शुक्रवार, 8 मई 2009

पाकिस्तान से आखिरी ट्रेन(last train from pakistan)

-आवेश तिवारी
मरघट में तब्दील हो चुकी स्वात घाटी में रहने वाले तमाम हिन्दू और सिख परिवार ,तालिबानियों के उत्पीडन और जजिया कर से आजीज आकर अपना घर -बार छोड़ कर जा चुके हैं |उन घरों में जहाँ कभी ठहाके गूंजा करते थे वहां अब या तो तालिबानी लडाकों के जेहादी स्वर गूंजा करते हैं या फिर मलबों और धुओं का गुबार उड़ता दिखाई पड़ता है ,स्वात के कबाल गाँव में नामचीन हज्जा अबुल फजीक की दुकान पर ताला लटका हुआ है वहां लिखे तालिबानी नारे से साफ़ जाहिर है कि अब ये दुकान दुबारा नहीं खुलेगी | वहीँ गांव के उस पुराने स्कूल में जहाँ फजीक और तमाम गांव वालों की बेटियाँ पढ़ा करती थी ,आधी से अधिक इमारत गिर गयी है |पिछले एक साल के दौरान चरमपंथियों ने 150 सरकारी स्कूलों को नष्ट किया है, जिनमें से ज़्यादातर लड़कियों के स्कूल थे. कुछ ऐसा ही नजारा सिंगोर ,बुनेर,दिर आदि इलाकों में भी देखने को मिल रहा है |पाकिस्तान का स्विट्जर्लैंड हे जाने वाली स्वात घाटी में बर्फ के ऊँचे पहाड़ हरी भरी वादियाँ और बौध स्तूप जाने क्यूँ खामोश हैं? ऐसा लगता है जैसे सब कुछ चुपचाप सहने को तैयार हैं ,एक निकम्मे और धूर्त राष्ट्रपति को ,एक नपुंसक कौम को और एक ऐसे पडोसी को जो आतंकवाद की बार बार चोट खाने के बावजूद या तो आहें भरता है या फिर हवा में गोलियां दागने लगता है |क्या करे स्वात ?क्या करे बुद्ध की ये धरती ?
जिस वक़्त ब्लॉग पर ये पोस्टिंग लिखी जा रही थी उस वक़्त स्वात घाटी के सिंगोरा शहर में तालिबानियों और सुरक्षाबलों के बीच घमासान छिड़ा हुआ था ,गौरतलब है कि तालिबान का स्वात घाटी के ९० फीसदी से अधिक हिस्से पर कब्जा है सिंगोरा और अन्य इलाकों से लाखों लोग पलायन कर चुके थे ,जिनमे लगभग १५०० सिख परिवार भी शामिल हैं ,तालेबान ने सिखों के कई घरों को आग के हवाले भी कर दिया ,ये नजारा कुछ कुछ भारत पाकिस्तान के विभाजन के समय की याद दिला रहा था
,सिखों के पवित्रतम स्थलों में से एक, पंजासाहिब में शरण लेने वाले प्रेम सिंह कपड़ों का व्यापार करते हैं, उन्होंने को बताया, "हम बहुत डर गए थे, गोले हमारे घरों के पास फट रहे थे और हेलिकॉप्टर हमारे सिर पर मँडरा रहे थे, ऐसी हालत में हमें लगा कि वहाँ से निकलने में ही भलाई है.|कहने को तो सुरक्षाबल, पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत के बुनेर, दीर और स्वात जिलों में तालिबान के खिलाफ संघर्ष में बंदूकों, तोप युक्त हेलिकॉप्टरों और लड़ाकू विमानों का इस्तेमाल कर रहे हैं।लेकिन हकीकत ये है कि पाकिस्तानी फौज का एक बड़ा हिस्सा तालिबान से सहानुभूति रखती है पाकिस्तान के चाहने पर ही स्वात में शरियत लागू की गयी, हकीकत ये भी है कि सिर्फ पाकिस्तान में सत्ता में बैठे लोग तालिबानियों को प्रश्रय दे रहे हैं क्यूंकि वो जानते हैं कि तालिबानियों की बिगडैल मानसिक स्थिति का इस्तेमाल भारत के खिलाफ किया जा सकता है | ये हना अतिश्योतिपूर्ण नहीं होगा कि आने वाले दिनों में राजधानी इस्लामाबाद पर भी तालिबान का कब्जा हो जाये या फिर जरदारी उनके सामने घुटने टक्कर उन्हें सरकार में हिस्सेदार बना दें |
पाकिस्तान में कट्टरपंथ का मजबूत होना हमेशा भारत के लिए सिरदर्दी की वजह बनता है अगर लश्कर और जैश - -मोह
म्मद ताक़तवर होते हैं तो सिर्फ पाकिस्तान बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत विरोधी देशों का खेमा खुद को मजबूत पाता है |और ये सच है कि सिर्फ पाकिस्तान बल्कि ये तमा संगठन भी हिंदुस्तान के विरोध से पैदा हुई इंटरनेशनल खेमेबाजी कि रोटी खा रहे हैं |अगर हिन्दुस्तानी खुफिया एजेंसियों कि रिपोर्ट को माने तो स्वात के बाद तालिबान का अगला निशाना कश्मीर है ,पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में तो उसने पहले से ही घुसपैठ कर रखी है ,अब वो भारत के कब्जे वाले कश्मीर को कब्जे में लेने के मनसूबे बना रहा है | खुफिया जानकारी के मुताबिक तालिबान के इन आतंकियों को लश्कर--तैयबा, जैश--मोहम्मद, हूजी, हिज्बुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठनों के अलावा पाकिस्तानी कट्टरपंथी संगठन जमात--इस्लामी, जमात--उल्मा इस्लाम और जमात--अहल--हदीस का भी समर्थन हासिल है।सिर्फ इतना ही नहीं ये तालिबानी लडाके लश्कर के मुरीदके स्थित उस कैंप में ट्रेनिंग पा रहे है ,जहाँ मुंबई हमले के मास्टर माइंड अबुल कसाब और भारत के खिलाफ अभियान छेड़ने वाले अन्य जेहादी दस्तों ने ट्रेनिंग पायी है |
भारत के लिए स्वात घटी में तालिबा
की उपस्थिति से दोहरी दिक्कतें पैदा हो गयी हैं ,एक तरफ जहाँ सीमा के एक बार फिर संवेदनशील होने का खतरा हैं दूसरी तरफ पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं और सिखों की दुश्वारियां है ,पाकिस्तान में अपना घर बार छोड़कर भागे सिखों को २० हजार रुँपये की मदद का ऐलान करके अपनी पीठ थोक ली ,मगर अफ़सोस हम तो वहां की परिस्थितियों को लेकर कोई अन्तराष्ट्रीय दबाव बना पाए , ही शरणार्थियों को कोई सहायता पहुंचा पाए और ही पुरजोर ढंग से इस पुरे मामले पर पाकिस्तान से अपनी आपति दर्ज करा पाए |हाँ पाकिस्तान में बैठे हमारे उच्चायुक्त ने वहां के अधिकारियों से इस पुरे मामले में औपचारिक मुलाक़ात जरुर कर ली ,ये कुछ ऐसा है कि खुले आसमान की और मुँह करके ओलों के पड़ने का इन्तेजार किया जाए ,वो भी तब जबकि ये बात साबित हो चूका है कि तालिबान के दुश्मन नंबर एक हिंदुस्तान और हिन्दुस्तानी ही हैं |स्वात में जो हो रहा है उसको लेकर हमारे देश में भी आक्रोश खतरनाक शक्ल अख्तियार कर रहा है पोस्टिंग को लिखते वक़्त जम्मू में तालिबानियों के जुल्मो सितम के खिलाफ बंदी थी , गुरुवार को जम्मू के रियासी ज़िले में एक महिला समेत तीन लोगों को संदिग्ध चरमपंथियों ने मार दिया पुलिस का कहना है कि गुरुवार को करीब साढ़े दस बजे चार लोग अहमद मलिक के घर में घुस गए और अहमद, उनके बेटे और एक महिला को गोली मार दी.ये शर्मनाक है |आगे स्थिति और भी खराब हो सकती है ,अपने कश्मीर से बाहर कर दिए गए सिख और हिन्दू ये कत्तई बर्दास्त नहीं करेंगे कि उन्हें देश परदेश हर जगह से बेदखल किया जाए | सरकार को चाहिए था कि संयुक्त राष्ट्र में तात्कालिक तौर पर स्वात के प्रकरण को लेकर अपनी आपति दर्ज कराये ,साथ ही हमें अमेरिका को भी इस मामले में अपने प्रतिरोध से अवगत करना चाहिए था |अगर अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ संयुक्त अभियान छेडा जा सकता है तो स्वात में क्यूँ नहीं ?भारत ऐसे हमलों के लिए अपने सरोकारों का वास्ता देकर खुद लाबिंग क्यूँ नहीं करता ?मसला सिर्फ वहाँ रह रहे हिन्दू या सिख समुदाय के उत्पीडन का नहीं है ,बल्कि तालिबानियों की फितरत का है |किसी भेडिये की तरह वे गुपचुप तरीके से कहीं भी घात कर सकते हैं कंधार विमान अपहरण काण्ड में ही नही ,भारत के ख़िलाफ़ किए गए किसी आतंकी कार्यवाही में तालिबान का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन रहा है कभी भी कहीं एक और मुंबई हमले का खतरा बना हुआ है ऐसे में हमें किसी भी कट्टरपंथी ताक़त को कुचलने का पक्का इन्तजाम करना होगा , क्यूंकि अगर पड़ोस में आग लगी हो और ये आग अगर पडोसी ने खुद लगायी हो तो हमारे घरों में भी चिंगारी पहुंचना लाजिमी है |



गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

मेरी बहन शर्मीला!


क्या आप इरोम शर्मीला को जानते हैं ?वो दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक राष्ट्र में पिछले सालों से भूख हड़ताल
पर बैठी है ,उसके नाक में जबरन रबर का पाइप डालकर उसे खाना खिलाया जाता है ,उसे जब नहीं तब गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जाता हैं , वो जब जेल से छूटती है तो सीधे दिल्ली राजघाट गांधी जी की समाधि पर पहुँच जाती है और वहां फफक कर रो पड़ती है ,कहते हैं कि वो गाँधी का पुनर्जन्म है ,उसने सालों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा,उसके घर का नाम चानू है जो मेरी छोटी बहन का भी है और ये भी इतफाक है कि दोनों के चेहरे मिलते हैं | कहीं पढ़ा था कि अगर एक कमरे में लाश पड़ी हो तो आप बगल वाले कमरे में चुप कैसे बैठ सकते हैं ?शर्मीला भी चुप कैसे रहती ? नवम्बर ,२००० को गुरुवार की उस दोपहरी में सब बदल गया ,जब उग्रवादियों द्वारा एक विस्फोट किये जाने की प्रतिक्रिया में असम राइफल्स के जवानो ने १० निर्दोष नागरिकों को बेरहमी से गोली मार दी ,जिन लोगों को गोली मारी गयी वो अगले दिन एक शांति रैली निकालने की तैयारी में लगे थे |भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले मणिपुर में मानवों और मानवाधिकारों की सशस्त्र बलों द्वारा सरेआम की जा रही हत्या को शर्मीला बर्दाश्त नहीं कर पायी ,वो हथियार उठा सकती थी ,मगर उसने सत्याग्रह करने का निश्चय कर लिया ,ऐसा सत्याग्रह जिसका साहस आजाद भारत में किसी हिन्दुस्तानी ने नहीं किया था |शर्मिला उस बर्बर कानून के खिलाफ खड़ी हो गयी जिसकी आड़ में सेना को बिना वारंट के सिर्फ किसी की गिरफ्तारी का बल्कि गोली मारने कभी अधिकार मिल जाता है ,पोटा से भी कठोर इस कानून में सेना को किसी के घर में बिना इजाजत घुसकर तलाशी करने के एकाधिकार मिल जाते हैं , वो कानून है जिसकी आड़ में सेना के जवान सिर्फ देश के एक राज्य में खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं बल्कि हत्याएं भी कर रहे हैं |शर्मिला का कहना है की जब तक भारत सरकार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून -१९५८ को नहीं हटा लेती ,तब तक मेरी भूख हड़ताल जारी रहेगी | आज शर्मीला का एकल सत्याग्रह संपूर्ण विश्व में मानवाधिकारों कि रक्षा के लिए किये जा रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहा है | अगर आप शर्मिला को नहीं जानते हैं तो इसकी वजह सिर्फ ये है कि आज भी देश में मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर उठने वाली कोई भी आवाज सत्ता के गलियारों में कुचल दी जाती है,मीडिया पहले भी तमाशबीन था आज भी है |शर्मीला कवरपेज का हिस्सा नहीं बन सकती क्यूंकि वो कोई माडल या अभिनेत्री नहीं है और ही गाँधी का नाम ढो रहे किसी परिवार की बेटी या बहु है |


इरोम शर्मिला के कई परिचय हैं |वो इरोम नंदा और इरोम सखी देवी की
प्यारी बेटी है ,वो बहन विजयवंती और भाई सिंघजित की वो दुलारी बहन है जो कहती है कि मौत एक उत्सव है अगर वो दूसरो के काम सके ,उसे योग के अलावा प्राकृतिक चिकित्सा का अद्भुत ज्ञान है ,वो एक कवि भी है जिसने सैकडों कवितायेँ लिखी हैं |लेकिन आम मणिपुरी के लिए वो इरोम शर्मीला होकर मणिपुर की लौह महिला है वो महिला जिसने संवेदनहीन सत्ता की सत्ता को तो अस्वीकार किया ही ,उस सत्ता के द्वारा लागू किये गए निष्ठुर कानूनों के खिलाफ इस सदी का सबसे कठोर आन्दोलन शुरू कर दिया |वो इरोम है जिसके पीछे उमड़ रही अपार भीड़ ने केंद्र सरकार के लिए नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं ,जब दिसम्बर २००६ मेंइरोम के सत्याग्रह से चिंतित प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बर्बर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को और भी शिथिल करने की बात कही तो शर्मीला ने साफ़ तौर पर कहा की हम इस गंदे कानून को पूरी तरह से उठाने से कम कुछ भी स्वीकार करने वाले नहीं हैं |गौरतलब है इस कानून को लागू करने का एकाधिकार राज्यपाल के पास है जिसके तहत वो राज्य के किसी भी इलाके में या सम्पूर्ण राज्य को संवेदनशील घोषित करके वहां यह कानून लागू कर सकता है |शर्मीला कहती है 'आप यकीं नहीं करेंगे हम आज भी गुलाम हैं ,इस कानून से समूचे नॉर्थ ईस्ट में अघोषित आपातकाल या मार्शल ला की स्थिति बन गयी है ,भला हम इसे कैसे स्वीकार कर लें ?'

३५ साल की उम्र में भी बूढी दिख रही शर्मीला
बी.बी.सी को दिए गए अपने इंटरव्यू में अपने प्रति इस कठोर निर्णय को स्वाभाविक बताते हुए कहती है 'ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है मेरा सत्याग्रह शान्ति ,प्रेम ,और सत्य की स्थापना हेतु समूचे मणिपुर की जनता के लिए है "|चिकित्सक कहते हैं इतने लम्बे समय से अनशन करने ,और नली के द्वारा जबरन भोजन दिए जाने से इरोम की हडियाँ कमजोर पड़ गयी हैं ,वे अन्दर से बेहद बीमार है |लेकिन इरोम अपने स्वास्थ्य को लेकर थोडी सी भी चिंतित नहीं दिखती ,वो किसी महान साध्वी की तरह कहती है 'मैं मानती हूँ आत्मा अमर है ,मेरा अनशन कोई खुद को दी जाने वाली सजा नहीं ,यंत्रणा नहीं है ,ये मेरी मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किये जाने वाली पूजा है |शर्मिला ने पिछले वर्षों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा वो कहती है 'मैंने माँ से वादा लिया है की जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा कर लूँ तुम मुझसे मिलने मत आना |'लेकिन जब शर्मीला की ७५ साल की माँ से बेटी से मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है उनकी आँखें छलक पड़ती हैं ,रुंधे गले से सखी देवी कहती हैं 'मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था जब वो भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी ,मैंने उसे आशीर्वाद दिया था ,मैं नहीं चाहती की मुझसे मिलने के बाद वो कमजोर पड़ जाये और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अद्भुत युद्ध पूरा हो पाए ,यही वजह है की मैं उससे मिलने कभी नहीं जाती ,हम उसे जीतता देखना चाहते है '|

जम्मू कश्मीर ,पूर्वोत्तर राज्य और अब शेष भारत आतंकवाद,नक्सलवाद और पृथकतावाद की गंभीर परिस्थितियों
से जूझ रहे हैं है |मगर साथ में सच ये भी है कि हर जगह राष्ट्र विरोधी ताकतों के उन्मूलन के नाम पर मानवाधिकारों की हत्या का खेल खुलेआम खेला जा रहा है ,ये हकीकत है कि परदे के पीछे मानवाधिकार आहत और खून से लथपथ है ,सत्ता भूल जाती है कि बंदूकों की नोक पर देशभक्त नहीं आतंकवादी पैदा किये जाते है |मणिपुर में भी यही हो रहा है ,आजादी के बाद राजशाही के खात्मे की मुहिम के तहत देश का हिस्सा बने इस राज्य में आज भी रोजगार नहीं के बराबर हैं ,शिक्षा का स्तर बेहद खराब है ,लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए दिन रात जूझ रहे हैं ,ऐसे में देश के किसी भी निर्धन और उपेक्षित क्षेत्र की तरह यहाँ भी पृथकतावादी आन्दोलन और उग्रवाद मजबूती से मौजूद हैं |लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि यहाँ पर सरकार को आम आदमी के दमन का अधिकार मिल जाना चाहिए ,अगर ऐसा होता रहा तो आने वाले समय में देश को गृहयुद्ध से बचा पाना बेहद कठिन होगा |जब मणिपुर की पूरी तरह से निर्वस्त्र महिलायें असम रायफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन करते हुए कहती हैं की 'भारतीय सैनिकों आओ और हमारा बलात्कार करो 'तब उस वक़्त सिर्फ मणिपुर नहीं रोता ,सिर्फ शर्मिला नहीं रोती ,आजादी भी रोती है ,देश की आत्मा भी रोती है और गाँधी भी रोते हुए ही नजर आते हैं | शर्मीला कहती है 'मैं जानती हूँ मेरा काम बेहद मुश्किल है ,मुझे अभी बहुत कुछ सहना है ,लेकिन अगर मैं जीवित रही ,खुशियों भरे दिन एक बार फिर आयेंगे '|अपने कम्बल में खुद को तेजी से जकडे शर्मीला को देखकर लोकतंत्र की आँखें झुक जाती है |

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

मुद्दे पर मीडिया:संसदीय चुनाव और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया


-भय और भूख से नाराज मतदाता ,सतही मनोरंजन से गिरती जनतंत्र की गरिमा

भूख और भय से निराश लोक,थका हुआ निस्तेज तंत्र और सर्वग्रासी बाजार में अपने उत्पाद को बेचने के लिए आतुर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ,मीडिया का काम सिर्फ आम आदमी तक खबरें पहुँचाना ही नहीं रह गया है बल्कि वो ख़बरों से खेलता है ,उनको पैदा करता है और उनको खुद के हिसाब से इस्तेमाल भी करता है l चुनाव के दौरान आई .पी.एल मैचों को जिस तरह से अनिवार्य बनाया गया वह हैरत में डालने वाला था ,एक तरफ देश के आम लोगों के सर्वोच्च मताधिकार का महोत्सव तो दूसरी और नीलाम हुए क्रिकेटरों की सौ फीसदी बाजारू स्पर्धा ,राजनीति के दिग्गज देश में नयी व्यवस्था के तहत विकास ,आतंकवाद ,जैसे मौलिक मुद्दों के समाधान की कोशिश कर रहे हैं राष्ट्र का इंतजाम राष्ट्र कर रहा है ,चुनाव ,क्रिकेट या टी.वी पर आने वाले तमाम मनोरंजन प्रोग्राम्स की भांति वैकल्पिक नहीं है दरअसल सर्वग्रासी इलेक्ट्रॉनिक और कुछ अग्रणी प्रिंट मीडिया चाहती थी कि चुनावों के दौरान आई.पी.एल भारतीय शहरों में चले तथा उनमे राजनैतिक दलों के विज्ञापन परोस कर धन बटोरा जाए ,विफल होने पर इसी मीडिया लाबी ने दक्षिण अफ्रीका में मैच कराने की लाबिंग शुरू कर दी और ये प्रचारित करना शुरू कर दिया कि -भारत में क्रिकेट मैचों की सुरक्षा का दम नहीं है ,एक निहितार्थ ये भी कि देश में आई.पी.एल न कराने से क्रिकेटप्रेमियों में आक्रोश होगा ,जिसका खामियाजा सभी राजनैतिक दल (जिनकी सरकारें हैं )भुगतें संयोग से जहाँ आई.पी.एल हो रहे हैं ,वह साउथ अफ्रीका नस्लभेद और रंगभेद के लिए चर्चित रहा है ,जहाँ गांधी अपमानित हुए ,अभी एक सप्ताह पहले इसी देश ने बौध धर्मगुरु दलाई लामा को अपने देश आने से मना किया है दरअसल हो ये रहा है की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कंटेंट को लेकर दायित्वबोध को धत्ता बताते हुए टेस्ट बिल्डिंग का काम कर रहा है ,इसे हम खबरी अराजकता कहते हैं .

दरअसल सच ये है कि मीडिया की सोच चुनावों में भी सतही मनोरंजन देते रहने से बने चरित्र से ऊपर उठ नहीं पाती ,चुनाव में जनता की बुनियादी समस्याओं पर राजनैतिक पार्टियों की जवाबदेही को सुनिश्चित करने के बजाय ,पुरे माहौल को मनोरंजक बनाने की हर संभव कोशिश की जा रही है ,इलेक्शन कवरेज में भी पॉलिटिकल गासिप्स अधिक सुनने को मिल रहे हैं चाहे वो बुढिया और गुडिया को लेकर मोदी या प्रियंका की बतकही हो या फिर राबडी को नीतिश को दी गयी गाली हो प्रायः सभी चैनलों ने अंग्रेजी और हिंदी की पकाते हुए 'हिंगलिश 'में विशेष चुनाव कार्यक्रम शुरू किये हैं ,इन पर नजर डालें तो स्पष्ट होगा कि किस तरह लोकतंत्र का मजाक उडाया जा रहा है चुनाव आयोग द्वारा थोपी गयी पाबंदियों से जो कम्युनिकेशन गैप पैदा हुआ है ,उसको मीडिया भर सकती थी ,ये क्या कम अचरज भरा है घरों पर झंडे लगाने कि पाबंदी है चैनलों में कुछ भी दिखने की छूट है यह 'मीडियाटिक्स ' है मीडिया खुद अपना ही मखौल उड़ा रही है क्यूंकि भूख और भय से नाराज और निराश भारतीय नागरिकों को राजनैतिक धर्म के साथ यह मजाक्बाजी रास नहीं आ रही है हाँ ,मतदाताओं को जगाने का काम समयोचित है .

इंडिया टुडे ग्रुप के चैनल 'तेज; ने एक प्रोग्राम बनाया है 'इंडियन कुर्सी लीग 'इसमें कांग्रेस को किंगकांग ,भाजपा को वेटिंग बैरिअर्स ,बसपा को जम्बो जेट आदि कहा जाता है
छपरा में नीतिश के बारे में राबडी के अपशब्द की स्टोरी को कहा गया कि;छपरा कि पिच पर सुर्रा फेकने वाली बालर ने ऐसा बाउंसर फैंका .........,यह प्रोग्राम चुनाव की पैरोडी दिखाने के प्रयास में चुनाव को ही क्रिकेट कि पैरोडी बना रहा है एन.डी.टी.वी ने 'इलेक्शन एक्सप्रेस शुरू किया तथा एक नया नाम विश्व के वृहत्तम निर्वाचन को दिया -'बिगेस्ट रियलिटी शो 'अभी तक हम रियलिटी शो का मतलब नाच -गाना ,अन्ताक्षरी आदि समझ रहे थे यह लोकतंत्र का उपहास नहीं तो और क्या है ?बार बार ये चैनल चुनाव को युद्ध कहते रहे हैं ,आज तक ने शुरू किया 'बोल इंडिया बोल' , देश के १० शहरों में ४ हजार लोगों से बात करके चुनाव सर्वेक्षण के नतीजे परोसने शुरू कर दिए हैं एक शहर में सिर्फ ४०० लोगों से कथित तौर पर प्रश्न पूछ कर यह चैनल बक रहा है कि लगभग ५६ फीसदी लोग संप्रग की सरकार और मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री चाहते हैं जबकि मात्र ३५ फीसदी लोग राजग कि सरकार और अडवानी को प्रधानमन्त्री देखना चाहते हैं चैनल कहता है कि उसके वोट गुरु अन्य 27 शहरों में सर्वे करेंगे मतलब दस हजार और लोगों से पूछ लेंगे तब तक काउंटिंग के पहले ही मनगढ़ंत नतीजे सुनाते रहेंगे} सर्वाधिक खेदपूर्ण ये है की इस तरह के सभी चुनावी विश्लेषण शहरी मतदाता को केंद्र में रखकर किये जाते हैं जिन्हें ये चैनल्स जागरूक मतदाता कहता है जबकि सच्चाई ये है कि इन्ही जागरूक मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा गर्मी और छुट्टी का बहाना बना कर वोट तक डालने नहीं ,जबकि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों का मतदाता सर्वाधिक वोटिंग करता है और इसी की से चुनावी नतीजे बनते बिगड़ते हैं ऐसे में तीन चौथाई आबादी को अलग थलग करके किया गया कोई भी सर्वेक्षण भला कैसे वैज्ञानिक हो सकता है ?कहीं ये सिर्फ चैनलों के राजनैतिक धर्म के पालन की युक्ति तो नहीं ?

अब तक के चुनावी कवरेज के दौरान मीडिया ने अपराधियों और बाहुबलियों के खिलाफ अभियान चलाकर सर्वाधिक सराहनीय काम किया ,लेकिन इन सबके बीच पूरी राजनीति को भी कटघरे में खडा करने का काम भी किया गया मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा लेकिन शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इन चैनलों ने अपने हितों की कसौटी पर न कसा हो ,अब ये तो नहीं है न कि सारे प्रत्याशी अपराधी हैं और इनके लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हाँथ में दरोगा की तरह डंडा लेकर खडा होना आवश्यक हो गया हो ,हम ये भूल जाते हैं की जो भी उम्मीदवार जीतेगा वो कल को देश की लोकसभा का हिस्सा होगा एक प्रोग्राम में प्रसिद्ध पत्रकार नलिनी सिंह ने कहा कि ;जो नेता १०० रुपये के नोट बाँट रहे हैं उन्हें तो आपने दिखाया किन्तु जो धन प्रचार के मकसद से दिया गया है उसके बारे में कुछ क्यूँ नहीं बोलते ?ऐसा तो नहीं है न कि सिर्फ चोर चुनाव लड़ रहे हैं और चोर ही जीतते हैं ये चैनल्स भूल जाते हैं कि लोकतंत्र कि व्यवस्था हमें अनेक कुर्बानियों से मिली है ,इसकी गरिमा ,मतदाताओं के मान और सत्ता परिवर्तन कि अहिंसक क्रांति को सतही बाजारी नजरिये से तौलना शर्मनाक है वैश्विक परिस्थितियों के सन्दर्भ में कहें तो मीडिया को चाहिए 'दस कबीर जतन से ओढी ,ज्यों के त्यों धरी दिनी चदरिया ....