गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

सनसनी .समझौतों और सिक्कों पर पलती पत्रकारिता





राजदीप सरदेसाई हालिया प्रकाशित अपने लेख में कहते हैं 'विश्वश्नियता के मुद्दे पर भारतीय पत्रकार ,चैनल सम्पादक और कुछ हद तक अखबार के सम्पादक भी अपनी जमीन खोते जा रहे हैं' |पुण्य प्रसून वाजपेयी को पत्रकारिता के खिलाफ राजनैतिक अतिवादिता से गहरी शिकायत है ,उन्हें लगता है अब पत्रकारिता से राजनीति को नहीं राजनीति से पत्रकारिता को नियंत्रित करने का शर्मनाक दौर शुरू हो गया है | अगर हम मौजूदा समय में हिन्दुस्तानी पत्रकारिता को समझना चाहते हैं तो हमें इन दोनों स्थितियों का विश्लेषण करना होगा ,क्यूंकि ये सिर्फ्र दो स्थितियां या घटनाएँ नहीं हैं बल्कि ये देश में इस वक़्त पत्रकारिता के दो पाटों में बटे होने का दस्तावेज हैं ,एक पाट वो है जिसकी चर्चा राजदीप कर रहे हैं और पुण्य प्रसून के शब्दों में कहें तो वो शीशे से दुनिया देखने वाले पत्रकारों की जमात है| ये वो हैं जिन्हें या तो राजनैतिक दल ,या फिर राजनैतिक परिस्थितियां प्रभावित कर रही हैं ,इन लोगों ने या तो पत्रकारिता को राजनीति की रखैल बनते देखना स्वीकार कर लिया है या फिर पत्रकारिता के नाम पर खुद के बलात्कार की इजाजत दे दी है |एक दूसरा पाट भी है ,जो चुप नहीं रहता उसे पहले पाट की उपस्थति से भी चिढ है साथ ही वो बार बार हारने,टूटने और अखबारी बनियों के हाथों लतियाये जाने के बावजूद के बावजूद कलम को सलामी ठोकना नहीं छोड़ता,उसे राजनीति के आतंक का खत्म करना भी आता है ,और अति का जवाब देना भी |हिन्दुस्तानी पत्रकारिता के लिए ये गर्व का विषय है कि अस्तित्व और रोजी रोटी से जुडी तमाम चुनौतियों के बावजूद आज इस दूसरे पाट के पत्रकारों की संख्या बेहद अधिक है ,सिर्फ अधिक ही नहीं है इनकी संख्या लगातार बढती भी जा रही है, हालाँकि उनके बारे में चर्चाएँ यदा कदा ही किसी फोरम पर होती है |ये भी सच है कि इस दूसरे पाट के पत्रकारों के लिए ख़बरों की विश्वसनीयता को कायम रखना रोटी के साथ साथ खुद की पहचान को बनाये रखने से भी जुड़ा होता है |राजदीप की कठोरता और पुण्य प्रसून वाजपेयी की शिकायत सिर्फ इसलिए है क्यूंकि अब तक ख़बरों को सिर्फ सनसनी ,सिक्कों और अक्सर समझौतों की कसौटी पर ही प्रस्तुत किया जाता रहा है ,अगर सरोकार भी ख़बरों के प्रस्तुतीकरण का जरिए होते तो शायद इतना हो हल्ला नहीं मचता |


मुझे २ वर्ष पहले की एक घटना याद आती है लखनऊ में सड़क पर २४ घंटे से लावारिस पड़ी एक बीमार महिला और उसको चिकित्सा विश्वविद्यालय में कुछ अख़बार के संवाददाताओं और फोटोग्राफरों द्वारा भरती कराये जाने का समाचार मेरे अख़बार ने प्रथम पृष्ठ पर लीड स्टोरी के रूप में प्रकाशित किया था ,अगले दिन सुबह जब मैं अपने भूतपूर्व सम्पादक प्रभात रंजन दीन के कमरे मैं बैठा था तो खबर आई कि चिकित्सा विश्वविद्यालय से उस महिला को निकालकर एक बार फिर सड़क पर फेंक दिया गया है ,ये सिर्फ एक खबर हो सकती थी ,लेकिन जानते हैं मेरे सम्पादक ने क्या कहा ?उन्होंने फ़ोन पर संवाददाता को आदेश दिया जाओ वहां बवाल कर दो धरने पर बैठ जाओ ,कपडे फाड़ डालो ,ये कोई प्रहसन नहीं था| बवाल हुआ या नहीं मुझे नहीं मालूम ,लेकिन अस्पताल में पुनः भारती होने के एक हफ्ते बाद वो महिला स्वस्थ होकर अपने घर जा चुकी थी |एक घटना फिर घटी जिस वक़्त महाराष्ट्र में राज ठाकरे उत्तर भारतीयों को पानी पी पी कर गाली दे रहे थे ,उस वक़्त प्रभात जी ने अखबार में पहले पन्ने पर सुचना प्रकाशित की कि हम कभी भी राज ठाकरे का नाम प्रकाशित नहीं करेंगे ,ये वही समय था जब भाषा के मुद्दे पर उत्तर भारत और शेष भारत को अलग अलग बांटा जा रहा था ,शायद आपको याद हो ठीक उसी वक़्त टीवी -१८ ने बेहद आश्चर्यजनक ढंग से मराठी भाषा में लोकमत समाचार चैनल लॉन्च कर दिया था .संभव है ये कदम सरोकार से जुड़ा हो लेकिन हम इसे अवसरवादिता से जोड़ कर देखते हैं |संसद में नोट की गद्दियाँ उछाले जाने के वक़्त भी मीडिया ने सरोकारों को अनदेखाकर खबरें प्रस्तुत की ,उस वक़्त पूरा देश खबरी चैनलों से सच जानने की उम्मीद कर रहा था ,अगर सरोकार होते तो बेवजह के तर्कों में सबको उलझाये बिना किसी भी कीमत पर सच दिखाया जाता |जहाँ सरोकार नहीं होते वहीँ विश्वसनीयता का संकट पैदा होता है ,ये भी मानना होगा कि अगर राजनीति जैसे महत्वपूर्ण विषय में खबरिया चैनलों या फिर अख़बारों के सरोकार गायब रहेंगे ,तो शोमा और कोमालिका के किस्से सामने आते रहेंगे|जो नही जानते हैं उन्हें हम बता दे, पश्चिम बंगाल की इन दोनों महिला पत्रकारों का तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा न सिर्फ़ घोर अपमान किया गया ,बल्कि शोमा पर ममता बनर्जी की हत्या की साजिश का आरोप लगाकर पुलिस के सुपुर्द भी कर दिया गया | पुण्य प्रसून वाजपेयी ने जिन घटनाओं का जिक्र किया है उनमे तृणमूल के कार्यकर्ताओं का दोष कम उन चैनलों का दोष अधिक है जिन्होंने खुद की छवि राजनैतिक पार्टियों की रखैल के रूप में बना रखी है |खतरनाक ये है कि सिर्फ क्षेत्रीय चैनल या अखबार नहीं तमाम राष्ट्रीय अख़बारों और चैनलों में रखैल बनने का ये शगल जोरों पर है |सिर्फ टी आर पी और थोथे सर्वेक्षणों के आधार पर अपना मूल्यांकन करने वाले चैनल और अखबार अगर खुद का चेहरा आईने में देखना चाहते हैं तो मीडिया के मंचों पर नहीं आम आदमी के बीच जाकर संवाद करें दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा |और ये कहने मैं मुझे तनिक भी हिचकिचाहट नहीं है राजनीति और पत्रकारिता के इस गठजोड़ के बारे में इमानदारी से लिखने की हिमाकत भी नहीं की जा रही |जहाँ भय है वहां विश्वसनीयता का माहौल बनेगा कैसे ?


राजदीप सरदेसाई अपने उसी लेख में कहते हैं 'जब एक ही स्टोरी को अलग अलग मंचों से और सौ अलग अलग तरीकों से कहा जा रहा है ,एक निष्पक्ष खबर पेशकर्ता के तौर पर पत्रकार की छवि दुर्लभ होती जा रही है' |राजदीप किन ख़बरों की बात कर रहे हैं ?जहाँ तक हम देखते हैं सिर्फ राजनीति ही एक ऐसा विषय है जहाँ प्रस्तुतीकरण में विभेद होता है ,और माफ़ कीजिये ये विभेद पत्रकार नहीं पैदा करता ,ये विभेद चैनलों और अख़बारों के राजनैतिक संबंधों का प्रतिफल होता है ,कोमालिका क्या करे अगर उसे अपने घर परिवार की रोटी 'आकाश चैनल 'से मिलती है ?शोमा को अगर ख़बरों की कवरेज का चरम सुख अगर किसी ऐसे चैनल के माध्यम से मिलता है जिसका चरित्र वामपंथी है तो उसमे उसका क्या कसूर ?ये पुण्य प्रसून का सरोकार है नए लोगों के लिए ,कि उन्हें ऐसी घटनाओं से दुःख होता है |नहीं तो दूसरे पाट में ख़बरों को जी रहे कलमकारों की चर्चाएँ ही कौन करता है ,खबरें उन्ही की वजह से जिन्दा हैं ,आम आदमी से जुड़े सरोकार भी उन्ही से सध रहे हैं ,और विश्वसनीयता भी उन्ही की बदौलत कायम है | अगर हममे जरा सी भी संवेदनशीलता शेष है तो पुण्य प्रसून वाजपेयी के दर्द को समझें साथ ही राजदीप के डर को पहचाने ,क्यूंकि वो इमानदारी से आत्मुल्यांकन तो कर रहे हैं |आत्म विवेचना का साहस पत्रकारिता का सूत्रवाक्य है |

दस वर्ष पूर्व मैंने दो लाइने लिखी थी आज आपसे बाँट रहा हूँ |


कौन पूछेगा हवाओं से का सबब ,शहर तो यूंही हर रोज मरा करते हैं
कभी दीवारों में कान लगाकर तो सुनो ,कलम के हाँथ भी स्याही से डरा करते हैं |