''....इंटरनेट पर कुछेक विवादास्पद पत्रकारों ने ब्लाग जगत की राह जा पकड़ी है, जहां वे जिहादियों की मुद्रा में रोज कीचड़ उछालने वाली ढेरों गैर-जिम्मेदार और अपुष्ट खबरें छाप कर भाषायी पत्रकारिता की नकारात्मक छवि को और भी आगे बढ़ा रहे हैं। ऊंचे पद पर बैठे वे वरिष्ठ पत्रकार या नागरिक उनके प्रिय शिकार हैं, जिन पर हमला बोल कर वे अपने क्षुद्र अहं को तो तुष्ट करते ही हैं, दूसरी ओर पाठकों के आगे सीना ठोंक कर कहते हैं कि उन्होंने खोजी पत्रकार होने के नाते निडरता से बड़े-बड़ों पर हल्ला बोल दिया है।
यहां जिन पर लगातार अनर्गल आक्षेप लगाए जा रहे हों, वे दुविधा से भर जोते हैं, कि वे इस इकतरफा स्थिति का क्या करें? क्या घटिया स्तर के आधारहीन तथ्यों पर लंबे प्रतिवाद जारी करना जरूरी या शोभनीय होगा? पर प्रतिकार न किया, तो शालीन मौन के और भी ऊलजलूल अर्थ निकाले तथा प्रचारित किए जाएंगे....''
ये कहना है मृणाल पांडेय का। मृणाल दैनिक हिंदुस्तान की प्रमुख संपादक हैं। वे हर हफ्ते रविवार को दैनिक हिंदुस्तान में लंबा-चौड़ा संपादकीय लेख लिखती हैं। मेरी ये पोस्टिंग मृणाल जी को मेरा सादर जवाब है |मीडिया का एक चेहरा ऐसा भी है जो लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करता है वो पाठकों और मीडिया के बीच का भी लोकतंत्र हो सकता है वो मीडिया और मीडिया के बीच का भी लोकतंत्र हो सकता है |उसके लिए खबरें और ख़बरों के पीछे छिपी खबरें महज गॉसिप होती हैं अगर वो उसके आर्थिक उदेश्यों और बाजारी बादशाही के उदेश्यों की पूर्ति न करे |मंदी का रोना रोते हुए मीडिया के उस चेहरे को देश के कुख्यात माफियाओं के फुल पेज विज्ञापन छापने पर कोई ऐतराज नहीं है ,लेकिन जब कभी वो इस चेहरे पर पडे नकाब की धज्जियाँ उड़ते देखता है ,तो वोकभी माध्यमों को गरियाने लगता है ,तो कभी भाषाई पत्रकारिता को ,मृणाल जी उन्ही चेहरों को सजा संवार रही हैं |हम उन्हें मीडिया के घोडे कहते हैं और मृणाल जी पेशेवर | एक ऐसे देश में जहाँ मुद्दे , पहले पंक्ति के पत्रकारों की भारी तादात में उपस्थिति के बावजूद जनता के सर से सीने तक और पाँव से पेट तक धंसे हैं वहां तो धज्जियाँ उड़नी ही थी ब्लागर्स न करते तो कोई और करता |दरअसल मीडिया का ठगी और छली वर्ग मुद्दों को ढकता है |मृणाल जी ब्लागर्स और भाषाई पत्रकारों की प्रतिबद्धता का मुद्दा उठाती हैं ,लेकिन इन घोडों से उन्हें कोई आपति नहीं ,क्यूंकि उन घोडों में वो ऊँचे पदों पर बैठे वे पत्रकार भी है जो खुद को कलमकारी का मसीहा मान लेने के मुगालते में थे लेकिन अब खुद कलम के घेरे में हैं |
मृणाल जी कहती हैं कि 'हिन्दी पत्रकारों ने छोटे-बड़े शहरों में मीडिया में खबर देने या छिपाने की अपनी शक्ति के बूते एक माफियानुमा दबदबा बना लिया है। और पैसा या प्रभाववलय पाने को वे अपनी खबरों में पानी मिला रहे हैं।'बिलकुल सच कहती हैं वो ,ये सच है |मगर उन शहरों में भी खबरें उन्ही के द्वारा छिपाई और लिखाई जा रही हैं जो उन बड़े मीडिया हाउसों के अधीन काम कर रहे हैं जिनसे खुद मृणाल आती हैं ,और ख़बरों को गोल किये जाने के पीछे न सिर्फ अपना हित साध रहे उन बहुआयामी चेहरों का हाथ होता है बल्कि अखबार के प्रबंधन का भी होता है |मृणाल जी अगर आप उन चेहरों की निगाह से देखेंगी जो खुद को मीडिया का प्रतीक मनवाने के लिए सारे जुगाड़ लगा रहे हैं तो भाषाई पत्रकार आपको तालाब की मछली की तरह नजर आयेंगे ,लेकिन अगर सच देखना हो तो निगाह बदली होगी साथ में आइना भी |छोटे छोटे कस्बों और शहरों का पत्रकार ख़ास तौर से वो जो हिंदी अखबारों से जुड़े हैं आज दाने दाने को मोहताज है अगर वो खुद को बेचता है ,और घोडों के द्वारा बनाये गए धर्म को बेचता है तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए की उसकी भी साँसे चलती रहें और ख़बरों की भी |जहाँ तक उसकी औसत छवि के आदरयोग्य और उज्जवल न होने की बात है इसका फैसला उनके हाँथ में हैं जिनके लिए वो न सिर्फ खबरें लिखता है बल्कि उन ख़बरों के माध्यम से उन्हें कुछ देने की भी कोशिश करता है ,इसके लिए उसे किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती |सही शब्दों में कहा जाए तो आज इन्ही भाषाई पत्रकारों एवं ब्लागर्स की वजह से खबरें जिन्दा हैं ,शायद यही वजह है की आज जनता की भारी भीड़ उनकी और उमड़ रही है ,जनता जानती है कि जो कुछ भी बड़े व्यावसायिक घरानों द्वारा संचालित अखबारों में लिखा जा रहा है उनमे से ज्यादातर ऐसे पूर्वाग्रह से प्रभावित है जिसका खुद पाठक भी विरोध नहीं कर पाता,उसे वही पढाया जाता है जो आप पढाना चाहते हैं ,इसे हम वैचारिक राजशाही कहते हैं |ऐसे में अगर कोई ब्लॉगर या अखबारनवीस ख़बरों के साथ साथ घोडों की भी विवेचना करता है तो क्यूँ बुरा लग रहा है :,उसे ये करना भी चाहिए ,यही पत्रकारिता का धर्म है यही मर्म ||जहाँ तक वसूली और खादानी पट्टे हासिल करने की बात है मृणाल जी बताएं कि उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद मेंतैनात 'हिंदुस्तान' के जिला संवाददाता ने अरबों रुपये कीमत के खनन पट्टे कैसे हासिल किये ?इस पत्रकार के गोरखधंधों की व्यक्तिगत तौर पर जानकारी के बावजूद प्रबंधन और खुद मृणाल पाण्डेय चुप क्यूँ हैं ?सच्चाई तो ये है मृणाल जी आज धंधई पत्रकारों की जरुरत नहीं है ,आज सचमुच जेहादियों की जरुरत है ,जो जूझ सके ,ख़बरों के लिए जिन्दा रहने के साथ साथ खुद को सजा देने का भी साहस रखता हो |आज ये काम सिर्फ और सिर्फ ब्लागर्स कर रहे हैं |
मृणाल जी की इस बात से हम सहमत हैं कि 'मीडिया की छवि बिगाड़ने वाले गैर गैर-जिम्मेदार घटिया पत्रकारिता के खिलाफ ईमानदार और पेशे का आदर करने वाले पत्रकारों का भी आंदोलित होना आवश्यक बन गया है '|उनसे अनुरोध है कि अगर वो घटिया पत्रकारिता को लेकर चिंतित हैं तो आज से ही ब्लॉग लिखना शुरू कर दें ,आप विश्वास करे न करे ,जिनमे खुद को सजा देने का साहस होगा वही ब्लॉग लिखेंगे ,यहाँ खुद के कानून बनाकर खुद को सजा दी जाती है जिसकी कोशिश अब तक मीडिया के किसी माध्यम ने नहीं की |अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी कठिन होती है और कितने जतन से उसे सहेजना होता ये सिर्फ और सिर्फ ब्लागर्स जानते हैं |आत्मविश्लेषण और आत्मनियंत्रण का इससे बड़ा माध्यम और कोई हो ही नहीं सकता यहाँ किसी का कोई व्यवसायिक मकसद नहीं है ,यहाँ हर ब्लॉगर अपने आप में खबर है ,शेर घाटी का शहरोज जब अपने बच्चों का पेट नहीं भर पाता तो ब्लॉग लिखना बंद कर देता है ,घोडों की करतूतों से आहत अलोक तोमर 'जनसत्ता 'को फिर से जिन्दा करने की कोशिश में लग जाते हैं |तो अपने दोनों पैरों से लाचार अभिषेक जैसे तैसे दो पैसों का जुगाड़ करके अपनी माँ और अपने ब्लॉग दोनों को जिन्दा रखे हुए है |
जहाँ तक पेशेवर पत्रकारों के खिलाफ मुहिम छेड़े जाने की बात है ये तो होना ही था ,मीडिया के घोडों के अतिवादी साम्राज्यवाद के शोषण के खिलाफ आखिर कब तक चुप रहा जाता ?मृणाल जी अगर इन पेशेवर पत्रकारों की यश हत्या एक ब्लॉगर भी कर सकता है तो ऐसा यश किस काम का ?कोई ब्लॉगर मृणाल पाण्डेय के खिलाफ मुहिम चलाने की हिम्मत क्यूँ नहीं करता ?इसकी वजहें सिर्फ ये है कि कोई भी आलोचना उनकी यश कीर्ति के सापेक्ष गौण हो जाती है |वो जानता है मृणाल पाण्डेय पत्रकारिता और पत्रकारों का सम्मान करती हैं ,उनके विचार किसी और के विचारों का प्रतिबिम्ब नहीं हो सकते ,लेकिन यहाँ तो .....! राजनीतिकों से अधिक दुश्चरित्र मीडिया का है ,नकारात्मक सोच से भरा हुआ सकारात्मक दिखने की कोशिश करता है |सच तो ये मीडिया को भी सही जनप्रतिनिधि की जरुरत है वो जनप्रतिनिधि नहीं जिसे केवल मृणाल पाण्डेय तय करें उसे हम सबको तय करना होगा ,मीडिया भी मीडिया के जेरेगौर है और ब्लोगिंग इसी का माध्यम |मृणाल जी से कहना चाहेंगे की मीडिया और मनुष्य के बीच कोई तीसरा न रहे तो बेहतर ,आत्मा के दर्पण में खुली नजर से झाँकने की जरुरत है ,सत्य का दर्पण निर्मल रखना होगा |
सच कहा आपने, सत्य का दर्पण निर्मल रखना होगा...
जवाब देंहटाएंबधाई, बेबाकबयानी के लिए।
अच्छा विश्लेषण किया है आपने ... ब्लागिंग में मीडिया की भूमिका को लेकर ... शुभकामनाएं आप सबों को।
जवाब देंहटाएंkasbon-chote-chote shaharon ke sambaddataon ko bhrast hone dene men sabase badi bhumika kathit bade akhabaron ki hi hai. delahi ke unchi tankhah pane valon ko jindagi ki jatiltaon ka kya pata? samanti mansikata ke manager sampadkon ko apani suvidhaon ki hi jyada chinta hoti hai. ye aghaye log chote yani alp vetanbhogi ptrakoron ki paresaniyon ko kya samajhenge. patrkaron ke haq marane vale sampadak hi aaj safal patrakar ki upadhi ke sath, hamare hero ke roop men blog par bhi parose ja rahe hain. malikon ko labh ki hi chinta karane vale log patrakarita ke hijo bataye jayen, to yeh peeda pahunchane vali baat hai.
जवाब देंहटाएंaapki babaki achi lagi. badhayi
जवाब देंहटाएंमृणाल जी द्वारा उठाये गए मुद्दों का अपने लेख के माध्यम से उचित जबाब दिया है आपने | वाकई ब्लोगिंग एक अच्छा माध्यम है उन पत्रकारों के लिए जिनकी आवाज और पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी, वाणिज्यिक लाभ के लिए सूचनाओ को tempared करने की संचार माध्यमो की चिर परिचित मनोवृति के आगे दम तोड़ देती है | हलाकि ये सही है अविव्यक्ती की स्वतंत्रता का उपयोग करने की एक मर्यादा जरुर होनी चाहिए, और कुछ लिखने के पहले सूचनाओ के तथ्यगत सच्चाई को अपने विवेक की कसौटी निश्चित तौर पर परखा जाना चाहिए ताकि कही येसा न हों की उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए अर्धसत्य एक नयी समस्या की वीज बो दें |
जवाब देंहटाएंaap cashai ko bahut ache se samne late ho
जवाब देंहटाएंaapko padhna acha lagta hai
nira
आपका "जवाब हम देंगे" पढ़ा ..एक बात मोटी सी जो मुझे समझ में आई वह यह कि... पत्रकारिता और व्यवसायिक पत्रकारिता ... दोनों की जरूरत एक दूसरे को होती है . एक होता है खबर छापना . दूसरा खबर बेचना . अगर अख़बार जिन्दा रहेगा तो पत्रकार भी ...
जवाब देंहटाएंआप जानते ही हैं कि विज्ञापन न मिले तो अख़बार इतना मंहगा हो जाये कि उसे हर कोई नहीं पढेगा.. ऐसे में अगर आप सिद्धांतवादी बनें कि "फलां व्यक्ति/नेता अच्छा नहीं है हम उसका विज्ञापन नहीं छापेंगे तब तो हो गयी छुट्टी और चल गया आपका अख़बार , इसलिए प्रतिस्पर्धा एवं अस्तित्व को बचाए रखने के लिए समझौते करने ही पड़ते हैं. अतः व्यवसायिक लाभ के लिए विज्ञापन छापें और सम्पादकीय टिपण्णी में जनता को जागरूक भी करें .. उदहारण के तौर पर तम्बाकू उत्पादन कि बिक्री पर कोई रोक नहीं है किन्तु वैधानिक चेतावनी छापना अनिवार्य है..
इस विषय पर मेरा ज्ञान सीमित है ,यह आपका व्यावसायिक मसला जान पड़ता है .अतः कुछ भी कहने में असमर्थ हूँ .
जवाब देंहटाएंआपके लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके साथ हैं .
sprite cold drink ki tagline yaad aagayi" seedhi baat no bakwaas"
जवाब देंहटाएंawesh ji
जवाब देंहटाएंyaha ke tamam patrakaro ke bare me sirf etana hi
seth ka kutta ager bimar hai
patrakaro ki kalam taiyar hai
julm ki andhi ager chal jayegi
yah khaber hargij nahi chap payegi
ab enhe yah bhi kah sakate hai ki -
ab to darwaje se apane nam ki takhti utar
lafj nageny ho gaye soharat bhi gali ho gayi.
vijayvinit68@gmail.com
jaayen to jaayen kahaan.....
जवाब देंहटाएंmukhydhaara patrkaarita ki ho ya saahity-kala kee mahaz vartmaan mein jeeti hai....
aur mitr ye mukhy dhara kya bala hai...