आटा और लोहा


रोटियों की सही सेंक के लिए, आग और आटे के बीच लोहे को आना पड़ता है|लोकतंत्र में अति का परिणाम अगर देखना हो तो पश्चिम बंगाल आइये ,सामाजिक ,सांस्कृतिक ,बौद्धिक और साहित्यिक तौर पर शेष भारत के सन्मुख जबरिया उदाहरण बनने की कोशिश करता हुआ यह राज्य आज राजनैतिक अतिवादिता के खिलाफ क्रांति का नया ठिकाना बन गया है ,ये हिंदुस्तान में राजनीति के आभिजात्य संस्करण के खिलाफ आबादी का संगठित हस्तक्षेप है |अब तक मीडिया के अन्दर या फिर मीडिया के बाहर नंदीग्राम -सिंगुर-लालगढ़ में हो रहे जनविद्रोह को सिर्फ वामपंथी सरकार के खिलाफ नक्सलवादी विरोध बताकर इतिश्री कर ली गयी ,हकीकत का ये सिर्फ एक हिस्सा है ,पूरी हकीकत जानने के लिए आपको उस पश्चिम बंगाल में जाना होगा ,जिसने आजादी के पहले और आजादी के बाद भी शोषण ,उत्पीडन और जिंदगी की सामान्य जरूरतों के लिए सिर्फ और सिर्फ संघर्ष किया है ,आपको पश्चिम मिदनापुर के रामटोला गाँव के नरसिंह के घर जाना होगा ,जो यह कहते हुए रो पड़ता है कि उसने भूख से तंग आकर अपनी बेटी के हिस्से की भी रोटी खा ली ,आपको बेलपहाडी ,जमबानी ,ग्वालतोड़,गड्वेता और सलबानी के ठूंठ पड़े खेतों को भी देखना होगा ,आपको प्रकृति के साथ -साथ वामपंथी सामंतों द्वारा बरपाए गए कहर को भी देखना होगा ,साथ ही आपको उन अकाल मौतों को भी देखना होगा ,जिसकी फ़िक्र न तो सत्ता को थी और न ही उसकी सरपरस्ती में चौथे खंभे का बोझ उठाने की दावेदारी करने वालों के पास |

अगर केंद्र सरकार या तृणमूल कांग्रेस ये समझती हैं कि मौजूदा जनविद्रोह सिर्फ और सिर्फ वामपंथियों के खिलाफ है तो ये भी गलत है समूचा पश्चिम बंगाल उस शेष भारत की अभिव्यक्ति है जिसे देश के राजनैतिक दलों ने सिर्फ और सिर्फ वोटिंग मशीन समझ कर इस्तेमाल किया और छोड़ दिया ,ये शेष भारत वो भारत है जहाँ तक न तो संसाधन पहुंचे और न ही सरकार ,ये जनविद्रोह माओवाद या किसी अन्य विचारधारा की उपज नहीं है ,ये किसी भी जिन्दा कॉम के प्रतिरोध की अब तक की सबसे कारगर तकनीक है,ये जनविद्रोह सिर्फ पश्चिम बंगाल में जनप्रिय सरकार के गठन के साथ ख़त्म हो जायेगा ऐसा नहीं है ,कल को अगर पश्चिम बंगाल से शुरू हुई इस क्रांति में देश भर के युवाओं ,किसानों ,खेतिहर मजदूरों और आदिवासी गिरिजनों की भागीदारी हो तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए ,निस्संदेह लोकतंत्र को परिष्कृत करने के लिए इस क्रांति की जरुरत बहुत लम्बे अरसे से थी |
जब कभी दुनिया में वामपंथ के इतिहास की चर्चा होगी ये चर्चा भी जरुर होगी कि हिंदुस्तान के एक राज्य में २५ वर्षों तक राज्य करने के बाद कैसे एक वामपंथी सरकार अपने जैसे ही विचारधारा के लोगों की जानी दुश्मन हो गयी ,उस वक़्त ये भी चर्चा होगी कि कैसे एक देश की सरकार पहले तो अपने ही देश के गरीब और अभावग्रस्त लोगों की दुश्वारियों को जानबूझ कर अनसुना करती रही ,और फिर अचानक हुई इस जानी दुश्मनी का सारा तमाशा नेपथ्य से देखकर तालियाँ ठोकने लगी |उस एक महिला की भी चर्चा होगी जिसे हम ममता बनर्जी के नाम से जानते हैं जो संसद में तो शेरनी की तरह चिंघाड़ती थी ,लेकि नंदीग्राम से पहले उसे भी पश्चिम बंगाल के उस हिस्से के दर्द से कोई सरोकार नहीं था जो हिस्सा आज पूरे पश्चिम बंगाल की राजनीति की दिशा तय कर रहा है | नेहरु की भी चर्चा होगी ,इंदिरा गाँधी की भी चर्चा होगी और उस कांग्रेस पार्टी की भी चर्चा होगी जिसने वामपंथियों के साथ देश पर राज किया, कोंग्रेस पार्टी के राहुल की भी चर्चा होगी जो अपने संसदीय क्षेत्र के दलित परिवार के घर में रात बिताता है लेकिन अभी तक पश्चिम बंगाल के उस हिस्से में नहीं गया |मेरा मानना है पश्चिम बंगाल में सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या वामपंथी पार्टियों की, नेता एक ही वर्ग के थे. यानी अभिजात्य वर्ग के| उन्हें किसानों और आदिवासियों की मूल समस्याओं की जानकारी ही नहीं थी तो वो उसका समाधान क्या करते |आदिवासियों के साथ किये गए राजनैतिक छलावे पर बी बी सी के मित्र सुधीर भौमिक कहते हैं ‘विकास तो कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि यहां के लोगों की समस्याओं को तो नेता कभी समझे ही नहीं. सीपीएम के भूमि सुधार का भी इन लोगों को लाभ नहीं मिला. आदिवासियों को उम्मीद थी कि अलग झारखंड राज्य बनने पर उन्हें कुछ फ़ायदा मिलेगा, लेकिन इस इलाक़े को झारखंड राज्य में शामिल नहीं किया गया और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इस इलाक़े को शामिल किए बिना ही अलग राज्य को स्वीकार कर लिया.’|ये बात सही भी है इनकी समस्यों को कभी समझा ही नहीं गया ,ऐसे में इस क्रांति के अलावा क्या और कोई विकल्प शेष था ?
आज पश्चिम बंगाल में चार तरह के लोग रह रहे हैं विद्वतजन ,अभिजन ,भद्रजन और आमजन |भद्रजन वो हैं जिनकी बदौलत अब तक राज्य में वामपंथियों का शासन रहा ,उनके लिए वामपंथी विचारधारा लोकतान्त्रिक परम्पराओं से परे उनके जीवि रहने की शर्त बन गयी है ,अभिजन वो हैं जिनके हाँथ में विधानसभा से लेकर ग्राम पंचायतों तक का नेतृत्व रहा है ,ये वो लोग हैं जो फटे पुराने कुर्तों में मुँह में विल्स सिगरेट दबाये चश्मे के शीशे के पीछे से दुनिया देखते हैं ,विद्वतजन में लेखिका महाश्वेता देवी,अम्लान दत्त, जय गोस्वामी, अपर्णा सेन, सावली मित्र, कौशिक सेन, अर्पिता घोष, शुभ प्रसन्न, प्रतुल मुखोपाध्याय भास चक्रवर्ती ,और कृपाशंकर चौबे जैसे वो लोग हैं जो ,आमजन की हकदारी को लेकर खुद के जागने का दावा कर रहे हैं लेकिन वामपंथी सरकार के दांव पेंचों की दुहाई देकर खुद को समय -समय पर तटस्थ कर ले रहे हैं |गौरतलब है कि जब वहां की सरकार ने पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारण कमेटी को आर्थिक मदद दिए जाने के नाम पर महाश्वेता देवी एवं अन्य विद्वतजनों के खिलाफ गैरकानूनी क्रियाकलाप निरोधक (संशोधन) कानून (यूएपीए) के तहत मुकदमा दर्ज किये जाने की बात कही तो आनन फानन में हर जगह ये कहा जाने लगा कि हमारा साथ आदिवासियों के लिए था माओवादियों का हम विरोध करते रहेंगे |मगर सच ये है कि ये विद्वतजन न तो माओवादियों का खुल कर विरोध कर रहे हैं और न ही मौजूदा आन्दोलन का पुरजोर समर्थन |चौथे और आखिरी आमजन हैं ,वो आमजन जिन्हें जन भी नहीं समझा गया ,आजादी के बाद से अब तक न तो उन्हें सत्ता में भागी दारी मिली और न ही दो जून की रोटी की गारंटी |

मौजूदा क्रांति को सिर्फ सशस्त्र क्रांति के रूप में देखना बहुत बड़ी गलती होगी ,हाँ ये जरुर है कि इस जनांदोलन में माओवादियों की भागीदारी से हिंसा भी इसका एक हिस्सा बन गयी है ,लेकिन ये भी सच है कि अगर आज आप कथित तौर पर नक्सली आन्दोलन से प्रभावित इलाकों में जायेंगे तो वहां का आदिवासी अगर लोकतंत्र में विश्वास की बात नहीं करेगा तो वो हथियार उठाने की बात भी नहीं करेगा ,उसके मन में व्यवस्था के प्रति पैदा हुआ प्रतिकार अहिंसक होने के साथ साथ उग्र भी है जो कि किसी भी सफल क्रांति की पहली शर्त है |वो जीना चाहता है ,उसे तो सिर्फ पेट भर खाना और सर पर छत की जरुरत है ,मगर अफ़सोस उसके हिस्से में पहले जलालत भरी जिंदगी थी और अब गोली है |सिंहासन के पुजारी सर पर हाँथ रखकर गले लगाने की तरकीब भूल गए हैं ,सो अब जनता के आने की बारी है

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

सनसनी .समझौतों और सिक्कों पर पलती पत्रकारिता





राजदीप सरदेसाई हालिया प्रकाशित अपने लेख में कहते हैं 'विश्वश्नियता के मुद्दे पर भारतीय पत्रकार ,चैनल सम्पादक और कुछ हद तक अखबार के सम्पादक भी अपनी जमीन खोते जा रहे हैं' |पुण्य प्रसून वाजपेयी को पत्रकारिता के खिलाफ राजनैतिक अतिवादिता से गहरी शिकायत है ,उन्हें लगता है अब पत्रकारिता से राजनीति को नहीं राजनीति से पत्रकारिता को नियंत्रित करने का शर्मनाक दौर शुरू हो गया है | अगर हम मौजूदा समय में हिन्दुस्तानी पत्रकारिता को समझना चाहते हैं तो हमें इन दोनों स्थितियों का विश्लेषण करना होगा ,क्यूंकि ये सिर्फ्र दो स्थितियां या घटनाएँ नहीं हैं बल्कि ये देश में इस वक़्त पत्रकारिता के दो पाटों में बटे होने का दस्तावेज हैं ,एक पाट वो है जिसकी चर्चा राजदीप कर रहे हैं और पुण्य प्रसून के शब्दों में कहें तो वो शीशे से दुनिया देखने वाले पत्रकारों की जमात है| ये वो हैं जिन्हें या तो राजनैतिक दल ,या फिर राजनैतिक परिस्थितियां प्रभावित कर रही हैं ,इन लोगों ने या तो पत्रकारिता को राजनीति की रखैल बनते देखना स्वीकार कर लिया है या फिर पत्रकारिता के नाम पर खुद के बलात्कार की इजाजत दे दी है |एक दूसरा पाट भी है ,जो चुप नहीं रहता उसे पहले पाट की उपस्थति से भी चिढ है साथ ही वो बार बार हारने,टूटने और अखबारी बनियों के हाथों लतियाये जाने के बावजूद के बावजूद कलम को सलामी ठोकना नहीं छोड़ता,उसे राजनीति के आतंक का खत्म करना भी आता है ,और अति का जवाब देना भी |हिन्दुस्तानी पत्रकारिता के लिए ये गर्व का विषय है कि अस्तित्व और रोजी रोटी से जुडी तमाम चुनौतियों के बावजूद आज इस दूसरे पाट के पत्रकारों की संख्या बेहद अधिक है ,सिर्फ अधिक ही नहीं है इनकी संख्या लगातार बढती भी जा रही है, हालाँकि उनके बारे में चर्चाएँ यदा कदा ही किसी फोरम पर होती है |ये भी सच है कि इस दूसरे पाट के पत्रकारों के लिए ख़बरों की विश्वसनीयता को कायम रखना रोटी के साथ साथ खुद की पहचान को बनाये रखने से भी जुड़ा होता है |राजदीप की कठोरता और पुण्य प्रसून वाजपेयी की शिकायत सिर्फ इसलिए है क्यूंकि अब तक ख़बरों को सिर्फ सनसनी ,सिक्कों और अक्सर समझौतों की कसौटी पर ही प्रस्तुत किया जाता रहा है ,अगर सरोकार भी ख़बरों के प्रस्तुतीकरण का जरिए होते तो शायद इतना हो हल्ला नहीं मचता |


मुझे २ वर्ष पहले की एक घटना याद आती है लखनऊ में सड़क पर २४ घंटे से लावारिस पड़ी एक बीमार महिला और उसको चिकित्सा विश्वविद्यालय में कुछ अख़बार के संवाददाताओं और फोटोग्राफरों द्वारा भरती कराये जाने का समाचार मेरे अख़बार ने प्रथम पृष्ठ पर लीड स्टोरी के रूप में प्रकाशित किया था ,अगले दिन सुबह जब मैं अपने भूतपूर्व सम्पादक प्रभात रंजन दीन के कमरे मैं बैठा था तो खबर आई कि चिकित्सा विश्वविद्यालय से उस महिला को निकालकर एक बार फिर सड़क पर फेंक दिया गया है ,ये सिर्फ एक खबर हो सकती थी ,लेकिन जानते हैं मेरे सम्पादक ने क्या कहा ?उन्होंने फ़ोन पर संवाददाता को आदेश दिया जाओ वहां बवाल कर दो धरने पर बैठ जाओ ,कपडे फाड़ डालो ,ये कोई प्रहसन नहीं था| बवाल हुआ या नहीं मुझे नहीं मालूम ,लेकिन अस्पताल में पुनः भारती होने के एक हफ्ते बाद वो महिला स्वस्थ होकर अपने घर जा चुकी थी |एक घटना फिर घटी जिस वक़्त महाराष्ट्र में राज ठाकरे उत्तर भारतीयों को पानी पी पी कर गाली दे रहे थे ,उस वक़्त प्रभात जी ने अखबार में पहले पन्ने पर सुचना प्रकाशित की कि हम कभी भी राज ठाकरे का नाम प्रकाशित नहीं करेंगे ,ये वही समय था जब भाषा के मुद्दे पर उत्तर भारत और शेष भारत को अलग अलग बांटा जा रहा था ,शायद आपको याद हो ठीक उसी वक़्त टीवी -१८ ने बेहद आश्चर्यजनक ढंग से मराठी भाषा में लोकमत समाचार चैनल लॉन्च कर दिया था .संभव है ये कदम सरोकार से जुड़ा हो लेकिन हम इसे अवसरवादिता से जोड़ कर देखते हैं |संसद में नोट की गद्दियाँ उछाले जाने के वक़्त भी मीडिया ने सरोकारों को अनदेखाकर खबरें प्रस्तुत की ,उस वक़्त पूरा देश खबरी चैनलों से सच जानने की उम्मीद कर रहा था ,अगर सरोकार होते तो बेवजह के तर्कों में सबको उलझाये बिना किसी भी कीमत पर सच दिखाया जाता |जहाँ सरोकार नहीं होते वहीँ विश्वसनीयता का संकट पैदा होता है ,ये भी मानना होगा कि अगर राजनीति जैसे महत्वपूर्ण विषय में खबरिया चैनलों या फिर अख़बारों के सरोकार गायब रहेंगे ,तो शोमा और कोमालिका के किस्से सामने आते रहेंगे|जो नही जानते हैं उन्हें हम बता दे, पश्चिम बंगाल की इन दोनों महिला पत्रकारों का तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा न सिर्फ़ घोर अपमान किया गया ,बल्कि शोमा पर ममता बनर्जी की हत्या की साजिश का आरोप लगाकर पुलिस के सुपुर्द भी कर दिया गया | पुण्य प्रसून वाजपेयी ने जिन घटनाओं का जिक्र किया है उनमे तृणमूल के कार्यकर्ताओं का दोष कम उन चैनलों का दोष अधिक है जिन्होंने खुद की छवि राजनैतिक पार्टियों की रखैल के रूप में बना रखी है |खतरनाक ये है कि सिर्फ क्षेत्रीय चैनल या अखबार नहीं तमाम राष्ट्रीय अख़बारों और चैनलों में रखैल बनने का ये शगल जोरों पर है |सिर्फ टी आर पी और थोथे सर्वेक्षणों के आधार पर अपना मूल्यांकन करने वाले चैनल और अखबार अगर खुद का चेहरा आईने में देखना चाहते हैं तो मीडिया के मंचों पर नहीं आम आदमी के बीच जाकर संवाद करें दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा |और ये कहने मैं मुझे तनिक भी हिचकिचाहट नहीं है राजनीति और पत्रकारिता के इस गठजोड़ के बारे में इमानदारी से लिखने की हिमाकत भी नहीं की जा रही |जहाँ भय है वहां विश्वसनीयता का माहौल बनेगा कैसे ?


राजदीप सरदेसाई अपने उसी लेख में कहते हैं 'जब एक ही स्टोरी को अलग अलग मंचों से और सौ अलग अलग तरीकों से कहा जा रहा है ,एक निष्पक्ष खबर पेशकर्ता के तौर पर पत्रकार की छवि दुर्लभ होती जा रही है' |राजदीप किन ख़बरों की बात कर रहे हैं ?जहाँ तक हम देखते हैं सिर्फ राजनीति ही एक ऐसा विषय है जहाँ प्रस्तुतीकरण में विभेद होता है ,और माफ़ कीजिये ये विभेद पत्रकार नहीं पैदा करता ,ये विभेद चैनलों और अख़बारों के राजनैतिक संबंधों का प्रतिफल होता है ,कोमालिका क्या करे अगर उसे अपने घर परिवार की रोटी 'आकाश चैनल 'से मिलती है ?शोमा को अगर ख़बरों की कवरेज का चरम सुख अगर किसी ऐसे चैनल के माध्यम से मिलता है जिसका चरित्र वामपंथी है तो उसमे उसका क्या कसूर ?ये पुण्य प्रसून का सरोकार है नए लोगों के लिए ,कि उन्हें ऐसी घटनाओं से दुःख होता है |नहीं तो दूसरे पाट में ख़बरों को जी रहे कलमकारों की चर्चाएँ ही कौन करता है ,खबरें उन्ही की वजह से जिन्दा हैं ,आम आदमी से जुड़े सरोकार भी उन्ही से सध रहे हैं ,और विश्वसनीयता भी उन्ही की बदौलत कायम है | अगर हममे जरा सी भी संवेदनशीलता शेष है तो पुण्य प्रसून वाजपेयी के दर्द को समझें साथ ही राजदीप के डर को पहचाने ,क्यूंकि वो इमानदारी से आत्मुल्यांकन तो कर रहे हैं |आत्म विवेचना का साहस पत्रकारिता का सूत्रवाक्य है |

दस वर्ष पूर्व मैंने दो लाइने लिखी थी आज आपसे बाँट रहा हूँ |


कौन पूछेगा हवाओं से का सबब ,शहर तो यूंही हर रोज मरा करते हैं
कभी दीवारों में कान लगाकर तो सुनो ,कलम के हाँथ भी स्याही से डरा करते हैं |





रविवार, 11 अक्तूबर 2009

प्रोफाइल फैक्टरी ऑफ़ मीडिया

दैनिक जागरण के संस्थापक स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन को आपमें से बहुतेरे लोग जानते होंगे एक अखबार के संस्थापक सम्पादक और राज्य सभा के पूर्व सदस्य के रूप में मैं भी उनको जानता हूँ मैं उन्हें एक प्रखर चिन्तक और दार्शनिक कवि के रूप में भी जानता हूँ मुझे ये भी पता है कि उनका अखबार अपने साप्ताहिक अंक में उनकी कवितायेँ नियम प्रकाशित करता था ,लेकिन एक बात मुझे अभी मालूम हुई वो ये कि नरेन्द्र मोहन समकालीन हिंदी साहित्यकारों के अगुवा थे ,ये बात मुझे अखबारी दुनिया के बहुरूपिये के रूप में चर्चित होते जा रहे दैनिक जागरण से ही मालूम हुई |खुद को देश में हिंदीभाषियों में सर्वश्रेष्ठ कहने वाले जागरण ने कल नरेन्द्र जी के जन्मदिवस पर जबरियन प्रेरणा दिवस मनाया ,पूरे देश में जागरण समूह ने स्वयंसेवी संगठनों और एजेंसियों से मान -मनोव्वल करके और लालच देकर उन्हें आयोजक बना दिया ,और आज के अखबार के मुख्य पृष्ठ और अन्दर के पेजों पर 'पूरे देश में मनाया गया प्रेरणा दिवस 'शीर्षक से खबर चस्पा कर दी ये किसी भी व्यक्ति को जनप्रिय बनाने के अखबारी फान्देबाजी का सबसे बड़ा उदाहरण है ,ऐसा नहीं है कि जागरण ये प्रयोग सिर्फ स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन के लिए कर रहा है ,पूर्व के लोकसभा चुनाव और अब होने जा रहे विधान सभा चुनावों में प्रोफाइल मेकिंग का ये काम करोडो रूपए लेकर किया जा रहा है |नरेन्द्र जी की खूबियों और उनकी रचनाधर्मिता को साबित करवाने के लिए इस अवसर पर जो भी आयोजन किये गए ,उनमे नामचीन साहित्यकारों को बुलवाकर स्वर्गीय नरेन्द्र जी का महिमा गान करवाया गया ,चूँकि छोटे बड़े साहित्यकारों में से ज्यादातर अभी तक अखबारी छपास की खुनक से मुक्त नहीं हो पाए हैं तो सभी ने नरेन्द्र जी का जम कर यशोगान किया ,जागरण की बेबाकी और निष्पक्षता की शर्मनाक किस्सागोई की गयी वहीँ ख़बरों की हनक से हड़कने वाले तमाम नौकरशाहों ने भी इस आयोजन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर अखबार को सलामी ठोकी
इस पोस्टिंग को लिखने की वजह कहीं से भी नरेन्द्र जी की काबिलियत और उनकी विद्वता पर अंगुली उठाना नहीं है यहाँ हम सिर्फ और सिर्फ बड़े अखबारों की साम दाम दंड भेद के बल पर प्रोफाइल मेकिंग के राष्ट्रीय कार्यक्रम से आपको रूबरू कराना चाहते हैं ,हम चाहते हैं आप भी इस छद्म को पहचाने| नाम नहीं लूँगा लेकिन आज देश में कई नामचीन सिर्फ इसलिए नामचीन हैं क्यूंकि मीडिया ने उन्हें सारे मूल्यों को ताक पर रखकर अवसर दिया ,और कई योग्यता के बावजूद सिर्फ इसलिए हाशिये पर हैं क्यूंकि उन्होंने अखबारी साहूकारों की दलाली नहीं की |दैनिक जागरण का प्रेरणा दिवस बहुत कुछ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिवस की याद दिलाता रहा ,जहाँ पैसा बटोरकर जन्मदिवस मनाया जाता है ,गनीमत बस इतनी रही कि अन्य अवसरों की तरह इस मौके पर विज्ञापन नहीं वसूले गए
आजकल मीडिया से जुड़े तमाम ब्लागों ,गोष्ठियों में अखबारों के बाजारुपना की चर्चाएँ जोरों पर हैं ,मगर अफ़सोस इस बाजारुपन के चरित्र में किनकी बोली लगायी जा रही है इस पर बहुत कम बात होती है यकीन करना कठिन है मगर सच है कि मीडिया छोटे कस्बों से लेकर जनपदों ,फिर बड़े शहरों ,राज्यों और फिर अंत में राष्ट्रीय स्तर पर बेहद गुपचुप ढंग से लोकप्रिय बनाने का कारखाना चला रहा है ,इस कारखाने में थानेदारों से लेकर नेताओं ,साहित्यकारों ,पत्रकारों और समाजसेवियों सभी का निर्माण हो रहा है ,ये हिदुस्तान की आजादी के बाद मीडिया के चरित्र में आई गिरावट का सबसे बड़ा उदाहरण है ,अफ़सोस ये है की इन्फेक्शन बहुत तेजी से अब संचार के नया माध्यमों यहाँ तक की ब्लागर्स पार्क में भी घुस रहा है मुझे उत्तर प्रदेश के एक बड़े आई .पी,एस रघुबीर लाल का उदाहरण देना यहाँ समीचीन लगता है ,जिसे राष्ट्रपति पुरस्कार से समानित कराने के लिए जागरण ने पूरी ताक़त झोंक दी निठारी की घटना के तत्काल बाद जिस वक़्त पूर्वी उत्तर प्रदेश से लापता सैकडों बच्चों के सन्दर्भ में दैनिक जागरण में ही खबर प्रकाशित हुई और अखबार को इस खबर का असर उक्त आई.पी,एस पर पड़ता दिखा ,तो अगले ही दिन हास्यास्पद तरीके से उस अधिकारी के हवाले से दैनिक जागरण में ही झूटी खबरें न प्रकाशित करने की नसीहत प्रकाशित कर दी गयी खैर अखबार सफल रहा और रघुबीर लाल अखबार की मेहरबानी से राष्ट्रपति पदक पाने में सफल रहे पिछले एक दशक से छोटे बड़े सभी चुनावों में इसी तरह से ये अखबार अपनी मेहरबानियों को बेचकर जनता के माइंड वाश का काम करते हैं मैं कई ऐसे समाजसेवियों लेखकों और साहित्यकारों को जानता हूँ जिनका नाम ये अखबार सिर्फ इसलिए प्रकाशित नहीं करते क्यूंकि उन्होंने कभी भी अखबारी दुनिया में जागरण की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जिस तरह से राजनेता सिर्फ खुद को ही नहीं अपने पूरे कुनबे को आम जानता पर थोप रहे हैं ,अखबारों में भी ये कुनबायी संस्कृति तेजी से फल फूल रही है ,अख़बारों के प्रथम पृष्ठ से लकार सम्पादकीय तक में ये सब कुछ साफ़ नजर आ रहा है ,प्रादेशिक डेस्क से लेकर नेशनल डेस्क तक हर जगह अब इन कुनबों के लोग हैं ,ऐसे में आप इन अखबारों से किस क्रांति की उम्मीद कर सकते हैं ?ये आश्चर्यजनक लेकिन सच है कि कई बड़े अख़बार तो उन पत्रकारों की मौत की खबर भी नहीं छपते जो दूसरे अखबारों में काम करते हैं ,यही बात स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन जी के सन्दर्भ में भी है ,दैनिक जागरण को छोड़कर और किसी छोटे बड़े अखबार ने इस महायोजन के सन्दर्भ में एक शब्द भी नहीं छापा ,उत्तर प्रदेश में प्रेरणा दिवस के आयोजकों में से एक कहते हैं हम इस बहाने अगर हम नंबर एक अखबार के नजदीक आ जाते हैं तो इसमें बुरा क्या है ?अखबार वालों से नजदीकी कौन नहीं चाहता

सोमवार, 14 सितंबर 2009

भैंस ,लड़की और आई.ए .एस



मुझे चार भैंस चाहिए ,न एक कम न एक ज्यादा ! मुझे आई.ए .एस बनना है !आप भी कहेंगे ,भला भैंस से आई.ए.एस कोई कैसे बनता है ?जी नहीं ,बनता है !अगर नहीं बनता है तो भी बनने की कोशिश करता है |चलिए आपको सुना ही देता हूँ भैंस से आई.ए .एस बनने के कोशिशों की कहानी|ये कहानी शुभकुमारी की सच्ची कहानी है ,वो शुभकुमारी जो हमारे देश के हर गली,कस्बे ,गाँव ,गिरांव में है ,वो शुभकुमारी जो राहुल गाँधी के भाषणों में उन्हें जननेता साबित करने के लिए ,नारी अधिकारों से जुड़े कानूनों ,दावों,और कार्यक्रमों में नारी की मौजूदगी को कायम रखने के लिए कथित तौर पर मौजूद रहती है ,लेकिन टी .वी पर नहीं आती |वो शुभकुमारी जो हमारी बहन ,बेटी ,माँ भी हो सकती थी ,मगर नहीं हुई !आखिर उसे तो जन्म लेना था इस किस्से का हिस्सा बनने के लिए |आज से ठीक तीन दिन पहले अस्वस्थता के बावजूद मैं अपने एक ब्यूरोक्रेट मित्र के कार्यालय में मौजूद था ,उसके कार्यालय में घुसने से पहले मुझे बाहर की मेज़ पर बैठी मिल गयी शुभकुमारी|साफ़ सुथरे लेकिन बिना इस्त्री किये कपडों में साक्षात् काली माई के रूपावतार में |बालों में लगे ढेर सारे तेल और कंधे पर कालिख पुते झोले को देखकर मैंने सोचा , हमेशा की तरह कोई आम आदिवासी लड़की ,सरकारी कर्मचारियों के जोर- जुल्म की शिकायत करने आई होगी |मैं कार्यालय में अन्दर घुसा और अपने अतिज्ञान एवं पत्रकार होने के अहम् को सर्वोपरि रखते हुए ,मित्र और उसके अधीनस्थों के बीच,विभाग में हो रहे भ्रष्टाचार की रसीली चर्चा में शामिल हो गया |ठीक दस मिनट बाद शुभकुमारी कमरे में दाखिल हुई ,मित्र के टेबल पर अपनी दरखास्त सबसे ऊपर रख कर ,अभी उसने हाँथ जोड़ा ही था कि मेरे मित्र ने तपाक से बोला "तुम्हे भैंस नहीं मिल सकती !"

कहाँ बांधोगी तुम भैंस ?कहाँ है तुम्हारे पास जमीन ?चार भैसं ही क्यूँ चाहिए तुम्हे ?मैं अवाक था ये किस्सा -ए -भैंस क्या है ??शुभकुमारी ने याचक की तरह कहा "सरकार हमारे पास १२ बिस्वा जमीन है हम वहीँ भैंस को बाँध लेंगे ,वो जमीन हमारी है हमारे बाप दादा जोतते -कोड़ते थे सरकार "|मित्र ने लगभग खीजते हुए कहा" मैं क्या करूँ ?मैंने लिख कर भेज दिया था बैंक मैनेजर को ,वो नहीं सुनता तो हमारी क्या गलती ?वो कहता है जमीन तुम्हारी नहीं ,जेपी सीमेंट की है |अब अगर तुमने भैंस खरीदी और फिर जेपी ने जमीन खाली करा ली तो भैंस के पैसों की वसूली के लिए तुम्हे कहाँ कहाँ खोजेंगे" |शायद शुभकुमारी को इस सरकारी खीज की अपेक्षा नहीं थी बस फिर क्या था फूट फूट कर रोने लगी |"हम दो महीना से चक्कर काट रहे हैं ,काहे को परेशान कर रहे हैं बैंक मेनेजर ,आप कह देते सरकार तो मिल जाता ,जमीन है हमारे पास" |शायद आंसुओं पर भी असहमति का गुण नहीं आया था मेरे मित्र को ,उसने खुद को थोडा सा संयत करते हुए कहा 'अच्छा चुप हो जाओ ,चलो हम अपने पास से पैसे देते हैं तुम एक भैंस खरीद लो '| शुभकुमारी को ये जवाब मंजूर नहीं था " नहीं सरकार हमें चार ही भैंस चाहिए ,एक भैंस से कुछ नहीं होगा "|मित्र ने कुछ पल को सोचा और कहा "जाओ ,तीन दिन बाद आना ,हम बात करते हैं मैनेजर से ,जाओ अपनी दरखास्त की फोटो स्टेट कराकर ले आओ" |शायद शुभकुमारी को ये जवाब भी अच्छा नहीं लगा उसने कहा "'साहब ,अब मत दौडाईयेगा थक गए हैं ,शुभकुमारी ने ये कहते हुए अपने आंसू पोछे और दरखास्त लेकर बाहर निकल गयी "|

शुभकुमारी के निकलने के बाद अन्दर का वातावरण बेहद शांतथा जिसे मेरे मित्र की रौबदार आवाज ने ठहाकों के साथ तोड़ दिया ,"जानते हैं आप आवेश जी' ? मैं अचंभित था उस ठहाके पर ,क्या ?मैंने किसी बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ को तलाशने के अंदाज में पूछा |लेकिन जो जवाब था वो उससे भी बढ़कर |मित्र ने धीमे से कहा 'शुभकुमारी लोन के पैसे से भैंस नहीं खरीदेगी ,वो पैसे लेकर दिल्ली जायेगी और वहां आई..ए .एस की कोचिंग करेगी '!अरे !हाँ सही कह रहा हूँ ,विश्वास न आये तो तुम पूछ लेना ,वो पढ़ी लिखी ही नहीं विश्वविद्यालय की टॉपर है "|"ऐसा कैसे ?यार दे दो उसे ,जो दो नंबर की सरकारी कमाई है उसमे से दे दो "मैंने कहा |इसके पहले की हम सवाल जवाब में और उलझते शुभकुमारी कागज़ लेकर फिर अन्दर आ गयी ,इस बार मेरी निगाहें उसके दरखास्त पर थी ,जिस पर बेहद सुन्दर अक्षरों में लिखे दो शब्द ,टेबल पर पहुँचने से पहले मेरी आँखों में टंग गए 'आपकी दी गयी भैंस मेरे परिवार के लिए जीवनदान साबित होंगी ' |

इस बार मैंने अपना चेहरा शुभकुमारी की ओर किया एवं पूछ बैठा 'क्या तुम सचमुच भैंस खरीदोगी ?....."नहीं भैया ,भैंस नहीं खरीदूंगी ,पैसे लुंगी ,दिल्ली जाउंगी और पढ़कर आई..ए .एस बनकर आउंगी ,मेरी माँ ने नालियों की गन्दगी साफ़ करके मुझे पोस्ट ग्रेजुएट बनाया है,सभी प्रथम श्रेणी , पहले भी दिल्ली गयी थी कुछ पैसे लेकर जो मैंने ठोंगे बनाकर बेचकर इकट्ठे किये थे मगर अब वो ख़त्म हो गए हैं,लेकिन जाना है और बनकर दिखाना है" |शायद मेरा मित्र उसकी साफगोई और पैसे देने के मेरे तर्क से इस बार सहमत था ,उसने चश्मा उतारते हुए कहा "ठीक है ,तुम्हे हर महीने तीन हजार रूपए हम अपने पास से देंगे ,तुम कल आकर मुझसे १२ महीने के एडवांस चेक ले जाना ,जब तक पढना हो तब तक पढना" |"क्या ?.!!!!!!..................शुभकुमारी इस बार हंस भी रही ,रो भी रही थी ,उसने दरखास्त को हांथों में लिए और उनके साथ में उनमे बैठी चार भैंसों को चिंदी चिंदी करके फेंक दिया |मेरे दोस्त के आगे हाँथ जोड़े खड़ी शुभकुमारी ने जाते जाते कहा ''हमें मोहल्ले वाले भैंस कहते हैं ,शायद उसी की तरह मोटी और काली हूँ ,और कुछ काम भी नहीं करती ,इसलिए सोचा था पढने के लिए भैंस ही खरीदना ठीक होगा ,आपने हमें गाय समझा,इसका धन्यवाद |

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

चूल्हा ,चक्कड़ और चौथी दुनिया की कवितायें -२



चौथी दुनिया का मौसम आजकल बेहद खुशगवार है ,हो भी क्यों न ,शेफाली पाण्डेय ,जेनी शबनम ,आशा प्रकाश ,पारुल , शिखा वार्ष्णेय ,प्रीति टेलर ,कुसुम ठाकुर ,संगीता , सरीखे नामों ने समूची समकालीन कविता के उबाऊ स्वरुप को बदल कर रख दिया है यहाँ इन्टरनेट पर ये महिलायें जो कुछ भी लिख रही हैं ,वो हिंदी कविता के परम्परागत चेहरे को बदलने की अभिनव कोशिश है ,उनकी ये कोशिश रंग ला रही है वो पढ़ी जा रही हैं और खूब पढ़ी जा रही हैं ,ये सच है की खुद को हिंदी कविता का प्रतीक मानने वाली कलम अभी फिलहाल इन्हें और इनकी रचनाओं को स्वीकार नहीं कर पा रहा है या कहें उन्हें साथ लेकर चलने में उन्हें गुरेज है मगर ये कहना गलत नहीं होगा की जब कभी आधुनिक कविता की चर्चा होगी तो रसोईघर में बर्तनों के साथ लड़ाई कर रही ,या फिर दफ्तरों की दम तोड़ती कुर्सियों पर अपनी गृहस्थी को संजोने की महान कोशिश में जुटी इन महिलाओं की कविताओं को जगह न देना ,हिंदी और हिंदी कविता के साथ सबसे बड़ी बेईमानी होगी हमने कुछ समय पहले चंद कवियत्रियों के रचना संसार की चर्चा की थी ,आज हम फिर कुछ एक की कविताओं पर बात करेंगे ,जिनका हम जिक्र नहीं कर पा रहे हैं ,संभव है हमने उन्हें न पढ़ा हो ,लेकिन उनकी रचनाधर्मिता पर हमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ,क्यूंकि हम जानते हैं की चौथी दुनिया के दरवाजे में घुसने के बाद घुटन ,पुरुषवादी समाज से उपजी कुंठाएं और संत्रास ख़त्म हो जाते हैं ,यहाँ हम उनको पढ़ रहे हैं जिन्होंने सिर्फ कविता लिखना नहीं ,१०० फीसदी जीना सीख लिया है


एक ऐसे वक़्त में जब हिंदी कविता से हास्य और व्यंग्य पूरी तरह से गायब हो चुका है ,ठेठ मंच हो या साहित्यिक पत्रिकाएं व्यंग्य के नाम पर सिर्फ पहचान बनाने और भीड़ जुटाने की जैसे तैसे कोशिशें की जा रही हो ,शेफाली पाण्डेय को पढना निस्संदेह बेहद सकून देने वाला होता है ,बच्चों को इंग्लिश पढ़ने वाली शेफाली के लिए कविता सिर्फ विचारों के उत्सर्जन का माध्यम नहीं है बल्कि खुद के और औरों के जिन्दा रहने के पक्ष में दिया गया हलफनामा है उनकी कविता सबकी कविता है वो सब्जियों के मोल भाव कर रही किसी आम महिला की कविता हो सकती है या महंगाई से सर पिट रहे दो जवान बेटियों के बाप की कविता उनकी खुद को बयां करती इस व्यंग्य की गंभीरता पर निगाह डालें -

सूनेपन से त्रस्त हूँ
वैसे बेहद मस्त हूँ
करीने से सजा है मकां मेरा
मैं इसमें बेहद अस्त-व्यस्त हूँ

जेनी शबनम जी की ग़जलें ,बादलों और हवाओं का रंग हैं ,धूप और साए की जुबान है जेनी की ग़जलों की सबसे बड़ी खासियत उनकी सरल भाषा है उन्होंने ग़जल को पारंपरिक क्लिष्टता और अपरिचित भाषा से मुक्त करके हर किसी तक पहुँचने का काम किया है उनकी बिम्ब रचना और प्रतीक चयन में अभिव्यक्ति की व्यापकता देखते ही बनती है , पति और बच्चों के साथ जिंदगी के हर पल को संजीदगी से जी रही जेनी जी की दो लाइनें ,उनकी ग़जलों के वजन को बयां करती हैं -

ख्यालों के बुत ने, अरमानों के होठों को चूम लिया
काले लिबास सी वो रात,तमन्नाओं की रौशनी में नहा गई

दिल्ली की सुनीता शानू एक स्थापित स्वतंत्र पत्रकार हैं , आप में से बहुत लोगों ने उन्हें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में पढ़ा होगा,मगर ये सब कुछ चौथी दुनिया में आकर ही संभव हुआ एक व्यंगकार के रूप में उनकी रचनाएँ ,मानवीय जीवन की कठोरता पर भरपूर प्रहार करती हैं ,जहाँ हम आप मौन हो जाते हैं और एक तरह की मानसिक ब्लोकिंग हो जाती है ,वहां से सुनीता की कविता शुरू होती है


उम्मीदों और खुशियों से भरी
एक मीठी सी धुन गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथो को सटासट...

कभी टेबिल तो कभी कुर्सी चमकाते
छलकती कुछ मासूम बूँदें
सुखे होंठों को दिलासा देती उसकी जीभ
खेंच रही थी चेहरे पर

हर दिशा में दौड़ता
भूल जाता था कि
कल रात से उसने भी
नही खाया था कुछ भी...

झारखण्ड की पारुल रहने वाली पारुल की कविताओं का जिक्र किये बिना चौथी दुनिया का रचना संसार अधुरा है ,उनको पढ़ते हुए कभी निराला की याद आती है तो कभी दुश्याँ सामने आ खड़े हो जाते हैं सुश्री पारुल पुखराज के बारे में ताऊ रामपुरिया कहते हैं 'सुश्री पारुल जी यानि पारूल…चाँद पुखराज का से. वैसे तो उनके व्यक्तित्व के बारे मे उनका ब्लाग ही सब कुछ कह जाता है. उनके ब्लाग पर जाते ही एक शीतलता और संगीत की माधुर्यता का एहसास होता है. उनसे मुलाकात मे भी वैसी ही एक शांत, सौम्य और निश्छलता का एहसास हुआ.

प्राणप्रन से हो निछावर
बंदिनी जब कर लिया,
अंकुशों के श्राप से फिर
प्रीत को बनबास क्यों

मौन हो जाये समर्पण
शेष सब अधिकार हों,
नेह का बंधन डगर की
बेड़ियाँ बन जाये क्यों
-आशा प्रकाश को हमने कुछ दिनों पहले ही पढ़ा है लेकिन यकीन मानिये उनको पढने के बाद समकालीन कविता को लेकर मेरे मन का क्षोभ पूरी तरह से ख़त्म हो गयावो जो जीती हैं ,वो लिखती हैं ,उनके लिए कवितायेँ खुद को अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है ,वो कहती हैं अगर कवितायेँ न हो तो मैं जिन्दा न रहूँ अपनी बिटिया को लिखी उनकी एक कविता के कुछ अंश --

समय उड़ गया पंख लगा
अब कंधे तक मेरे आती है
जब उलझ कहीं मै जाती हूँ
वो मुझ को अब समझाती है
माँ मै हूँ उसकी लेकिन
वो मेरी माँ बन जाती है..


जमशेदपुर की कुसुम ठाकुर के लिए कवितायेँ जिंदगी को पूरी तरीके से जीने का सलीका है ,वो जब कवितायेँ नहीं लिखती हैं तो अपनी सहेलियों के साथ दीन -दुखियों की सेवा में खुद को लीन कर देती हैं ,उनकी कविता का भाषा पक्ष इतना स्वाभाविक है की उनकी हर कविता बेहद आसानी से पाठकों का अपना हिस्सा बन जाती है -

मैं ने भी तो किया प्रयास ,
शायद मेरा कुछ दोष ही हो
अब जो छूटा तो हताश हूँ मैं ,
पर मैं कैसे स्मरण करूँ ?
माना वह अब करे विचलित ,
जिसको मैं याद करूँ हर पल
पर यह तो एक सच्चाई है ,
जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ?

शिखा वार्ष्णेय लन्दन से हैं ,वो उतनी ही अधिक घरेलू हैं जितनी हिंदुस्तान के किसी छोटे से कस्बे में रहने वाली कोई महिला ,शिखा के रचना संसार में सब कुछ मौजूद है इसे ग़जल ,मुक्तक या फ़िर कोई नाम देना बेईमानी होगा अगर आप सिर्फ़ कविता को महसूस करना चाहते हैं तो यहाँ आयें ,उन्हें पढ़ते वक्त ऐसा लगता है जैसे कविता के लिए कुछ भी असंभव नही है |उनकी ये पंक्तियाँ पढ़ें-


ताल तलैये सूख चले थे
कली कली कुम्हलाई थी
धरती माँ के सीने में एक दरार सी छाई थी
कब गीली मिटटी की खुशबु बिखरेगी सर्द
में कब बरसेगा झूम के सावन
ऋतू प्रीत सुधा बरसायेगी

प्रीति टेलर चौथी दुनिया का एक ऐसा नाम है ,जिसे पढना सभी को पसंद है वो कहती हैं ' .... शायरी ,कविता ,लघुकथाएं , कुछ जिन्दगी के स्पर्श करते लेख मेरे सपनों को व्यक्त करने का माध्यम बनते है जिन्हें मैं कलमबंद करके कागज़ पर बिखेर देती हूँ उसमे अपने विचारों के रंग भर देती हूँ ..'सच कहती हैं वो उनकी खुद के प्रति इमानदारी उनकी अपनी कविता में भी प्रतिबिंबित होती है -
दर्द तो बिकता है-

यहाँ हर गली हर मोड़ पर ,
खुशियोंकी फुहारें तो बहुत कम को नसीब होती है ,
अपने होठोंकी मुस्कुराहटोंको बांटते रहो हरदम ,
निगाहों को जो नम होती है ......