सोमवार, 28 दिसंबर 2009

आवेश को जो याद है..... ...


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आज मै ३७ साल का हो गया ,पापा की साईकिल पर आगे बैठ पूरा बनारस शहर घूमते ,छत की मुंडेर से स्कूल से पढ़कर लौट रही माँ की बाट जोहते और मिठाइयों के लिए देर रात तक जागने वाले आशु ने आज अपने बचपन को बहुत पीछे छोड़ दिया है ,सच कहूँ तो मुझे अपने हर जन्मदिन पर अपना बचपन बहुत याद आता है ,वैसे तो मेरा जन्मदिन भी और दिनों की तरह हमेशा से आम रहा न उत्सव ना कोई और आयोजन, लेकिन इस वक़्त मुझे उम्र के साठवें वर्ष में भी हम बच्चों के लिए हमसे दूर रह रही माँ याद आती है , मुझे आपातकाल का वो दिन याद आता है जब मेरे पिताजी को पॉवर हाउस उड़ाने का आरोपी बनाकर जेल भेज दिया गया था और मै जेलर के दरवाजे पर चिल्ला रहा था 'जेल का फाटक छूटेगा,मेरा पापा छूटेगा| वो कुछ दोस्त याद आते हैं जिनका नाम याद है चेहरा नहीं वो भी याद आते हैं जिनका चेहरा याद है नाम नहीं |मुझे अपना वो पुराना स्कूल याद आता है जहाँ फिर से कक्षा एक में नाम लिखाने का मेरा आज भी मन करता है ,अपने उन टीचरों की याद आती है जो मुझे बहुत प्यार किया करते थे ,मुझे अपनी प्रिसिपल सिस्टर नोयेला के दिए अनार याद हैं ,मुझे दाढ़ी बाबा का रिक्शा याद है जिसपर हमारे घर के सारे बच्चे स्कूल जाया करते थे |मुझे अपने मोहल्ले की मिर्जा चाचा की बेटी रूबी की याद आती है जो मुझे भैया कहती थी और जिसकी कटोरी से में अक्सर खीर चुरा लेता था ,मुझे स्काई लैब गिरने का वक़्त याद है जब हम लोग कई दिनों तक दिन रात आसमान को देखते रहे थे |मुझे याद आती है बबलू की जिसे मेरे घर में सब लोग चेलवा कहते थे ,सबके लिए नौकर मगर मेरा पक्का दोस्त ,मुझे आज भी याद है कि जब हम बिस्तर पर सोते थे तो वो जमीन पर सोता था ,मुझे ये भी याद है कि उस दिन वो बहुत डांट खाया था जब घर के बाहर सोयी मेरी तीन साल की छोटी बहन चीनू के पास बैठा वो ऊँघ रहा था तब तक वहां पर भेड़िया आ गया ,हालाँकि शोर मचाने पर भेड़िया तो भाग गया ,लेकिन बबलू फिर चला गया जब २२ साल बाद एक बार फिर हमारे शहर लौटा तो वो एक दुर्घटना के बाद अपना आत्मसंतुलन खो बैठा था ,लेकिन उसे मेरी याद थी , वो अचानक जो फिर गायब हुआ दुबारा नहीं लौटा |मुझे अपने मित्र विद्यासागर की याद आती है जो कक्षा का सबसे तेज बच्चा था जिसकी लिखावट पर हम बहुत नाज करते थे .कुछ दिन पहले वो मिला था मुझसे ,बेरोजगारी से जूझता और मुझसे कहीं नौकरी लगाने की गुजारिश करता हुआ |हाँ ,मुझे पड़ोस में रहने वाली त्रिवेणी की अम्मा कि भी याद है जिनका भी मैंने दूध पिया है | जब मै बीते हुए कल के आईने मे आज को देखता हूँ तो मेरा मौजूदा चेहरा धुंधला सा हो जाता है |फिर सोचता हूँ क्यूँकर नहीं हुई जिंदगी उतनी ही जितना बचपन था|
मुझे अपनी अम्मी दादी की बहुत याद आती है .मुझे आज भी कहने में गर्व होता है कि मै अपनी माँ का बेटा कम अपनी दादी का बेटा ज्यादा हूँ |,मुझे याद आती है दादी के हाँथ की बनायीं हुई गुझिया और मेरा बार बार कहना अम्मी दादी एक दे दे ,दादी किसी को न दे पर मुझे दे देती थी |माँ नौकरी के लिए जब मुझे लेकर दूसरे शहर चली आई तो मेरी दादी एक प्लास्टिक के बैग में ढेर सारा समान लेकर मेरे पास आ जाती,मुझे याद है कि दादी जब कैंसर से मरी तो मै ६ साल का था उस वक़्त मुझे बार बार बताया जा रहा था दादी मर गयी पर में समझ नहीं पा रहा था ,शायद सोचता था दादी भी भला कभी मरती हैं? मुझे अपने इन्टू चाचा की बहुत याद आती है जो मेरे लिए आज भी दुनिया का सबसे खुबसूरत आदमी है ,मुझे सिर्फ चार साल बड़ा इन्टू चाचा मुझे साईकिल पर पीछे बिठा गुल्ली डंडा बनवाने बहुत दूर चला जाता था ,और आता तो दादा की गाली सुनता ,मुझे याद है कैसे अनु दीदी और मेरे इन्टू चाचा ने मेरी आँखों में कोलतार पोत दिया था |मुझे ये भी याद है कैसे इन दोनों लोगों ने गर्मी के दिनों में घर के सारे तकिये पानी में डाल दिया थे और निकलकर सर के नीचे लगाकर सो गए थे ,मुझे अब भी याद है कैसे मै और मेरा चाचा छत पर साथ सिगरेट पीते थे |एक बात जो मै अब भी समझ नहीं पाता हूँ वो ये है कि कैसे अचानक एक दिन मेरा इन्टू चाचा ,मेरा इन्टू चाचा कम सबका इन्टू अधिक हो गया था|मुझे कभी -कभी शाम को स्कूल से लौटने पर सरसों के तेल ,नमक और प्याज में सना चावल का खाना भी याद है | मुझे अपने दादा जी की बहुत याद आती है कि उन्होंने ग़जब का दुस्साहस करते हुए कैसे मेरा सीधे कक्षा ३ से नाम कटवाकर कक्षा ६ में लिखवा दिया था और घर में सभी लोग अपना माथा पीट रहे थे,मुझे अपने मिलिटरी ऑफिसर दादा का हारमोनियम पर गूंजता स्वर 'वर दे वीणा वादिनी वर दे 'भी बहुत याद आता है |मुझे अपनी मीरा बुआ की याद आती है ,जो मेरी द्वारा गाली देने की शिकायत लेकर आये मेरे दोस्तों को ये कहा करती थी ,कि मेरे यहाँ ये गाली नहीं मानी जाती |मुझे याद है वो कई साल जब पीएमटी का रिजल्ट आने के बाद मेरी छोटी बहन अकेले में फूट फूट कर रोया करती थी और माँ कहा करती थी कि क्या पढ़ती है पता नहीं ,,वो दिन भी याद है जब बहन ने पीएमटी में टॉप किया था और उस वक़्त मै अकेले में रो रहा था |मुझे छोटे भाई तन्मय का वो झूठ भी याद है जब उसके झूठ बोलनेकी वजह से पिता के हांथों निरपराध पीटा गया था |मुझे याद है कि कैसे बचपन में मै एक बार घर से बिना बताये बहुत दूर घूमने चला गया था और घर वापस आने पर माँ ने मुझसे सारे बर्तन मजवाये थे |मुझे 'अनामदास का पोथा 'बाणभट्ट की आत्मकथा "और "लोपामुद्रा "की भी याद है
मुझे अपने से दो साल बड़ी रवि की बहुत याद आती है जिसकी शक्ल स्टेफी ग्राफ जैसी थी और जिससे मैंने उसे वक़्त प्रपोज किया था जब मै हाई स्कूल में पढ़ रहा था ,हालाँकि कुछ ही दिनों बाद वो अपने उम्र के एक दूसरे लड़के से मोहब्बत करने लगी |,मुझे १५-१६ वर्ष की उम्र में अपने मित्र पवन के साथ की गयी साहसिक यात्राओं की बहुत याद आती है ,हमें याद है ग़जलें और कवितायें लिखने वाला पवन जब कभी दूर जाता फूट फूट कर रो पड़ता था |मुझे मकर संक्रांति के तिलवों की बहुत याद आती है जो अब समयाभाव में नहीं बन पाते ,मुझे मिटटी के पुरवा ,परई और पत्तल में परोसे गए खाने की बहुत याद आती है |मुझे आदिवासी बेसाहू चाची की बहुत याद आती है जिनके यहाँ मैंने पहली बार चकवड़ का साग बनते देखा था |मुझे १७ साल की उम्र में अखबार के पाठक मंच में पिताजी के लेख के खिलाफ लिखी गयी टिप्पणी भी याद है |मुझे याद है शशि कि , जिसे मैंने भोर में ५ बजे अपना प्रेम प्रस्ताव दिया था आज १७ सालों बाद भी लगता है कि कल ही की तो बात है कि टीचर उसे डांट रहे हैं और मै उससे कह रहा हूँ "शशि तुम्हे मेरी कसम है मत रोवो" |मुझे शशि को लिखे गए वो प्रेमपत्र भी याद है जिन्हें मै कभी कभी पोस्ट ऑफिस से भेज दिया करता था और एक दिन वो उसके पिता के हाँथ पड़ गए ,और मै अपने पिता के हाथों पीटा गया ,मुझे शेक्सपियर के जुलियस सीजर का ब्रूटस भी बहुत याद आता है ,में सोच नहीं पाता उसने विश्वासघात क्यूँ किया ?
मुझे याद है डाला गोलीकांड की जब निजीकरण के खिलाफ आन्दोलन कर रहे निहत्थे मजदूरों पर पुलिस ने गोलियां बरसाई थी उसमे दर्ज़न भर मजदूरों के साथ मेरा मित्र राकेश भी मारा गया था ,मुझे याद है उस एक रात लगभग आस पड़ोस के लोग पुलिस के डर से मेरे घर की छत पर शरण लिए हुए थे ,मुझे इंदिरा गांधी और राजीव गाँधी की हत्या और उसके बाद आम लोगों का रोना भी याद है ,मुझे राजीव गोस्वामी की आरक्षण के विरोध में आत्मदाह करते हुए अखबार के पहले पन्ने पर छपी तस्वीर भी याद है ,मुझे याद है कि कैसे अचानक एक ही दिन में मै सवर्ण और दलित का मतलब जान गया था |मुझे वनवासी भालुचोथवा की याद है ज्सिने अपनी मजबूत भुजाओं से सात जंगली भालुओं को मार दिया था,और मुझे ७० की उम्र में २० वर्ष और जीने की बाद कहता था ,लेकिन अचानक एक दिन चला गया |मुझे पहले पहल अपने घर में लाये गए टीवी पर बजता हुआ 'मिले सुर मेरा तुम्हारा ' भी याद है |मुझे याद है स्कूल के साथ- साथ घर में दिन रात पिसने वाली माँ के हांथों के बने खाने की ,बेसन के हलवों की ,नाना की ,नानी की ,गंगा की ,गंगा किनारे बसे उन चेहरों की जो अब भी ख्यालों में जब नहीं तब मुझे हाँथ हिलाते दिख जाते हैं |

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

पा ,पत्रकारिता और पतन



आपमें से बहुतों ने 'पा' देखी होगी और उसमे भीड़ द्वारा , पत्रकारों की पिटाई का नजारा देखा होगा,हमने भी देखा |सच तो ये है वो एक दो सीन देखकर मुझे भी किसी दर्शक की तरह सकून मिला ,शायद अगर ऐसा रियल लाइफ में हुआ होता तो ये भूलकर कि मै भी एक पत्रकार हूँ मैंने उस टीवी एंकर का सर फोड़ दिया होता जो आम आदमी की दुश्वारियों को अपनी झूठी ख़बरों से और भी मुश्किल बना रहा था और एक व्यक्ति के ईमानदार प्रयासों को अपनी बेईमान ख़बरों से रौंदने का काम कर रहा था |'पा' के निदेशक बाल्की जी के साहस की हम दाद देना चाहेंगे कि ऐसी परिस्थतियों में जब मीडिया खुद को देश,देश के लोगों और देश की संस्थाओं का भाग्यविधाता मानता है उन्होंने ऐसा कथानक प्रस्तुत करने का साहस किया |ये स्टोरी सिर्फ प्रिज़ोरिया से जूझ रहे आरो की है बल्कि उस मीडिया की भी है जो मानसिक तौर पर प्रिजोरिया से भी घातक व्याधि से जूझ रहा है |ये फिल्म सीधे सीधे मीडिया के उन घोड़ों की पीठ पर पड़ी चाबुक है जिन्होंने अपने छोटे बड़े स्वार्थों के लिए ख़बरों की लैबोरटरी खोल रखी है वो लैबोरटरी जिसमे में सिर्फ ख़बरें पैदा की जा रही है बल्कि उन ख़बरों के जेनेटिक कोड भी बड़ी सफाई से बदले जा रहे हैं ,,लालगढ़ से लखनऊ तक ये नजारा आम है |विभिन्न अभिक्रियाओं से गुजरने के बाद समाचारों का जो चरित्र आम लोगों के बीच रहा है वो ५० की उम्र में घर से भागी हुई किसी अधेड़ औरत की तरह है जिसे तो अपने बच्चों की फिकर होती है ही उस पति की जो उसे सर आँखों पर बिठाकर रखता था |हम ये कहने में तनिक भी ऐतराज नहीं है कि कभी सत्ता तो भी अखबारी बनियों के हाथों इस्तेमाल होने की नियति ने मीडिया को आज खुद शोषण और उत्पीडन का औजार बना दिया है वो अपने आर्थिक हितों के लिए ख़बरों का तो इस्तेमाल करता ही है ,समूह के खिलाफ जाने से भी गुरेज नहीं करता| क्या ये सच नहीं है कि ,आज भी इलेक्ट्रनिक चैनलों की ख़बरों का ताना बाना देश के उन दस फीसदी लोगों के इर्द गिर्द ही केन्द्रित हैं जिनसे उन्हें टी.आर.पी में अव्वल रहने और धंधे में लाभ का सुख मिलता है ?क्या ये भी सच नहीं है कि अखबार विज्ञापनों से जुडी कमाई के लालच में नकारे नेताओं और पार्टियों को आम जनता पर जबरिया थोप रहे हैं ? सच तो ये है कि हमने खुद को शीशे में देखने का काम छोड़ दिया है हम अपने बदन से रिस रहे फोड़ों को जानबूझ कर अनदेखा कर रहे हैं ,ऐसे में सिर्फ सिनेमा के परदे पर बल्कि संसद के गलियारों से लेकर सड़कों तक हमें लतियाया जाना तय है |
पत्रकार और ब्लॉगर 'रविश कुमार ' अपने ब्लॉग में कहते हैं "'पा' घटिया स्तर से नीचे चल रही मीडिया पर लात-जूते बरसाती है बाहर की असली मीडिया में इस पर सन्नाटा। फ़िल्म की कहानी से घोर सहमति बता रही है क्या?"बिलकुल ये शत प्रतिशत सच है कि हम इस कहानी से सहमत हैं !और शायद हमारी चुप्पी ही आखिरी उम्मीद है |आज अगर हिंदुस्तान की मीडिया में कुछ अच्छा है तो वो सिर्फ ये है कि हम अपनी हकीकत जानते हैं और उससे सहमत भी हैं |ख़बरों के साथ खेले जाने का सिलसिला नया नहीं है इसकी शुरुआत आपातकाल के दिनों में ही हो चुकी थी हाँ अंतर ये जरुर आया कि पहले ख़बरों को जिन्दा रखने के लिए पैसे कमाए जाते थे आज पैसे कमाने के लिए ख़बरों का इस्तेमाल किया जा रहा है पहले राजनीतिक पार्टियाँ अखबार निकालती थी अब अखबार राजनैतिक दलों के लिए निकलने लगे |ट्रांस्फोर्मेशन की इस प्रक्रिया में जो कुछ खोया आम आदमी ने खोया ,उसने खोया जो खुद को हमेशा से ख़बरों का हिस्सा मानता रहा है ,उसने भी खोया जिसके लिए खबर ही आखिरी उम्मीद थे |
मेरी मुलाक़ात रोज ही ऐसे लोगों से होती है जो अपनी जिंदगी की छोटी बड़ी दुश्वारियोंसे निजात पाने के लिए मुझसे ख़बरें लिखने का अनुरोध करते हैं ,परासपानी का रामरथ बिजली कड़कने से अपने चार भैसों के मरने की खबर छपने की उम्मीद करता है तो कोन के श्याम सिंह को गाँव में मलेरिया से हो रही मौतों पर ख़बरों की जरुरत होती है ,बीरपुर का ललन फ़ोन पर अपने निर्दोष बेटे को हफ्ते भर से थाने में बैठाये जाने की खबर छपने की गुजारिश करने के लिए सबेरे से ही घर पर आया हुआ है ,कहने को तो ये आपको सामान्य और छापे जाने लायक ख़बरें लगती होंगी ,लेकिन हकीकत बेहद अलग है |मुझे याद है उन दिनों कि जब मै दैनिक जागरण में था एक दिन मुझे बुलाकर कहा गया कि आप उनके बारे में ख़बरें लिखें जो आपका अखबार पढता है उनके बारे में लिखें जिस आपका अखबार खरीदने की भी कुबत नहीं !ऐसा ही कुछ सच उस वक़्त भी मेरी आँखों के सामने आया जब जहरीले पानी से दस दिनों में हुई दो दर्जन मौतों को आई.बी,.एन -7 के मेरे मित्र ने लो प्रोफाइल बता कर कवरेज करने से इनकार कर दिया | अब आप खुद ही अंदाजा लगायें शहरों में रह रहे उन दस फीसदी लोगों के अलावा जिनके बारे में जो कुछ भी लिखा जा रहा है वो कितना इमानदार होगा |हमें कहना होगा आज देश में मीडिया सामन्तों की भूमिका अदा कर रहा है .एक ऐसा सामंत जिसके खिलाफ आवाज उठाने का साहस किसी के पास नहीं ,वो मनमानी करेगा और खूब करेगा |
पिछले - वर्षों से छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा अखबारों और पत्रिकाओं को दिए जाने वाले अरबों रुपयों के विज्ञापन की वजह सभी जानते हैं अगर आप ये सोच रहे हैं कि ये सरकार की छवि को साफ़ -सुथरा रखे जाने की कीमत है तो आप गलत हैं ,!ये सब कुछ नक्सली उन्मूलन के नाम पर किये जा रहे उत्पीडन ,शोषण ,विस्थापन और सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ों को छुपाये जाने की की कीमत है |ये भी एक हकीकत है कि मीडिया ने सत्ता के सामने घुटने टेककर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं पश्चिम बंगाल ,बिहार ,उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में दलितों ,आदिवासियों और समाज के निपढ तबके के खिलाफ काम किया है वरिष्ठ पत्रकार रूपचंद गौतम कहते हैं 'भारतीय पत्रकारिता ने दलित अस्मिता का जितना मजाक उड़ाया है है ,उतना शायद किसी और ने नहीं |मै रूपचंद जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ |और इस सहमति के तर्क भी मेरे पास मौजूद हैं| मै उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल सोनभद्र जनपद से हूँ जिसे देश की उर्जा राजधानी भी कहते हैं ,पिछले वर्षों के दौरान गरीबों ,विस्थापितों कि हजारों बीघे जमीन पर जेपी एसोसियेट ने सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर कब्ज़ा जमा लिया ,आदित्य बिरला के एलुमिनियम कारखाने में झुलसकर पिछले एक वर्ष के दौरान एक दर्जन मौतें हुई हैं ,कनोडिया केमिकल के विषैले जहर से हजारों पशुओं की मौत हो गयी ,वहीँ दो दर्जन आदिवासियों को भी अपनी जान गवानी पड़ी ,ये ख़बरें अख़बारों और टीवी चैनलों की कवरेज का हिस्सा सिर्फ इसलिए नहीं बन पायीं ,क्यूंकि जिनसे सम्बंधित ये ख़बरें थी उन्होंने करोडो खर्च करके ख़बरों का ही गर्भपात कर दिया |ऐसा सिर्फ यहाँ नहीं पूरे देश में हो रहा है,मगर हम चुप हैं ,ये जानते हुए भी कि देश की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ हमें गरिया रहा है बल्कि हाँथ में जूता लेकर भी खड़ा है |अब शायद समय गया है मीडिया के बीच में मीडिया से जुड़े मुद्दों पर जम कर चर्चाएँ की जाएँ ,वेब मीडिया ने इसकी शुरुआत की थी ,अब सिनेमा के पर्दों पर भी हमें शीशा दिखाया जाने लगा,आत्ममूल्यांकन के इस क्षण को अगर हमने गँवा दिया तो शायद फिर कभी वापसी हो सके |

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

अमृता -इमरोज और साझा नज्म





पंद्रह दिनों पहले अमृता एक बार फिर इमरोज़ के सपनों में आई, बादामी रंग का समीज सलवार पहने |'सुनते हो ,कमरे में इतनी पेंटिंग क्यूँ इकठ्ठा कर रखी है ?अच्छा नहीं लग रहा ,कुछ कम कर दो "|अमृता कहें और इमरोज़ न माने ,ये तो कभी हुआ नहीं ,अब इमरोज़ ने कमरे से पेंटिंग कम कर दी हैं ,कमरे में फिर से रंगों रोगन करा दिया है |हाँ ,अपने बिस्तर के पैताने या कहें आँखों के दायरों तक ,और मेज़ पर रखे रंगों और ब्रशों के बीच अमृता की तस्वीरें टांग रखी है |इन तस्वीरों को देखकर यूँ लगता है जैसे हर वक़्त अमृता आज भी इमरोज़ की निगहबानी कर रही है ,इमरोज़ घर से बाहर कम जाते हैं ,क्यूँकर जाते ?उन्हें लगता है अमृता घर में अकेली होगी|बेतरतीबी के बावजूद खूबसूरती से जवान हो रहे फूल पौधों के पीछे किसी नज़्म सी दिख रही दीवारों के बीच प्यार के इन मसीहाओं की मौजूदगी को महसूस करना बेहद सकून देने वाला है |हमारे घुसते ही 80 की उम्र में भी अपार उर्जा से भरे इमरोज़ हमारे कन्धों को पकड़ हमें कुर्सी पर बैठा देते हैं |आप जानते हैं अमृता की मौत नहीं हुई ,मेरे लिए तो अमृता हर वक़्त मेरे साथ है ,जब चाहा उससे बातें कर लीं ,आजकल वो मेरी नज्में पढ़कर बेहद मुस्कुराती है| अमृता की मौजूदगी को लेकर उनका ये विश्वास बेहद सहज लगता है ,वे कहते हैं देखो, अब इस कमरे को अमृता के कहने पर थोडा सा बदल दिया,कितना अच्छा लगने लगा है न ? इमरोज़ के बगल में बैठी एक खुबसूरत पंजाबी लड़की जो शायद अमृता के किसी दोस्त की बेटी है ,इस सहजता को सच साबित करते हुए कहती है ,मुझे लगता है गुरूद्वारे जाने से अधिक अच्छा इमरोज़ बाबा से मिलना है ,सारी थकान सारी कुंठाएं न जाने कहाँ गायब हो जाती हैं |
इमरोज ,आप किस अमृता को प्यार करते थे ?वो अमृता जो एक नामचीन लेखिका और कवियत्री थी या फिर वो अमृता जो सिर्फ अमृता थी|,इमरोज़ ये सवाल सुनकर कहीं खो जाते हैं ,ख़ामोशी टूटती है 'जानते हैं आप ! मैंने ४ साल कि उम्र में माँ को खो दिया था ,बाद में जब कोई औरत मिलती मैं उसमे माँ ढूंढने लगता ,लेकिन जबसे अमृता से मिला धीमे धीमे मैंने माँ को ढूँढना बंद कर दिया ,यकीं शायद न हो लेकिन हेर रिश्ता उसमे समाहित हो गया और ये सब कुछ उसके व्यक्तित्व की वजह से था,जब वो खाना बनती थी ,तो एक एक करके मुझे गरम रोटी परोसती थी |जब तक मैं न आऊं वो खाना न खाए ,कहती थी,मैं खाना एन्जॉय करना चाहती हूँ इमा वो तुम्हारे साथ बैठे बिना संभव नहीं होता |वो मुझसे मिलने से पहले खाना नहीं बनती थी ,लेकिन मेरे मिलने के बाद रसोई भी उसकी एक सहेली हो गयी |मेरी नज्मों का सफ़र भी उसके साथ शुरू हुआ ,जब वो बीमार बिस्तर पर थी मैंने उसके सिरहाने बैठकर पहली नज़्म लिखी थी 'जब तुम पेड़ से बीज बन रही थी ,मेरे अन्दर कविता की पंक्तियाँ फूटने लगी '|
चाय के आधे भरे कप को घूर रहे इमरोज बात करते-करते यूँ फ्लैश बेक में चले जाते हैं जैसे सब कुछ इसी एक पल की बात हो ,चुस्कियों के साथ चुप्पियाँ टूटती है ,"जानते हैं ?अमृता और मैंने कभी आज तक एक दूसरे को आई लव यू नहीं बोला ,२६ जनवरी को मेरा जन्मदिन था,में उसके घर आया था ,मैंने उसे बताया और कहा गांवों में तो जन्मदिन नहीं मानते हैं,अमृता अचानक उठी और कुछ देर के लिए गायब हो गयी उसके लौटने के थोड़ी देर बाद एक आदमी आया और हमारी मेज़ पर केक रख गया ,न हमने उसे धन्यवाद कहा न उसने हमें जन्मदिन की मुबारकबाद दी ||एक वक़्त था जब पंजाब की पत्र पत्रिकाओं में अमृता के खिलाफ काफी कुछ कहा जाता था ,मैं देखता था इससे अमृता दुखी हो जाया करती थी ,सो मैं नीचे ही सारे अखबार और पत्र पत्रिकाएं पढ़ लेता था और उनमे से जिनमे अमृता के खिलाफ कुछ नहीं होता वही ऊपर भेजता था कई बार यूँ भी होता था कि अगर किसी अखबार में उसकी तस्वीर अच्छी नहीं छपी होती थी तो मैं उस पर उसकी सुन्दर सी तस्वीर चस्पा करके उसके पास भेज देता |
अमृता और इमरोज़ की बात हो और साहिर पर चर्चा न हो यूँ कैसे हो सकता है इमरोज़ के शब्दों में' बीस साल की दोस्ती थी दोनों की'|इमरोज़ बताते हैं कि जब मैं अमृता को स्कूटर पर बैठा कर रेडियो स्टेशन ले जाया करता था वो मेरे कुरते पर पीछे साहिर का नाम लिखा करती थी ,कभी जलन नहीं हुई ?मैंने तपाक से पूछा ,'अरे!जलन कैसे ?वो मेरा भी जिगरी दोस्त था ,कैसे भूल सकती थी अमृता उसे ,एक बार यूँ भी हुआ वो मुंबई गयी हुई थी किसी कार्यक्रम में ,वहां साहिर भी आये हुए थे ,साहिर्रने पूछा कब जाना है ?अमृता ने कहा आज शाम की ही फ्लाईट है,साहिर ने अमृता से टिकट माँगा और अपने जेब में रख लिया,और ये कहते हुए कि ये टिकट कल की भी हो सकती है ,साहिर अमृता को अपने घर ले गया ,अमृता ने मुझे फोन पर इतिल्ला दी थी ,वो पूरी रात साथ रहे ,लेकिन न मैंने अमृता के लौट के आने के बाद कोई सवाल किया न ही अमृता ने अपनी तरफ से कोई बात बताई | हाँ ,वहां से लौटकर लिखी गयी उसकी नज़्म में उस रात की सारी दास्ताँ थी जिसमे कहा गया था "आधी नज़्म एक कोने बैठी रही ,आधी नज़्म दूसरे कोने बैठी रही "|हलकी सी चाशनी घुली मुस्कान के साथ इमरोज कहते हैं मेरी मुलाक़ात जब अमृता से हुई वो ४० साल की थी ,मुझसे उम्र में सात साल बड़ी ,मानसिक तौर पर बहुत परेशान अमृता जब एक रोज़ डॉक्टर के पास गयी और अपने पति से अलग होने की बात कही तो डॉक्टर ने पूछा' क्या तुमने अपनी चाहत खोज ली है' ?तो अमृता ने कहा 'नहीं' ,ये वो वक़्त था जब अमृता की साहिर के साथ दोस्ती को एक लम्बा अरसा बीत चुका था ,डॉक्टर ने कहा 'तब अभी अपने पति से अलग मत हो 'फिर कुछ ही दिनों बाद मै मिला और उसने मेरे लिए सब छोड़ दिया,अमृता और साहिर जिंदगी भर एक दूसरे पर नज़्म लिखते रहे बस ||मैंने उन दोनों के बारे में कभी लिखा था
वो नज़्म से बेहतर नज़्म तक पहुँच गया
वो कविता से बेहतर कविता तक पहुँच गयी
पर जिंदगी तक नहीं पहुंचे
अगर जिंदगी तक पहुँचते
तो साहिर की जिंदगी नज़्म बन जाती
अमृता की जिंदगी कविता बन जाती

क्या आपमें अमृता को लेकर कभी इगो कंफ्लिक्ट हुआ ?अरे !ये क्या बात हुई ?कैसा
इगो ?मै अपनी पेंटिग्स पर अपना नाम भी नहीं लिखता वो मुझसे अधिक ,बेहद अधिक नामचीन थी ,मैंने सिर्फ एक बात जानी 'जो तुम्हे रुलाता हो ,वो तुम्हारा नहीं है ' ,|मैंने कभी वादा नहीं किया,उसने कभी वादा नहीं लिया |शायद बहुतकम लोग जानते हैं वो सपने में लिखती थी उसे ढेर सारे सपने आते थे मुझे सपने कम आते हैं ,उसके सपने भी मेरे सपनों से खुबसूरत हुआ करते थे |मैंने लिखा है 'जब तू पेड़ से बीज बनने लगी ,मेरे अन्दर किस तरह से कविताओं की पंक्तियाँ फूटने लगी "|
इमरोज़ आपने पेंटिंग्स और कविताओं में क्या साम्यता पाते हैं ?'कोई साम्यता नहीं है |पेंटिंग्स कोई सोच कर नहीं बना सकता ,रंग आपके कण्ट्रोल में नहीं होते हैं ,मै रंगों से खेलता हूँ ,जबकि नज्में सोच लेकर चलती हैं |पेंटिंग्स को लेकर अपना फलसफा इमरोज़ कुछ ऐसे बयां करते हैं
कैनवास धरती नहीं होते
रंग बीज नहीं होते
कैनवास पर लाइफ पेंट करना
स्टील लाइफ हो जाती
स्टील लाइफ में लाइफ नहीं होती
वो कहते हैं अगर कोई ये कहे हमने कैनवास पर जिंदगी पेंट की है तो वो झूठ कहता है|
इमरोज़ से हम चलते -चलते वुमेन विथ माइंड शीर्षक की पेंटिंग के बारे में बात करते हैं |वो बताते हैं 'अमृता ने मुझसे एक दफा पूछा की तुमने कभी वुमेन विथ माइंड बनायीं है ? वुमेन विथ फेस तो सब बनाते हैं'|अमृता के कहने का मतलब में समझ रहा था ,बहुत ही कम लोग होते हैं जो जिस्म से आगे बढ़ पाते हों , कोई भी पेंटर जब भी ब्रश से औरत को उकेरता है ,तो उसके जेहन में सिर्फ औरत का शरीर होता है |इमरोज कहते हैं जब तक पुरुष स्त्री का आदर नहीं करता तब तक वो इंसान नहीं बन सकता है ,और भी सच है कि निरादर सह रही औरतें आदर पैदा नहीं कर सकती |मैंने अमृता के कहने पर फिर वुमेन विथ माइंड बनायीं |इमरोज कहते हैं हमारे और अमृता के के बीच में शब्दों का नाता बहुत कम था हम चुप्पियाँ बांटा करते थे ,हमारे लिए धर्म का कोई मलतब नहीं था ,वह जन्म से ही धार्मिक संकीर्णता के विरुद्ध खड़ी थी ,मै भी उसके जैसा हूँ |वो मुझको और मै उसको आज भी हर पल जी रहे हैं, यही धर्म है |सवालों का सिलसिला ख़त्म होता है अधूरे जवाबों को पूरा करने हम अमृता के कमरे में जाते हैं ,सब कुछ वैसे ही है ,अमृता की किताबें ,कागज़ ,कलम ,एक छोटा टीवी और ढेर सारी तस्वीरें ,सोचता हूँ कितना मुश्किल होता है यादों को संजोना और न सिर्फ संजोना उनके साथ जीना |


इमरोज की चार कवितायेँ

१-
एक ज़माने से
तेरी ज़िन्दगी का पेड़
कविता कविता
फूलता फलता और फैलता
तुम्हारे साथ मिल कर
देखा है

और अब
तेरी ज़िन्दगी के पेड़ ने
बीज बनना शुरू किया
मेरे अन्दर जैसे कविता की
पत्तियां फूटने लगीं है...

और जिस दिन तू पेड़ से
बीज बन गई -
उस रात एक नज़्म ने
मुझे पास बुला कर पास बिठा कर
अपना नाम बताया
'अमृता जो पेड़ से बीज बन गई'
मैं काग़ज़ ले आया
वह काग़ज़ पर अक्षर अक्षर हो गई...

अब नज़्म अक्सर आने लगी है -
तेरी सूरत में तेरी तरह हीं देखती मुझे
और कुछ देर मेरे साथ हम कलाम होकर
हर बार मुझ में हीं गुम हो जाती है...

२-
उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं
वो अक्सर मिलती है
कभी तारों की छांव में
कभी बादलों की छांव में
कभी किरणों की रोशनी में
कभी ख्यालों के उजालों में

हम पहले की तरह मिलकर
कुछ देर चलते रहते हैं
फिर बैठकर एक-दूजे को
देख-देख, चुपचाप कुछ कहते रहते है
और कुछ सुनते रहते हैं

वह मुझे अपनी नयी अनलिखी
कविता सुनाती है
मैं भी उसको अपनी अनलिखी
नज़्म सुनाता हूँ

वक़्त पास खड़ा ये अनलिखी शायरी
सुनता-सुनता, अपना रोज़ का नियम
भूल जाता है

जब वक़्त को याद आता है
कभी शाम हो गयी होती है
कभी रात उतर आयी होती है
और कभी दिन चढ़ आया होता है
उसने सिर्फ जिस्म छोड़ा है
साथ नहीं

३-
अमृता मुझे कई नामों से
बुलाती है
दोस्ती के ज़माने में
रेडियो स्टेशन स्कूटर पर जाती
वह बाएं हाथ से मुझे लिपटी रहती
और दायें हाथ से कभी कभी
मेरी पीठ पर कुछ लिखती रहती
एक दिन पता लगा
वह साहिर साहिर लिखती है

मनचाही पीठ पर मनचाहा नाम
मुझे साहिर भी अपना नाम हीं लगा
अमृता की दोस्ती में
इतनी अपनत्व देखी और जी
कि फिर कोई बेगानगी रही ही ना...

उस कि कलम
जब भी लिखती मनचाहा ही लिखती
और उसकी ज़िन्दगी
मनचाहा ही जीती अपने आपके साथ भी
और अपने मनचाहे के साथ भी...


४-
मैं एक लोक गीत
बेनाम हवा में खड़ा
हवा का हिस्सा
जिसे अच्छा लगूँ
वह अपनी याद बना ले
जिसे और अच्छा लगे
वह अपना बना ले
जिसके जी में आये
वह गा भी ले -
मैं एक लोक गीत
सिर्फ लोक गीत
जिसे किसी नाम की
कभी भी
ज़रूरत नहीं पड़ती



[ये पूरा साक्षात्कार मैंने और लेखिका एवं कवियत्री जेन्नी शबनम जी ने संयुक्त रूप से लिया है ]