
रोटियों की सही सेंक के लिए, आग और आटे के बीच लोहे को आना पड़ता है|लोकतंत्र में अति का परिणाम अगर देखना हो तो पश्चिम बंगाल आइये ,सामाजिक ,सांस्कृतिक ,बौद्धिक और साहित्यिक तौर पर शेष भारत के सन्मुख जबरिया उदाहरण बनने की कोशिश करता हुआ यह राज्य आज राजनैतिक अतिवादिता के खिलाफ क्रांति का नया ठिकाना बन गया है ,ये हिंदुस्तान में राजनीति के आभिजात्य संस्करण के खिलाफ आबादी का संगठित हस्तक्षेप है |अब तक मीडिया के अन्दर या फिर मीडिया के बाहर नंदीग्राम -सिंगुर-लालगढ़ में हो रहे जनविद्रोह को सिर्फ वामपंथी सरकार के खिलाफ नक्सलवादी विरोध बताकर इतिश्री कर ली गयी ,हकीकत का ये सिर्फ एक हिस्सा है ,पूरी हकीकत जानने के लिए आपको उस पश्चिम बंगाल में जाना होगा ,जिसने आजादी के पहले और आजादी के बाद भी शोषण ,उत्पीडन और जिंदगी की सामान्य जरूरतों के लिए सिर्फ और सिर्फ संघर्ष किया है ,आपको पश्चिम

अगर केंद्र सरकार या तृणमूल कांग्रेस ये समझती हैं कि मौजूदा जनविद्रोह सिर्फ और सिर्फ वामपंथियों के खिलाफ है तो ये भी गलत है समूचा पश्चिम बंगाल उस शेष भारत की अभिव्यक्ति है जिसे देश के राजनैतिक दलों ने सिर्फ और सिर्फ वोटिंग मशीन समझ कर इस्तेमाल किया और छोड़ दिया ,ये शेष भारत वो भारत है जहाँ तक न तो संसाधन पहुंचे और न ही सरकार ,ये जनविद्रोह माओवाद या किसी अन्य विचारधारा की उपज नहीं है ,ये किसी भी जिन्दा कॉम के प्रतिरोध की अब तक की सबसे कारगर तकनीक है,ये जनविद्रोह सिर्फ पश्चिम बंगाल में जनप्रिय सरकार के गठन के साथ ख़त्म हो जायेगा ऐसा नहीं है ,कल को अगर पश्चिम बंगाल से शुरू हुई इस क्रांति में देश भर के युवाओं ,किसानों ,खेतिहर मजदूरों और आदिवासी गिरिजनों की भागीदारी हो तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए ,निस्संदेह लोकतंत्र को परिष्कृत करने के लिए इस क्रांति की जरुरत बहुत लम्बे अरसे से थी |
जब कभी दुनिया में वामपंथ के इतिहास की चर्चा होगी ये चर्चा भी जरुर होगी कि हिंदुस्तान के एक राज्य में २५ वर्षों तक राज्य करने के बाद कैसे एक वामपंथी सरकार अपने जैसे ही विचारधारा के लोगों की जानी दुश्मन हो गयी ,उस वक़्त ये भी चर्चा होगी कि कैसे एक देश की सरकार पहले तो अपने ही देश के गरीब और अभावग्रस्त लोगों की दुश्वारियों को जानबूझ कर अनसुना करती रही ,और फिर अचानक हुई इस जानी दुश्मनी का सारा तमाशा नेपथ्य से देखकर तालियाँ ठोकने लगी |उस एक महिला की भी चर्चा होगी जिसे हम ममता बनर्जी के नाम से जानते हैं जो संसद में तो शेरनी की तरह चिंघाड़ती थी ,लेकि

आज पश्चिम बंगाल में चार तरह के लोग रह रहे हैं विद्वतजन ,अभिजन ,भद्रजन और आमजन |भद्रजन वो हैं जिनकी बदौलत अब तक राज्य में वामपंथियों का शासन रहा ,उनके लिए वामपंथी विचारधारा लोकतान्त्रिक परम्पराओं से परे उनके जीवि

मौजूदा क्रांति को सिर्फ सशस्त्र क्रांति के रूप में देखना बहुत बड़ी गलती होगी ,हाँ ये जरुर है कि इस जनांदोलन में माओवादियों की भागीदारी से हिंसा भी इसका एक हिस्सा बन गयी है ,लेकिन ये भी सच है कि अगर आज आप कथित तौर पर नक्सली आन्दोलन से प्रभावित इलाकों में जायेंगे तो वहां का आदिवासी अगर लोकतंत्र में विश्वास की बात नहीं करेगा तो वो हथियार उठाने की बात भी नहीं करेगा ,उसके मन में व्यवस्था के प्रति पैदा हुआ प्रतिकार अहिंसक होने के साथ साथ उग्र भी है जो कि किसी भी सफल क्रांति की पहली शर्त है |वो जीना चाहता है ,उसे तो सिर्फ पेट भर खाना और सर पर छत की जरुरत है ,मगर अफ़सोस उसके हिस्से में पहले जलालत भरी जिंदगी थी और अब गोली है |सिंहासन के पुजारी सर पर हाँथ रखकर गले लगाने की तरकीब भूल गए हैं ,सो अब जनता के आने की बारी है