हिन्दी समाचार पत्रिका आउटलुक का ताजा अंक बिक्री के लिए उपलब्ध है |इस अंक में ''भाग दौड़ में सेक्स 'नामक ' कवर पेज स्टोरी के रूप में आउट लुक एवं मूड्स का शहरी लोगों के बीच किया गया यौन सर्वेक्षण प्रकाशित किया गया है |आम तौर पर समाज के एलीट क्लास और ड्राइंग रूम व ट्रेन के रिज़र्वेशन कम्पार्टमेंट्स में पढ़ी जाने वाली इंडिया टुडे एवं आउट लुक सरीखी पत्रिकाओं के लिए ये सर्वक्षण नया नही है ,पिछले एक दशक से इन पत्रिकाओं ने अलग अलग तरह से लगभग ३ सर्वे कराये है |आउट लुक के इस सर्वे में ख़बर कितनी है इसका अंदाजा तो आप पत्रिका को पढने के बाद ही लगा सकेंगे ,लेकिन बात पुरी तरह से साफ़ है की अस्तित्व के संकट से जूझ रही ये पत्रिकाएं अब कुछ भी परोसने में गुरेज नही करेंगी |एक ऐसे देश में जहाँ पबों में नवयोवनाओं के प्रवेश को लेकर राष्ट्रीय बहस शुरू हो जाती है ,एक ऐसे देश में जहाँ आज भी बेटा बाप और आस पड़ोस के लोगों से छुपकर सिगरेट पिता है ,एक ऐसे देश में जहाँ तमाम कोशिशों के बावजूद एक व्यस्क कंडोम खरीदने में संकोच करता है ,एक ऐसे देश जहाँ घर की वधु अपने पति के कमरे में जाने से पहले सब बड़ों के सोने का इन्तजार करती है ,सेक्स को विषयवस्तु बनाकर उत्तेजक ढंग से प्रस्तुत करना खुले बाजार में ब्लू फ़िल्म बेचने जैसा है |ये उन यौन वर्जनाओं को तोड़ने की शर्मनाक कोशिश है जिन वर्जनाओं से हमारी संस्कृति और संस्कार जीवित हैं |सेक्स को निजी बातचीत में शामिल किया जा सकता है उसकी शिक्षा हर हाल में जरुरी है ,लेकीन क्या किसी व्यक्ति या समाज की सेक्स जरूरतों ,उसके तरीकों का खुलेआम विश्लेषण किया जाना चाहिए ?शायद नही | अपने ब्लॉग पर उक्त सर्वक्षण की विषय वस्तु का जिक्र करना मेरे लिए सम्भव नही होगा ,यकीन मानिये आप भी इसे अपने घर में अपनीटेबल पर खुलेआम रखना पसंद नही करेंगे |
छोटे परदे की ब्रेकिंग न्यूज़ एवं समाचार पत्रों के नए तेवरों के बीच मंदी और पठनीयता के संकट से से जूझ रही लेकिन संख्या में फ़ैल रही पत्रिकाओं की अपनी अनोखी दुनिया है ,हाल के दिनों में जो विषय वस्तु टेलीविजन और अखबारों में वर्जित मानी जाती थी ,पत्रिकाओं ने उन्हें प्रमुखता से प्रकाशित किया ,इंडिया टुडे और आउटलुक की शुरु से ही अपनी शैली रही है,इन पत्रिकाओं ने आम आदमी को विषय वस्तु बनने से हमेशा गुरेज किया ,चाहे वो खबरे हों चाहे फीचर्स ,कभी देश के २० टॉप धनवान कवर स्टोरी बने ,तो कभी डिस्को में नशे में झूमती युवा पीढी की कहानी छापी गई |आउटलुक का ताजा अंक भी उसी परम्परा का हिस्सा तो है ही आम आदमी की अभिव्यक्ति को खामोश कर उस पर वैचारिक उपभोग से अर्जित की गई बौद्धिक राजशाही को थोपने की शर्मनाक कोशिश भी है |कहने का मतलब ये की हम तुम्हे वही पढायेंगे जो तुम पढ़ना चाहते हो ,अगर तुम नही पढ़ते हो तो इसका मतलब तुम भी उन्ही लोगों के बीच के हो ,जिनके लिए कोई कुछ भी नही कहेगा |ऐसा नही है कि इन सबके लिए सम्पादन जिम्मेदार है ,इस तरह कि कहानियाँ मुख्य रूप से धन कमाने कि नीयत से की जाती है ,और सब कुछ प्रबंधन ही निर्धारित करता है |भास्कर ग्रुप ने इस कवर स्टोरी के लिए कंडोम बनने वाली मूड कंपनी से बतौर विज्ञापन निश्चित तौर पर लाखों रुपए कमाए होंगे |
अब आपको एक और मजेदार बात बताएं आउटलुक ने साहित्यिक सन्दर्भों में सेक्स के वर्णन को लेकर भी इसी अंक में मृदुला गर्ग का एक साक्षात्कार प्रकाशित किया गया है जिसका जिक्र करना यहाँ आवश्यक है वो कहती हैं की' हमारी लोक कथाओं और लोक गीतों में उन्मुक्त यौन् संबंधों का भरपूर वर्णन मिलता है ,लेकिन ब्रितानी शासन में नैतिकता बोध की वजह से सेक्स के प्रति जो निषेध भाव था,वह हम पर हावी हो गया'| अब आप ही निर्णय करिए की अंग्रजियत की वजह से निषेध पैदा हुआ या ख़त्म हुआ ?,मृदुला ख़ुद कहती हैं कि आज हिन्दी साहित्य में सेक्स को नैतिकता से अलग करके देखा जा रहा है | जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी ,साहित्य में सेक्स को हर जगह से परिमार्जित और ,परिष्कृत बना कर प्रस्तुत किया गया ,ये कुछ ऐसा था की इस पर कभी चर्चा करने की जरुरत नही महसूस की गई |लेकिन ये जरुर है की मृदुला गर्ग के छपने के बाद इस विषय पर साहित्यकारों की महफिलों में हड़कंप जरुर मच गया है |मेरे एक मित्र कहते हैं कि आउटलुक ने मृदुला गर्ग के मध्यम से अपने पूरे परिशिष्ट के लिए अनापति प्रमाणपत्र लेने कि कोशिश की है | इस विशेषांक में छपी एक और रिपोर्ट का जिक्र करना जरुरी है ,'नपुंसकों कि राजधानी है भारत '!जी हाँ यही शीर्षक है ENDROLOGY SPECIALIST डॉ सुधाकर कृष्णमूर्ति के साक्षात्कार पर आधारित इस रिपोर्ट का |इस रिपोर्ट में प्रकाशित तथ्यों का वैज्ञानिक आधार क्या है ?फिलहाल इसका कोई जिक्र नही है |
कुल मिलकर ये कहा जा सकता है कि अगर इंडिया टुडे ने बढे हुए दामों में एक के साथ ३ पत्रिकाएं देकर पाठकों को पकड़ना चाहा ,तो आउटलुक ने सेक्स को अस्त्र की तरह इस्तेमाल कर बाजार में अपनी बादशाहत साबित करने की कोशिश की है | किसी भी प्रकाशन समूह का अपना चरित्र होता है वो वही पढ़ते हैं ,वही छापते है जो उनकी मनमर्जी के अनुरूप हो,|इसी पत्रिका के अंग्रेजी संस्करण में 'कर्नाटक का तालिबानीकरण' शीर्षक से कवर पेज स्टोरी छपी गई है ,सारी भडास मंगलोर की घटना को लेकर | मंगलौर में पबों से निकल रही लड़कियों को सरेआम पीटा जाना पुरी तरह से अनुचित था ,लेकिन क्या ये सच नही है कि इन पबों और डिस्को कि वजह से पैदा हो रही अपसंस्कृति ,और स्वक्षन्द्ता ही शहरों मैं बढ़ रहे अपराध कि मूल वजह है ,लेकिन इस अपसंस्कृति का विरोध करना सम्भव कैसे होगा ?जब आपको उन्ही कि कहानी छापनी है उन्ही को विषयवस्तु बनाना है,उन्ही को पढाना है |यौन् रुझानों पर इस तरह के सर्वेक्षण किए जाने के मूल में भी यही है |ये सर्वेक्षण भी उन्ही लोगों के लिए है ,जिनके लिए सेक्स भी केवल मनोरंजन है ,और उस पर बात करना एवं उसको बाजार की चीज बना देना ख़ुद को प्रगतिशील साबित करने का सिम्बल |
अपने विचारो और संस्कारो को ठेस न पहुचे इसकेलिए
जवाब देंहटाएंसच्ची कहानिया ,मनोहर कहानिया नमक किताबो को घर कि देहालिके अन्दर आने न दिया
अब लगा ता है इस लिस्ट में इन किताबो का नाम भी शामिल करना पड़े गा ,मैं क्या हर समझदार व्यक्ति यही करेगा ,यु भी लोगो का किताबो से जुडाव कम होरा है और कम होता चला जायेगा
an eyeopener Awesh!!
जवाब देंहटाएंbahut sahi likha aapne.
जवाब देंहटाएंतस्वीर के जिस रुख को आपने प्रस्तुत किया है,वह आज का
जवाब देंहटाएंदुखद और आम पहलू है,हर तरफ इसी को परोसा जा
रहा है और मानसिकता को गर्त में धकेला जा रहा है....
यही है आज का बौद्धिक माहौल !!!
Aavesh ji, maine outlook ke jis sanskaran ki baat ki hai maine vah padhi to nahin lekin aapka lekh padhne ke baad ab main outlook patrika kharidne ke vishay me soch bhi nahin sakata.
जवाब देंहटाएंIn patrikaon ko apni pahuch aur apni maryada ka hamesh dhyan rakhna chahiye...
Samaaj ki sammanit patrika hone ke nate samaj ke prati inki bhi kuchh jimmedariyan hain kintu is tarah ke lekh ke karan inki chhavi dhumil ho sakati hai....
Aapka lekh sarahniya hai.....
Anurag Pandey
सोचने को विवश करता है आपका लेख .,ये विशुद्ध सत्य है क्योंकि अब लेखन व्यवसाय बन गया है ,जन-जागरण का कारण नहीं ...जो बिकता है वही परोसा जाता .
जवाब देंहटाएंएक बात और कहना चाहती हूँ ---हम से ये समाज है ,कहीं-न-कहीं हमारी मानसिकता भी दूषित हो चुकी है .हम क्यों वो सब पढ़ते हैं जो निंदनीय है .हम खुद ही चटखारे लेकर ऐसे विषयों को महत्वपूर्ण बना देते हैं .लिखने वालों से ज्यादा दोषी तो उसे पढ़ने वाले हैं .
मेरी शुभकामनाएं ..............
आवेश जी,
जवाब देंहटाएंइस लेख में जो आपका भड़ास है सच में समाज की विद्रूप स्थिति को दर्शाता है | ऐसे सर्वे होना गलत नहीं,परन्तु इन्हें साइंस जर्नल में प्रकाशित होना चाहिए |ये पत्रिकाएं सामजिक सरोकारों से जूड़ी हैं तो निश्चित ही समाज और परिवार में सबके लिए सबके सामने पढने योग्य होनी चाहिए |
हर दिशा में देश पतन की ओर जा रहा, ऐसे में आपका ये लेख आम आवाम से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक को सोचने केलिए मजबूर करेगा | जागरूकता कि दिशा में आपका लेख निःसंदेह प्रशंसनिये है | शुभकामनायें |...........जेन्नी शबनम
मैंने एक ब्लॉग पर अपनी टिप्पणी देते वक्त आपकी टिप्पणी पडी और तुरंत मैं आपके ब्लॉग पर पहुंचा। और सच मानिए कि इस ब्लॉग पर वही पडने को मिला जिस भाव की मुझे अपेक्षा थी। अत्यन्त सटीक शब्दों में आपने एक गभीर विषय को झिंझोड कर रख दिया है। आजकल की यह पत्रिकाएं वस्तुत: ज्ञानवर्धक न रहकर या तो येन केन प्रकारेण अपनी प्रसार संख्या बढा रहीं हैं या फिर धर्मनिरपेक्षता की आड में पाल्टिकस कर रहीं हैं या पार्टी विशेष का वोट बैंक तैयार करने का कार्य कर रही हैं। मैं आपके कथन की एक एक पंक्ति से सहमत हूं।
जवाब देंहटाएंऐसा लगता है पत्रकारिता ने नैतिकता को बेच दिया है उसके पास सेक्स के आलावा लिखने के लिए और कुछ बचा ही नही है !
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