शनिवार, 12 दिसंबर 2009

अमृता -इमरोज और साझा नज्म





पंद्रह दिनों पहले अमृता एक बार फिर इमरोज़ के सपनों में आई, बादामी रंग का समीज सलवार पहने |'सुनते हो ,कमरे में इतनी पेंटिंग क्यूँ इकठ्ठा कर रखी है ?अच्छा नहीं लग रहा ,कुछ कम कर दो "|अमृता कहें और इमरोज़ न माने ,ये तो कभी हुआ नहीं ,अब इमरोज़ ने कमरे से पेंटिंग कम कर दी हैं ,कमरे में फिर से रंगों रोगन करा दिया है |हाँ ,अपने बिस्तर के पैताने या कहें आँखों के दायरों तक ,और मेज़ पर रखे रंगों और ब्रशों के बीच अमृता की तस्वीरें टांग रखी है |इन तस्वीरों को देखकर यूँ लगता है जैसे हर वक़्त अमृता आज भी इमरोज़ की निगहबानी कर रही है ,इमरोज़ घर से बाहर कम जाते हैं ,क्यूँकर जाते ?उन्हें लगता है अमृता घर में अकेली होगी|बेतरतीबी के बावजूद खूबसूरती से जवान हो रहे फूल पौधों के पीछे किसी नज़्म सी दिख रही दीवारों के बीच प्यार के इन मसीहाओं की मौजूदगी को महसूस करना बेहद सकून देने वाला है |हमारे घुसते ही 80 की उम्र में भी अपार उर्जा से भरे इमरोज़ हमारे कन्धों को पकड़ हमें कुर्सी पर बैठा देते हैं |आप जानते हैं अमृता की मौत नहीं हुई ,मेरे लिए तो अमृता हर वक़्त मेरे साथ है ,जब चाहा उससे बातें कर लीं ,आजकल वो मेरी नज्में पढ़कर बेहद मुस्कुराती है| अमृता की मौजूदगी को लेकर उनका ये विश्वास बेहद सहज लगता है ,वे कहते हैं देखो, अब इस कमरे को अमृता के कहने पर थोडा सा बदल दिया,कितना अच्छा लगने लगा है न ? इमरोज़ के बगल में बैठी एक खुबसूरत पंजाबी लड़की जो शायद अमृता के किसी दोस्त की बेटी है ,इस सहजता को सच साबित करते हुए कहती है ,मुझे लगता है गुरूद्वारे जाने से अधिक अच्छा इमरोज़ बाबा से मिलना है ,सारी थकान सारी कुंठाएं न जाने कहाँ गायब हो जाती हैं |
इमरोज ,आप किस अमृता को प्यार करते थे ?वो अमृता जो एक नामचीन लेखिका और कवियत्री थी या फिर वो अमृता जो सिर्फ अमृता थी|,इमरोज़ ये सवाल सुनकर कहीं खो जाते हैं ,ख़ामोशी टूटती है 'जानते हैं आप ! मैंने ४ साल कि उम्र में माँ को खो दिया था ,बाद में जब कोई औरत मिलती मैं उसमे माँ ढूंढने लगता ,लेकिन जबसे अमृता से मिला धीमे धीमे मैंने माँ को ढूँढना बंद कर दिया ,यकीं शायद न हो लेकिन हेर रिश्ता उसमे समाहित हो गया और ये सब कुछ उसके व्यक्तित्व की वजह से था,जब वो खाना बनती थी ,तो एक एक करके मुझे गरम रोटी परोसती थी |जब तक मैं न आऊं वो खाना न खाए ,कहती थी,मैं खाना एन्जॉय करना चाहती हूँ इमा वो तुम्हारे साथ बैठे बिना संभव नहीं होता |वो मुझसे मिलने से पहले खाना नहीं बनती थी ,लेकिन मेरे मिलने के बाद रसोई भी उसकी एक सहेली हो गयी |मेरी नज्मों का सफ़र भी उसके साथ शुरू हुआ ,जब वो बीमार बिस्तर पर थी मैंने उसके सिरहाने बैठकर पहली नज़्म लिखी थी 'जब तुम पेड़ से बीज बन रही थी ,मेरे अन्दर कविता की पंक्तियाँ फूटने लगी '|
चाय के आधे भरे कप को घूर रहे इमरोज बात करते-करते यूँ फ्लैश बेक में चले जाते हैं जैसे सब कुछ इसी एक पल की बात हो ,चुस्कियों के साथ चुप्पियाँ टूटती है ,"जानते हैं ?अमृता और मैंने कभी आज तक एक दूसरे को आई लव यू नहीं बोला ,२६ जनवरी को मेरा जन्मदिन था,में उसके घर आया था ,मैंने उसे बताया और कहा गांवों में तो जन्मदिन नहीं मानते हैं,अमृता अचानक उठी और कुछ देर के लिए गायब हो गयी उसके लौटने के थोड़ी देर बाद एक आदमी आया और हमारी मेज़ पर केक रख गया ,न हमने उसे धन्यवाद कहा न उसने हमें जन्मदिन की मुबारकबाद दी ||एक वक़्त था जब पंजाब की पत्र पत्रिकाओं में अमृता के खिलाफ काफी कुछ कहा जाता था ,मैं देखता था इससे अमृता दुखी हो जाया करती थी ,सो मैं नीचे ही सारे अखबार और पत्र पत्रिकाएं पढ़ लेता था और उनमे से जिनमे अमृता के खिलाफ कुछ नहीं होता वही ऊपर भेजता था कई बार यूँ भी होता था कि अगर किसी अखबार में उसकी तस्वीर अच्छी नहीं छपी होती थी तो मैं उस पर उसकी सुन्दर सी तस्वीर चस्पा करके उसके पास भेज देता |
अमृता और इमरोज़ की बात हो और साहिर पर चर्चा न हो यूँ कैसे हो सकता है इमरोज़ के शब्दों में' बीस साल की दोस्ती थी दोनों की'|इमरोज़ बताते हैं कि जब मैं अमृता को स्कूटर पर बैठा कर रेडियो स्टेशन ले जाया करता था वो मेरे कुरते पर पीछे साहिर का नाम लिखा करती थी ,कभी जलन नहीं हुई ?मैंने तपाक से पूछा ,'अरे!जलन कैसे ?वो मेरा भी जिगरी दोस्त था ,कैसे भूल सकती थी अमृता उसे ,एक बार यूँ भी हुआ वो मुंबई गयी हुई थी किसी कार्यक्रम में ,वहां साहिर भी आये हुए थे ,साहिर्रने पूछा कब जाना है ?अमृता ने कहा आज शाम की ही फ्लाईट है,साहिर ने अमृता से टिकट माँगा और अपने जेब में रख लिया,और ये कहते हुए कि ये टिकट कल की भी हो सकती है ,साहिर अमृता को अपने घर ले गया ,अमृता ने मुझे फोन पर इतिल्ला दी थी ,वो पूरी रात साथ रहे ,लेकिन न मैंने अमृता के लौट के आने के बाद कोई सवाल किया न ही अमृता ने अपनी तरफ से कोई बात बताई | हाँ ,वहां से लौटकर लिखी गयी उसकी नज़्म में उस रात की सारी दास्ताँ थी जिसमे कहा गया था "आधी नज़्म एक कोने बैठी रही ,आधी नज़्म दूसरे कोने बैठी रही "|हलकी सी चाशनी घुली मुस्कान के साथ इमरोज कहते हैं मेरी मुलाक़ात जब अमृता से हुई वो ४० साल की थी ,मुझसे उम्र में सात साल बड़ी ,मानसिक तौर पर बहुत परेशान अमृता जब एक रोज़ डॉक्टर के पास गयी और अपने पति से अलग होने की बात कही तो डॉक्टर ने पूछा' क्या तुमने अपनी चाहत खोज ली है' ?तो अमृता ने कहा 'नहीं' ,ये वो वक़्त था जब अमृता की साहिर के साथ दोस्ती को एक लम्बा अरसा बीत चुका था ,डॉक्टर ने कहा 'तब अभी अपने पति से अलग मत हो 'फिर कुछ ही दिनों बाद मै मिला और उसने मेरे लिए सब छोड़ दिया,अमृता और साहिर जिंदगी भर एक दूसरे पर नज़्म लिखते रहे बस ||मैंने उन दोनों के बारे में कभी लिखा था
वो नज़्म से बेहतर नज़्म तक पहुँच गया
वो कविता से बेहतर कविता तक पहुँच गयी
पर जिंदगी तक नहीं पहुंचे
अगर जिंदगी तक पहुँचते
तो साहिर की जिंदगी नज़्म बन जाती
अमृता की जिंदगी कविता बन जाती

क्या आपमें अमृता को लेकर कभी इगो कंफ्लिक्ट हुआ ?अरे !ये क्या बात हुई ?कैसा
इगो ?मै अपनी पेंटिग्स पर अपना नाम भी नहीं लिखता वो मुझसे अधिक ,बेहद अधिक नामचीन थी ,मैंने सिर्फ एक बात जानी 'जो तुम्हे रुलाता हो ,वो तुम्हारा नहीं है ' ,|मैंने कभी वादा नहीं किया,उसने कभी वादा नहीं लिया |शायद बहुतकम लोग जानते हैं वो सपने में लिखती थी उसे ढेर सारे सपने आते थे मुझे सपने कम आते हैं ,उसके सपने भी मेरे सपनों से खुबसूरत हुआ करते थे |मैंने लिखा है 'जब तू पेड़ से बीज बनने लगी ,मेरे अन्दर किस तरह से कविताओं की पंक्तियाँ फूटने लगी "|
इमरोज़ आपने पेंटिंग्स और कविताओं में क्या साम्यता पाते हैं ?'कोई साम्यता नहीं है |पेंटिंग्स कोई सोच कर नहीं बना सकता ,रंग आपके कण्ट्रोल में नहीं होते हैं ,मै रंगों से खेलता हूँ ,जबकि नज्में सोच लेकर चलती हैं |पेंटिंग्स को लेकर अपना फलसफा इमरोज़ कुछ ऐसे बयां करते हैं
कैनवास धरती नहीं होते
रंग बीज नहीं होते
कैनवास पर लाइफ पेंट करना
स्टील लाइफ हो जाती
स्टील लाइफ में लाइफ नहीं होती
वो कहते हैं अगर कोई ये कहे हमने कैनवास पर जिंदगी पेंट की है तो वो झूठ कहता है|
इमरोज़ से हम चलते -चलते वुमेन विथ माइंड शीर्षक की पेंटिंग के बारे में बात करते हैं |वो बताते हैं 'अमृता ने मुझसे एक दफा पूछा की तुमने कभी वुमेन विथ माइंड बनायीं है ? वुमेन विथ फेस तो सब बनाते हैं'|अमृता के कहने का मतलब में समझ रहा था ,बहुत ही कम लोग होते हैं जो जिस्म से आगे बढ़ पाते हों , कोई भी पेंटर जब भी ब्रश से औरत को उकेरता है ,तो उसके जेहन में सिर्फ औरत का शरीर होता है |इमरोज कहते हैं जब तक पुरुष स्त्री का आदर नहीं करता तब तक वो इंसान नहीं बन सकता है ,और भी सच है कि निरादर सह रही औरतें आदर पैदा नहीं कर सकती |मैंने अमृता के कहने पर फिर वुमेन विथ माइंड बनायीं |इमरोज कहते हैं हमारे और अमृता के के बीच में शब्दों का नाता बहुत कम था हम चुप्पियाँ बांटा करते थे ,हमारे लिए धर्म का कोई मलतब नहीं था ,वह जन्म से ही धार्मिक संकीर्णता के विरुद्ध खड़ी थी ,मै भी उसके जैसा हूँ |वो मुझको और मै उसको आज भी हर पल जी रहे हैं, यही धर्म है |सवालों का सिलसिला ख़त्म होता है अधूरे जवाबों को पूरा करने हम अमृता के कमरे में जाते हैं ,सब कुछ वैसे ही है ,अमृता की किताबें ,कागज़ ,कलम ,एक छोटा टीवी और ढेर सारी तस्वीरें ,सोचता हूँ कितना मुश्किल होता है यादों को संजोना और न सिर्फ संजोना उनके साथ जीना |


इमरोज की चार कवितायेँ

१-
एक ज़माने से
तेरी ज़िन्दगी का पेड़
कविता कविता
फूलता फलता और फैलता
तुम्हारे साथ मिल कर
देखा है

और अब
तेरी ज़िन्दगी के पेड़ ने
बीज बनना शुरू किया
मेरे अन्दर जैसे कविता की
पत्तियां फूटने लगीं है...

और जिस दिन तू पेड़ से
बीज बन गई -
उस रात एक नज़्म ने
मुझे पास बुला कर पास बिठा कर
अपना नाम बताया
'अमृता जो पेड़ से बीज बन गई'
मैं काग़ज़ ले आया
वह काग़ज़ पर अक्षर अक्षर हो गई...

अब नज़्म अक्सर आने लगी है -
तेरी सूरत में तेरी तरह हीं देखती मुझे
और कुछ देर मेरे साथ हम कलाम होकर
हर बार मुझ में हीं गुम हो जाती है...

२-
उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं
वो अक्सर मिलती है
कभी तारों की छांव में
कभी बादलों की छांव में
कभी किरणों की रोशनी में
कभी ख्यालों के उजालों में

हम पहले की तरह मिलकर
कुछ देर चलते रहते हैं
फिर बैठकर एक-दूजे को
देख-देख, चुपचाप कुछ कहते रहते है
और कुछ सुनते रहते हैं

वह मुझे अपनी नयी अनलिखी
कविता सुनाती है
मैं भी उसको अपनी अनलिखी
नज़्म सुनाता हूँ

वक़्त पास खड़ा ये अनलिखी शायरी
सुनता-सुनता, अपना रोज़ का नियम
भूल जाता है

जब वक़्त को याद आता है
कभी शाम हो गयी होती है
कभी रात उतर आयी होती है
और कभी दिन चढ़ आया होता है
उसने सिर्फ जिस्म छोड़ा है
साथ नहीं

३-
अमृता मुझे कई नामों से
बुलाती है
दोस्ती के ज़माने में
रेडियो स्टेशन स्कूटर पर जाती
वह बाएं हाथ से मुझे लिपटी रहती
और दायें हाथ से कभी कभी
मेरी पीठ पर कुछ लिखती रहती
एक दिन पता लगा
वह साहिर साहिर लिखती है

मनचाही पीठ पर मनचाहा नाम
मुझे साहिर भी अपना नाम हीं लगा
अमृता की दोस्ती में
इतनी अपनत्व देखी और जी
कि फिर कोई बेगानगी रही ही ना...

उस कि कलम
जब भी लिखती मनचाहा ही लिखती
और उसकी ज़िन्दगी
मनचाहा ही जीती अपने आपके साथ भी
और अपने मनचाहे के साथ भी...


४-
मैं एक लोक गीत
बेनाम हवा में खड़ा
हवा का हिस्सा
जिसे अच्छा लगूँ
वह अपनी याद बना ले
जिसे और अच्छा लगे
वह अपना बना ले
जिसके जी में आये
वह गा भी ले -
मैं एक लोक गीत
सिर्फ लोक गीत
जिसे किसी नाम की
कभी भी
ज़रूरत नहीं पड़ती



[ये पूरा साक्षात्कार मैंने और लेखिका एवं कवियत्री जेन्नी शबनम जी ने संयुक्त रूप से लिया है ]